[ मोहन भागवत ]: यह आनंद का क्षण है। बहुत प्रकार से आनंद है। हमने एक संकल्प लिया था और मुझे स्मरण है कि तबके हमारे संघ के सरसंघचालक बाला साहब देवरस जी ने हमें कदम आगे बढ़ाने के पहले यह बात याद दिलाई थी कि बहुत लगकर बीस-तीस साल काम करना पड़ेगा, तब यह काम होगा। बीस-तीस साल हमने काम किया।

कितने ही लोग हैं जो आ भी सकते थे, लेकिन बुलाए नहीं जा सकते

तीसवें साल के प्रारंभ में हमें संकल्प पूर्ति का आनंद मिल रहा है। हमने प्रयास किए हैं जी-जान से। अनेक लोगों ने बलिदान दिए हैं। वे सूक्ष्म रूप में आज यहां उपस्थित हैं, प्रत्यक्ष उपस्थित हो नहीं सकते। ऐसे भी हैं जो हैं, लेकिन यहां आ नहीं सकते। रथ यात्रा का नेतृत्व करने वाले आडवाणी जी आज अपने घर में बैठकर इस कार्यक्रम को देख रहे होंगे। कितने ही लोग हैं जो आ भी सकते थे, लेकिन बुलाए नहीं जा सकते, क्योंकि परिस्थिति ही ऐसी है।

पूरे देश में आनंद की लहर देख रहा हूं, सदियों की आस पूरी होने का आनंद है

मैं पूरे देश में आनंद की लहर देख रहा हूं। सदियों की आस पूरी होने का आनंद है, लेकिन सबसे बड़ा आनंद यह है कि भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए जिस आत्मविश्वास की आवश्यकता थी और जिस आत्मभान की आवश्यकता थी उसका सगुण साकार अधिष्ठान बनने का शुभारंभ हो रहा है। यह अधिष्ठान है आध्यात्मिक दृष्टि का-सियाराम मैं सब जग जानी।

सारे जगत में अपने को और अपने में सारे जगत को देखने की भारत की दृष्टि

सारे जगत में अपने को और अपने में सारे जगत को देखने की भारत की दृष्टि, जिसके कारण भारत के प्रत्येक व्यक्ति का व्यवहार आज भी विश्व में सबसे अधिक सज्जनता का व्यवहार होता है और देश का सामूहिक व्यवहार सबके साथ वसुधैव कुटुंबकम का होता है। ऐसा स्वभाव और ऐसे अपने कर्तव्य का निर्वाह व्यावहारिक जगत के, जगत की माया की दुविधा में से रास्ते निकालते हुए, जितना हो सके सबको साथ लेकर आगे चलने की जो विधि बनती है, उसका अधिष्ठान आज यहां पर बन रहा है।

सबका कल्याण करने वाले भारत के निर्माण का शुभारंभ

परम वैभव संपन्न और सबका कल्याण करने वाले भारत के निर्माण का शुभारंभ हो रहा है। ऐसे निर्माण का व्यवस्थागत नेतृत्व जिनके हाथ में है, उनके हाथ से हो रहा है। यह और एक आनंद है और इसलिए उन सबका स्मरण होता है। लगता है अशोकजी यहां रहते तो कितना अच्छा होता। महंत परमहंस रामचंद्रदास जी हो सकते तो कितना अच्छा लगता, लेकिन उसकी जो इच्छा होती है वैसे ही होता है। मेरा विश्वास है कि जो हैं वे मन से हैं और जो नहीं हैं वे सूक्ष्म रूप से आज यहां उस आनंद को उठा रहे हैं। उस आनंद को शतगुणित भी कर रहे हैं। इस आनंद में एक स्फुरण है, एक उत्साह है कि हम कर सकते हैं-हमको करना है और यह करना है-

एतद् देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।

स्वं स्वं चरित्रां शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्वमानवा:।।

(संपूर्ण विश्व के समस्त भागों से ज्ञान पिपासु मानव ज्ञान की खोज में इस आर्यावर्त में आएंगे तथा देश के सुसंस्कृत साहित्य एवं संस्कृति से नैतिकता और चरित्र का पाठ सीखेंगे)

पुरुषार्थ, पराक्रम, वीरोवृत्ति हमारी रग-रग में है

हमें जीवन जीने की शिक्षा देनी है। अभी यह कोरोना का दौर चल रहा है। सारा विश्व अंतर्मुख हो गया है। विचार कर रहा है कहां गलती हुई। कैसे रास्ता निकले। दो रास्तों को देख लिया, तीसरा रास्ता कोई है क्या? क्या हमारे पास है? हम दे सकते हैं? देने का काम हमें करना है। उसकी तैयारी करने के संकल्प का भी आज दिवस है। इसके लिए आवश्यक पुरुषार्थ हमने किया है। प्रभु श्रीराम के चरित्र से देखेंगे तो सारा पुरुषार्थ, पराक्रम, वीरोवृत्ति हमारी रग-रग में है। उसे हमने खोया नहीं है। वह हमारे पास है। हम शुरू करें तो हो जाएगा।

सब राम के हैं और सबमें राम हैं, मंदिर बनेगा-भव्य मंदिर बनेगा

इस प्रकार का विश्वास, इस प्रकार का स्फुरण, प्रेरणा आज हमें इस दिन से मिलती है। सारे भारतवासियों को मिलती है। कोई भी अपवाद नहीं, क्योंकि सब राम के हैं और सबमें राम हैं और इसलिए अब यहां मंदिर बनेगा-भव्य मंदिर बनेगा। सारी प्रक्रिया शुरू हो गई है। दायित्व बांटे गए हैं। जिनका जो काम है वह वे करेंगे। उस समय हम सब लोगों को क्या काम रहेगा?

हम सब लोगों को अपने मन की अयोध्या को सजाना-संवारना है

हम सब लोगों को अपने मन की अयोध्या को सजाना-संवारना है। इस भव्य कार्य के लिए प्रभु श्रीराम जिस धर्म के विग्रह माने जाते हैं, वह जोड़ने वाला, धारण करने वाला, ऊपर उठाने वाला, सबकी उन्नति करने वाला और सबको अपना मानने वाला धर्म है। उसकी ध्वजा को अपने कंधों पर लेकर संपूर्ण विश्व को सुख शांति देने वाला भारत हम खड़ा कर सकें, इसके लिए हमें अपने मन की अयोध्या बनाना है। यहां पर जैसे-जैसे मंदिर बनेगा वह अयोध्या भी बनती चली जानी चाहिए और इस मंदिर के पूर्ण होने के पहले हमारा मन-मंदिर बनकर तैयार रहना चाहिए। इसकी आवश्यकता है और वह मन-मंदिर कैसा रहेगा, बताया है-

काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।

जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।।

जाति पांति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।

सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयं रहहु रघुराई।। 

हमारा हृदय भी राम का बसेरा होना चाहिए-सभी दोषों से, विकारों से, द्वेषों से, शत्रुता से मुक्त 

हमारा हृदय भी राम का बसेरा होना चाहिए-सभी दोषों से, विकारों से, द्वेषों से, शत्रुता से मुक्त। दुनिया की माया कैसी भी हो, उसमें सब प्रकार के व्यवहार करने के लिए समर्थ और हृदय से सब प्रकार के भेदों को तिलांजलि देकर केवल अपने देशवासी ही क्या, संपूर्ण जगत को अपनाने की क्षमता रखने वाला इस देश का व्यक्ति और इस देश का समाज गढ़ने का काम है। इस गढ़ने के काम का एक सगुण साकार प्रतीक जो सदैव प्रेरणा देता रहेगा, वह यहां खड़ा होने वाला है। भव्य राम मंदिर बनाने का काम भारतवर्ष के लाखों मंदिरों में से एक और मंदिर बनाने का काम नहीं है। उन सारे मंदिरों में मूर्तियों का जो आशय है उसका पुन: प्रकटीकरण और उसका पुनर्स्थापन करने का शुभारंभ आज यहां बहुत ही समर्थ हाथों से हुआ है। इस मंगल अवसर पर मैं सबका अभिनंदन करता हूं।

( अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि मंदिर के भूमिपूजन के अवसर पर दिए गए संबोधन का संपादित अंश )