[ जगमोहन सिंह राजपूत ]:अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत यात्रा पर हैं। इस दौरान सोमवार को उन्होंने अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम का भी दौरा किया। इससे पूर्व भी कई राष्ट्राध्यक्ष साबरमती आश्रम जाते रहे हैं। इससे दुनिया में महात्मा गांधी की महत्ता साबित होती है। देखा जाए तो किसी भी देश की पहचान में उसकी संस्कृति, साहित्य, इतिहास एवं ज्ञानार्जन परंपरा सबसे महत्वपूर्ण अवयव बनते हैं। समय-समय पर ऐसे मनीषी भी आते रहते हैं जो तत्कालीन परिस्थितियों में देश और समाज का मार्ग-निर्देशन कर उसे अनेक समस्याओं से मुक्ति दिलाने में अप्रतिम योगदान करते हैं। वे ऐसी अमिट छाप छोड़ जाते हैं जो देश की पहचान को और समृद्ध और सुसंस्कृत करती है।

प्रताड़ित भारतीयों को बीसवीं सदी में अंतरशक्ति से परिचित कराने वाले महात्मा गांधी थे

लगभग एक हजार वर्षों तक प्रताड़ित, अपमानित और पराधीन रहे भारतीय समाज को बीसवीं सदी में उसकी अंतरशक्ति से परिचित कराने वाले मनीषियों में महात्मा गांधी अग्रणी रहे। उन्होंने प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता की समृद्ध ज्ञान परंपरा से जनित विश्व-बंधुत्व, परहित-सेवा, सभी के सुख और स्वास्थ्य की कामना जैसे शाश्वत मानवीय मूल्यों को पूर्णरूपेण आत्मसात किया। समय के साथ वे विश्व पटल पर निडर कर्मयोगी के अप्रतिम उदाहरण बनकर उभरे।

महात्मा गांधी से प्रेरणा पाकर नेल्सन मंडेला अपने देश को आजाद कराने में सफल हुए

उनसे प्रेरणा पाकर मार्टिन लूथर किंग जूनियर रंगभेद मिटाने में तथा नेल्सन मंडेला अपने देश को आजाद कराने में सफल हुए। आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिकों ने भी उन्हें सराहा, अनुकरणीय विश्व-विभूति माना। ऐसे में भारत की नई पीढ़ी का गांधी जी से आवश्यक परिचय कैसे होता रहे, इस पर विचार जरूरी है।

गांधी जी जानते थे कि अपने को समझने के लिए अपनों को समझना आवश्यक है

गांधी जी केवल स्वतंत्रता सेनानी मात्र नहीं थे। उनका लक्ष्य तो ‘अपने को हासिल’ करना था। अपने को जानना था। सत्य तक पहुंचने के लिए प्रयोग करना था। नवाचार करना था। मोक्ष प्राप्त करना था। वे जीवनपर्यंत इसी में लगे रहे। गांधी जी जानते थे कि अपने को समझने के लिए अपनों को समझना आवश्यक है, देश और समाज को समझना आवश्यक है। इसी कड़ी में दक्षिण अफ्रीका में जब उन्होंने जॉन रस्किन की पुस्तक ‘अनटू दिस लास्ट’ पढ़ी तो उनका अंतर्मन जाग उठा। फिर फीनिक्स और टॉलस्टॉय आश्रम में बिताए गए वर्ष गांधी के अपने ‘बड़े होने’ की प्रक्रिया के महत्वपूर्ण पड़ाव रहे।

गांधी जी ने 1921 में अपनी पोशाक बदल दी

पीटर मैरिट्सबर्ग की घटना को वे अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण सृजनात्मक अवसर मानते थे। इसी प्रयास में गांधी जी ने 1921 में अपनी पोशाक बदल दी। यह उनकी उसी खोज का परिणाम था जिसने अंतर्मन से उन्हें सुझाया कि पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़ा व्यक्ति तुम्हारे जैसा ही है। वह तुम्हारी ओर अपेक्षा भरी निगाहों से देख रहा है। वह सदियों से वंचित, प्रताड़ित, अपमानित रहा है। क्या तुम्हारे अंदर उसे अपनाने का साहस है? अपने को खोजने में अपने अंदर से ही प्रश्न उभरते हैं, वहीं से उत्तर भी मिलते हैं। इस सतत आत्मावलोकन के चलते ही गांधी जी ने अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की मानवीय पहचान उजागर कर उसे हम सभी के सामने खड़ा कर दिया।

