[ डॉ. अनिल प्रकाश जोशी ]: पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सियोल यात्रा के दौरान एक महत्वपूर्ण बात कही कि हमारी जीवनशैली जलवायु परिवर्तन के बड़े कारणों में से एक है। यह बात शत-प्रतिशत सही है कि हमने जिस तरह की जीवनशैली अपना रखी है वह एक दिन हम सबको डुबो देगी या फिर हमारा दम घोंट देगी। अगर हम मात्र जीवन की कुछ बुनियादी सुविधाओं तक ही सीमित होते तो भी चलता, पर अत्यधिक पाने की लालसा हमारे लिए एक बड़े संकट को जन्म दे रही है।

दुर्भाग्य यह है कि हम इस बदलते हालात की चर्चा तो कर रहे हैं, पर इन सुविधाओं को त्यागने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। इसके दुष्परिणाम हमारे सामने हैैं। हर मौसम के बदले से तेवर दिखाई दे रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इसके बारे में हमें पहले जानकारी नहीं मिली थी? जॉन टेंडल ने वर्ष 1850 में यह बता दिया था कि ग्रीन हाउस गैसें भीषण गर्मी या ठंडी का कारण बन सकती हैं। इसी के आसपास वैज्ञानिकों ने आइसोटोप अध्ययन के आधार पर यह बता दिया था कि बढ़ते कार्बन डाईऑक्साइड का मतलब ज्यादा जीवाश्म ईंधनों का उपयोग है, लेकिन तब से हम इसकी अनदेखी कर रहे हैं।

अब तमाम अध्ययनों से साफ हो चुका है कि यह जलवायु परिवर्तन मानव जनित है और इसमें मुख्य भूमिका जीवाश्म ईंधनों का बेतहाशा इस्तेमाल, वनों की अंधाधुंध कटाई, अनियोजित शहरीकरण की ही है। जाहिर है जब जलवायु परिवर्तन मानव जनित है तो इसका निदान भी इंसानों के ही हाथों में है। आज दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों का सबसे बड़ा कारण यातायात है। वर्तमान में विश्व भर में 2 अरब 35 करोड़ गाड़ियां सड़कों पर हैं और 2035 आते-आते यह संख्या 3 अरब होने वाली है।

अब अमेरिका का ही उदाहरण ले लीजिए, जहां यातायात से ही 28 फीसद ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, जबकि उद्योगों से 22 फीसद, अन्य व्यापार एवं घरेलू उपयोगों से 11 फीसद, खेती से 9 फीसद और बिजली उत्पादों से 28 फीसद ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। ऐसे में यह समझना मुश्किल भी नहीं है कि क्यों यातायात जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण है। वास्तव में वहां 76 फीसद लोग अकेले कार में चलते हैं और सार्वजनिक परिवहन मात्र 9 फीसद लोग ही उपयोग में लाते हैं। स्पष्ट है कि अमेरिका की एक बड़ी आबादी यातायात में बड़े पैमाने पर ऊर्जा का इस्तेमाल कर रही है। यही हालात कमोबेश भारत के भी हैं जहां वर्ष 2001 से वाहनों की संख्या 5 करोड़ 50 लाख से बढ़कर वर्ष 2015 में 21 करोड़ 24 हजार तक पहुंच गई।

हालात ये हैं कि अब सड़कें नहीं दिखतीं, बल्कि गाड़ियां ही दिखती हैं। लिहाजा रोजाना सड़कों पर लगने वाला जाम भी कार्बन उत्सर्जन बढ़ाता है। देखा जाए तो यह हमारी जीवनशैली का हिस्सा बन गया है जहां हम स्वतंत्रता महसूस करते हैं। इससे सामूहिकता की भावना के साथ-साथ निर्भरता भी खत्म हुई है। जाहिर है हमने प्रकृति के उस व्यवहार से कुछ नहीं सीखा जो यह बताता है कि ‘सब कुछ सबके लिए है।’

