[ विराग गुप्ता ]: आखिरकार देश को झकझोर देने वाले निर्भया कांड के गुनहगारों को फांसी दे दी गई। सामूहिक दुष्कर्म और हत्या का यह मामला हर लिहाज से दुर्लभतम था। हमारी संवैधानिक व्यवस्था में जघन्य अपराधों के दुर्लभतम मामलों में मृत्यु दंड यानी फांसी की सजा देने का अधिकार न्यायाधीशों को दिया गया है। निर्भया शायद पहला ऐसा मामला है, जिसमें दोषियों को फांसी देने के लिए ट्रायल कोर्ट के जज को चार बार डेथ वारंट यानी फांसी का आदेशपत्र जारी करना पड़ा। यह भी ध्यान रहे कि निर्भया के गुनहगारों की सजा पर अमल का सिलसिला तब तेज हुआ जब इसी तरह का एक मामला पिछले साल हैदराबाद में हुआ।

वकीलों की कानूनी तिकड़मों से फांसी की सजा दो महीने टली

निर्भया के गुनहगारों को 22 जनवरी को फांसी देने के लिए डेथ वारंट जारी किया गया, लेकिन वकीलों की कानूनी तिकड़मों से फांसी की सजा दो महीने टल गई। इस दौरान दोषी पक्ष के वकीलों ने ट्रायल कोर्ट, हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति के सामने करीब 36 याचिकाएं दायर कीं। सामान्य मुकदमे की फाइलिंग, लिस्टिंग, नोटिस, गवाही, सुनवाई और फैसले में कई साल लग जाते हैं, लेकिन पिछले दो महीने में निर्भया मामले से जुड़ी अधिकांश याचिकाओं का फैसला एक दिन के भीतर ही हो गया। इन याचिकाओं के त्वरित निस्तारण से जाहिर है कि जजों में दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो वर्तमान कानूनी व्यवस्था के दायरे में भी अदालतें जल्द फैसला कर सकती हैं।

एक महीने में पुलिस जांच और छह महीने में अदालती फैसले के लिए नियम बन सकते हैं

हैदराबाद कांड के बाद आंध्र प्रदेश सरकार ने दिशा विधेयक के माध्यम से कानूनी बदलाव की एक पहल की। प्रस्तावित कानून के अनुसार ऐसे मामलों में पुलिस को एक हफ्ते में आरोपपत्र दायर करने और अदालतों को दो सप्ताह में फैसला देने के लिए नियम बन रहे हैं। आपराधिक कानून में राज्यों द्वारा किए जा रहे ऐसे बदलावों को केंद्र की सहमति के बाद ही कानूनी मान्यता मिल सकती है। हाल में संसद की स्थाई समिति ने कानूनी सुधार के एक नए प्रस्ताव की अनुशंसा की है जिसके अनुसार एक महीने में पुलिस जांच और छह महीने में अदालती फैसले के लिए नियम बन सकते हैं। सरकार और विधायिका द्वारा मुकदमों के समयबद्ध निष्पादन के लिए की जा रही पहल को न्यायपालिका के सहयोग से ही सफल बनाया जा सकता है।

निर्भया मामले में जजों ने कहा- पूरा सिस्टम कैंसर ग्रस्त हो गया

इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि निर्भया के दोषियों की फांसी की सजा पर अमल को रोकने के लिए दोषी पक्ष के वकीलों द्वारा अपनाए गए हथकंडों पर जजों ने यहां तक कहा कि पूरा सिस्टम कैंसर ग्रस्त हो गया है। इस सिस्टम को कैंसर मुक्त करना ही होगा। सुप्रीम कोर्ट के अनेक आदेशों के बावजूद, दूरस्थ इलाकों में पीड़ितों को पहले एफआइआर दर्ज कराने और फिर मुकदमेबाजी में अच्छा-खासा समय और संसाधन खपाना पड़ता है। यदि निर्भया मामले को टेस्ट केस मानते हुए न्यायिक व्यवस्था का ऑडिट किया जाए तो अनेक जरूरी न्यायिक सुधार किए जा सकते हैं। इस पर विचार होना ही चाहिए कि जो अदालतें दो महीने में करीब 36 मामलों का निष्पादन कर सकती हैं वही मुख्य मामले का निस्तारण सात वर्षों में क्यों कर सकीं?

सख्त कानून और त्वरित न्याय से ही अपराधियों में खौफ पैदा होता है

जिस फुर्ती से पिछले दो महीनों में अदालतों ने फैसले दिए उसी तत्परता से देश के तीन करोड़ मामलों में जल्द फैसला हो तो अपराधियों में कानून का डर फैलने के साथ ही समाज की सेहत भी सुधरेगी। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज कुरियन जोसेफ और अनेक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने फांसी से अपराधों पर लगाम लगने की अकादमिक बहस छेड़ दी है। यह बहस होनी चाहिए, पर यह नहीं भूला जाए कि सख्त कानून और त्वरित न्याय से ही अपराधियों में खौफ पैदा होता है।

निर्भया मामले के बाद अनेक सख्त कानून बने, पर अमल का सिस्टम नहीं बन सका

निर्भया मामले में मीडिया की सजगता की वजह से ही सात साल बाद दोषियों को फांसी की सजा सुनाई गई और गत दिवस इस सजा पर अमल भी हो गया, लेकिन अन्य तमाम मामलों में फांसी की सजाओं में बेवजह विलंब हो रहा है। निर्भया मामले के बाद अनेक सख्त कानून तो बनाए गए, पर उनके अमल का सिस्टम नहीं बन सका। यह सिस्टम बनाना अनिवार्य है, क्योंकि जहां यह जरूरी है कि दोषियों को जल्द सजा मिले वहीं यह भी कि निरपराध लोग बेवजह जेल में न सड़ते रहें। मुकदमों का जल्द निपटारा जरूरी है।

एक देश एक कानून की व्यवस्था होनी चाहिए

जेलों की व्यवस्था राज्यों के अधीन है, जहां अभी भी अंग्रेजों के समय के नियम और कानून लागू हैं। यदि 21वीं सदी की जरूरतों के अनुसार नए नियम बनें तो एक देश एक कानूनी व्यवस्था की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हो सकती है।

ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जिससे देश के सभी लोगों को जल्द न्याय मिल सके

निर्भया मामले में न्यायिक विलंब से जो अनेक विसंगतियां उजागर हुई हैं उन पर सरकार और संसद के साथ न्यायपालिका को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। देश में करोड़ों मुकदमों में तारीख पर तारीख मिलती रहती है, लेकिन मीडिया रिपोर्ट से प्रभावित मामलों में रात के अंधेरे में भी अदालतों के दरवाजे खुल जाते हैं। न्यायपालिका द्वारा ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जिससे देश के सभी लोगों को जल्द न्याय मिल सके।

दया याचिकाओं के दुरुपयोग को रोकने और समयबद्ध निस्तारण की व्यवस्था बने

यह भी जरूरी है कि दया याचिकाओं के दुरुपयोग को रोकने और उनके समयबद्ध निस्तारण की व्यवस्था भी बने। चूंकि सुप्रीम कोर्ट देश की संवैधानिक अदालत है इसलिए रिव्यू और क्यूरेटिव पिटीशन के समयबद्ध निस्तारण की व्यवस्था उसे ही बनानी चाहिए। निर्भया मामले का सबसे बड़ा सबक यह है कि न्यायिक तंत्र के दुरुपयोग के मामलों में जुर्माने और सजा की ठोस व्यवस्था बने ताकि फालतू की याचिकाएं न दायर हों। यह सब करके ही हम निर्भया को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं।

( स्तंभकार सुप्रीम कोर्ट के वकील एवं ‘रेप लॉज एंड डेथ पेनाल्टी’ के लेखक हैं )