जो भी करो, अंतिम छोर वाले व्यक्ति पर उसके प्रभाव के बारे में अवश्य विचार करो

देश के युवाओं और कर्णधारों के लिए इससे बड़ा संदेश और क्या हो सकता है कि जो भी करो, अंतिम छोर वाले व्यक्ति पर उसके प्रभाव के बारे में अवश्य विचार करो। उन्होंने अंग्रेजों से भी यही कहा, जो भारतवासियों का है, उन्हें वापस करो, लेकिन सत्ता के अहंकार में डूबे अंग्रेजों को समझने में देर लगी।

महाशक्तिशाली ब्रिटिश सामाज्य के समक्ष निहत्थे गांधी फिर भी विजय हुए

महाशक्तिशाली ब्रिटिश सामाज्य के समक्ष निहत्थे गांधी और उनसे प्रेरणा-प्राप्त उनके सहयोगी अपनी आंतरिक नैतिक शक्ति को अपराजेय मानकर डटे रहे। अंतत: विजयी हुए। इस विजय में उन बलिदानियों का भी अप्रतिम सहयोग-परोक्ष रूप से ही सही, उन्हें मिला जिन्होंने देश के लिए क्रांति का रास्ता अपनाया था। फिर विश्व ने देखा कि जिनके साम्राज्य में सूरज कभी अस्त नहीं होता था, वे भारत की राष्ट्र-शक्ति के सामने घुटने टेक कर वापस चले गए, क्योंकि सारा भारत एकजुट था। वही एकजुटता पुन: चाहिए।

यदि मानवता को बचने का कोई रास्ता है तो वह केवल गांधी का रास्ता ही है

आज परमाणु हथियारों की विनाशकारी उपस्थिति में यदि मानवता को बचने का कोई रास्ता है तो वह केवल गांधी का रास्ता ही है। यही भारत का रास्ता है, भारत की प्राचीन संस्कृति में निहित सिद्धांतों का रास्ता है। और कोई विकल्प है ही नहीं।

देश के विभाजन की भेंट चढ़ा था गांधी का जीवन

भारत को 15 अगस्त, 1947 को केवल स्वतंत्रता ही नहीं मिली, देश का विभाजन भी मिला। करोड़ों लोगों ने क्या-क्या नहीं सहा। गांधी जी के अनुयायियों को सत्ता मिली। भारत को स्वतंत्रता दिलाने का श्रेय लेने वालों को विभाजन का उत्तरदायित्व भी लेना चाहिए था। देश में सामाजिक सद्भाव तथा पंथिक एकता बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए था, ताकि फिर से वैसी परिस्थितियां उत्पन्न न हों। इस विभाजन की भेंट चढ़ा था गांधी का जीवन।

समय के साथ गांधी जी के मूल्य और सिद्धांत पीछे छूटते गए

अपने अंतिम समय में जिस पीड़ा और हताशा के दौर से वे गुजरे, उसका आभास उनके सहयोगियों को हो गया था, मगर किसी ने चिंता नहीं की। समय के साथ गांधी जी के मूल्य और सिद्धांत पीछे छूटते गए। संग्रह की संस्कृति ऐसी पनपी कि पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की प्रतीक्षा-साधना लंबी होती गई। वह आज भी जारी है। कुछ नियत अवसरों पर गांधी जी को याद किया जाना केवल औपचारिकता बनकर ही न रह जाए इसके लिए उनका 26 जून, 1926 का वह कथन याद करना आवश्यक है कि ‘सही सुधार, सच्ची सभ्यता का लक्षण परिग्रह बढ़ाना नहीं है, बल्कि सोच-समझकर और अपनी इच्छा से उसे कम करना है।

गांधी जी के विचारों को अपनाकर हम कठिन परिस्थितियों में भी अपना रास्ता ढूंढ सकते हैं

ज्यों-ज्यों हम परिग्रह घटाते जाते हैं, त्यों-त्यों सच्चा सुख और सच्चा संतोष बढ़ता जाता है। सेवा की शक्ति बढ़ती जाती है। अभ्यास, आदत डालने से आदमी अपनी जरूरतें घटा सकता है और ज्यों-ज्यों उन्हें घटाता जाता है त्यों-त्यों वह सुखी, शांत और सब तरह से तंदुरुस्त होता जाता है।’ देश के युवा गांधी जी के इन विचारों से यदि परिचित हो सकें तो उन्हें जीवन में कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपना रास्ता ढूंढने में देरी नहीं लगेगी।

( लेखक शिक्षा एवं सामाजिक समन्वय के क्षेत्र में कार्यरत हैं )