इसी तरह 19वीं शताब्दी के मध्य में आई औद्योगिक क्रांति भी एक लंबे समय से प्रदूषण फैलाने का कारण है। इसके चलते दुनिया के प्रदूषण की चपेट में आने के बाद इसमें भागीदार रहे कई देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए कुछ कदम उठाए। उदाहरण के लिए अमेरिका और इंग्लैैंड ने वर्ष 2000 से 2016 के बीच में अपने कार्बन उत्सर्जन में क्रमश: 15 तथा 29 फीसद की कटौती की। सच तो यह है कि यह कटौती उद्योगों पर अंकुश लगा कर नहीं, बल्कि कार्बन उत्सर्जन को उच्च तकनीकी से कम करने के फलस्वरूप हुई है। इसी तरह आज एरोसॉल, जो कि सूक्ष्म ठोस कण या तरल बूंदों के हवा में मिश्रण होते हैं, एक नए तरह के प्रदूषण हैं। वर्ष 2017 में अकेले अमेरिका ने 2842 मिलियन यूनिट एरोसॉल पैदा किया था। पूरा यूरोप 5666 मिलियन एवं चीन 2123 मिलियन यूनिट एरोसॉल को उत्पादित करते रहे हैैं।

इसी के साथ दुनिया में तेजी से हो रही जंगलों की कटाई ने भी इस जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया को और गति दी है, क्योंकि ये वन ही हैैं जो कार्बन उत्सर्जन के खतरे को कम कर सकते हैैं। आंकडे़ बताते हैं कि हमने अपने उपयोगों के लिए भयानक रूप से जंगलों का हनन किया है। वर्ष 2017 में अकेले 390 लाख एकड़ वनों की कटाई हुई। मतलब एक मिनट में एक पेड़ काटा गया। यह कटाई हमारी उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हो रही है जिसके विकल्प खोजे जा सकते हैैं। मसलन टिंबर के लिए 37 फीसद वनों का हनन होता है, वहीं खेती के लिए 28 फीसद, सड़क निर्माण एवं अन्य विकास कार्यों में करीब 140 फीसद। इसके अतिरिक्त 21 फीसद वन दावानल की भेंट चढ़ जाते हैं।

यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि मीट और मीट उत्पाद से जुड़ी हमारी खाद्य आदतें भी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का बड़ा कारण हैं। दुर्भाग्य यह भी है कि इनके लिए वर्ष 2030 में आज के मुकाबले 67 फीसद ज्यादा एंटीबायोटिक का उपयोग होगा। मतलब साफ है आने वाले दिनों में ये इंसानों में संक्रमण का एक बड़ा कारण बनेंगे। एक आकलन है कि वर्ष 2050 तक सालाना 9.5 मिलियन लोग इसका शिकार बनेंगे। इसके अलावा स्मार्टफोन, निर्माण कार्य एवं कंप्यूटर डाटा जो आज मात्र एक फीसद ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का कारण हैैं, वर्ष 2040 तक ये 14 फीसद ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करने लगेंगे। यह इसलिए है, क्योंकि हम एक भोगवादी सभ्यता का बड़ा हिस्सा बन गए हैैं।

जाहिर है हमें यहां प्रकृति और विज्ञान के नियमों को समझने का समय है कि जैसा करेंगे वैसा भरेंगे। आज का जलवायु परिवर्तन हमारी ही देन है। अगर इनसे मुक्त होना है तो हमें ही रास्ते खोजने होंगे। कोई चमत्कार हमें इससे मुक्त नहीं कर सकता। अब जो चर्चा का सबसे बड़ा विषय होना चाहिए वह यह कि हम अपनी जीवनशैली को ढेर सारी सुविधाओं के दृष्टिकोण से न देखें। संसाधनों का आवश्यकता एवं सुविधा भर उपयोग एक तरफ जहां हमें लंबा जीवन दे सकता है वहीं प्रकृति और पृथ्वी को भी विचलित नहीं करेगा। यह पूरी तरह सच है कि हमारी तेजी से बदलती हुई जीवनशैली ने हमें ऐसे मोड़ पर पहुंचा दिया है जहां से आगे जीवन दूभर हो जाएगा। इसलिए समझदारी इसी में है कि हम अपने जीने के तौर-तरीकों में सुविधाओं से ज्यादा साधनों के उन तरीकों को अपनाएं जो सततता प्रदान कर सकते हैैं।

( लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैैं )