पुष्परंजन। अच्छा हुआ जर्मनी के राष्ट्रपति फ्रैंक वाल्टर स्टीनमीयर ऐसे समय भारत आए जब वहां सरकार गठन के बाद संसद चलने लगी थी। चुनाव होने के छह माह बाद जर्मनी में मिली-जुली सरकार का गठन हुआ है। पांच दिनों के वास्ते भारत यात्रा पर आए राष्ट्रपति फ्रैंक वाल्टर स्टीनमीयर पिछले दिनों चेन्नई में थे। वहां वह जर्मन कार उद्योग की संभावनाओं को तलाशने गए थे। जर्मन राष्ट्रपति का आखिरी पड़ाव चेन्नई से 56 किलोमीटर दूर महाबलीपुरम रहा, जहां उन्हें सातवीं सदी में पल्लव शासन के पुरावशेषों के अवलोकन के साथ ‘शोर टेंपल’ देखना था।

सौर ऊर्जा में जर्मनी की मास्टरी
यूरोपीय देशों से जो शिखर यात्राएं होती हैं, उनका मकसद सांस्कृतिक से अधिक व्यापार होता है। स्टीनमीयर भारत में सौर व पवन ऊर्जा, जल व कचरा प्रबंधन, नदियों की सफाई, भारतीय रेल के आधुनिकीकरण जैसे क्षेत्र में व्यापार की संभावनाओं को आगे बढ़ाने के वास्ते आए थे। अभी कुछ दिन पहले फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों इंटरनेशनल सोलर अलायंस (आइएसए) पर समझौता कर वापस जा चुके हैं। ‘आइएसए’ पर दुनिया के 120 देशों ने रजामंदी की है। अब जर्मनी को महसूस हो रहा है कि सौर ऊर्जा जैसी तकनीक पर उसकी मास्टरी होते हुए फ्रांस उसके व्यापार के एक बड़े निवाले पर हाथ मार रहा है। यह कुछ ऐसी प्रतिस्पर्धा होती है, जो बाहर से नहीं दिखती, पर कूटनीति के जरिये शिखर नेता एक-दूसरे की काट में लगे रहते हैं।

जर्मनी के कारण भारत में 4 लाख लोगों को मिला रोजगार
इस समय भारत में कोई 1800 जर्मन कंपनियां प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कारोबार में लगी हैं। उनकी कारोबारी सक्रियता के कारण हमारे यहां लगभग चार लाख लोगों को रोजगार के अवसर मिले हुए हैं। यह सब कुछ स्वत:स्फूर्त नहीं हुआ है और इसका क्रेडिट किसी एक सरकार को देना भी मुनासिब नहीं होगा। दोनों देशों के बीच व्यापार और निवेश का सफर लंबा रहा है। जर्मनी 28 सदस्यीय यूरोपीय संघ का छठा सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है। 2016-17 में भारत और जर्मनी के बीच उभयपक्षीय व्यापार 15.4 अरब यूरो का रहा है। सवाल यह है कि जर्मन राष्ट्रपति फ्रैंक वाल्टर स्टीनमीयर जो कुछ समझौता कर अपने देश लौटे हैं, क्या उस पर सरकार में सहयोगी पार्टियां सहमत होंगी?

हालांकि ऐसी कोई विवादास्पद सहमति हुई नहीं, जिसे लेकर जर्मन सरकार में कोई आपत्ति करे। फिर भी यह ध्यान में रखना जरूरी है कि वहां सरकार किन पार्टियों से मिलकर बनी है। वास्तव में सितंबर 2017 के चुनाव परिणाम में एंजेला मर्केल की पार्टी क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) और गठबंधन साथी क्रिश्चियन सोशल यूनियन (सीएसयू) को 32.9 प्रतिशत वोट मिले थे। जर्मनी की प्रमुख विपक्षी सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसडीपी) को 20.5 फीसद वोट मिले थे।

जर्मनी में एंजेला मर्केल अब शक्तिशाली नहीं रहीं
सितंबर 2015 में जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने यह निर्णय लिया था कि सीरिया युद्ध से प्रभावित आठ लाख शरणार्थियों को जर्मनी में बसाया जाएगा। दो साल की इस अवधि में जर्मनी में छेड़छाड़ की बढ़ती घटनाओं, अपराध, अव्यवस्था का ठीकरा मर्केल पर ही फोड़ा गया था। अंतत: हुआ यह कि मर्केल को सरकार बनाने के वास्ते धुर विरोघी एसपीडी के साथ समझौता करना पड़ा। वित्त और विदेश मंत्रालय एसपीडी को देने का मतलब है, मर्केल सरकार की सर्वेसर्वा नहीं रहीं। विदेश मंत्री एपीडी के प्रमुख मार्टिन शुल्त्स बने हैं और वित्त मंत्रालय का प्रभार उन्हीं के खास ओलाफ शुल्त्स को मिला है।

ओलाफ शुल्त्स बजटीय कठोरता के पैरोकारों में से नहीं हैं। पूर्व वित्त मंत्री वोल्फगांग शोएब्ले अपने सख्त रवैये की वजह से काफी अलोकप्रिय हो चुके थे। चांसलर मर्केल को आम चुनाव में जिस जद्दोजहद का सामना करना पड़ा, उसकी एक बड़ी वजह वोल्फगांग शोएब्ल की कठोर वित्त नीति रही थी। नए वित्त मंत्री से मर्केल की एक बात पर सहमति यह भी बनी है कि उदार रहिए, मगर किसी नए कर्ज का बोझ नहीं उठाना है। 2015 की तरह शरणार्थियों का सैलाब जर्मनी में नहीं आने देना है। नए शरणार्थियों की संख्या एक लाख 80 हजार से अधिकतम दो लाख 20 हजार के बीच रखी जाएगी, इस पर हामी हुई है।

शरणार्थियों के मुद्दे पर बंटा है जर्मनी
14 मार्च, 2018, बुधवार को एंजेला मर्केल ने चांसलर का पदभार नई सरकार में ग्रहण किया। अपने पहले अभिभाषण में मर्केल ने स्वीकार किया कि शरणार्थियों को बसाने के सवाल पर देश बंटा हुआ है। पूर्व में कई दफा चांसलर मर्केल एक वाक्य का इस्तेमाल करती रही हैं-‘वियर शाफेन दस!’ अर्थात ‘हम कर दिखाएंगे।’ उनके इस वाक्य में एकाधिकार और अधिनायकवाद की बू इतनी आई कि पार्टी के नेताओं को उत्तर देते-देते परेशान रहना पड़ा था। मर्केल ने इस बार के संसदीय अभिभाषण में ‘वियर शाफेन दस’ का इस्तेमाल नहीं किया। चांसलर मर्केल ने माना कि जर्मनी में समानांतर समाज का जन्म हुआ है और शरणार्थी इलाकों में अपराध पनपने लगे हैं।

विश्व पटल पर भारत का वजन बढ़ा है
चांसलर मर्केल के भाषण में पिछली सरकार की गलतियों को स्वीकार करने वाली बात से भारत को भी सबक लेना चाहिए। यह दिलचस्प है कि सरकार गठन के सप्ताह भर बाद जर्मन राष्ट्रपति भारत आए। इससे पता चलता है कि जर्मनी कूटनीतिक और व्यापारिक दृष्टि से भारत को कितनी प्राथमिकता दे रहा है। जर्मनी के राष्ट्रपति फ्रैंक वाल्टर स्टीनमीयर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ट्रंप द्वारा विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से नए किस्म के ट्रेड वार छेड़ दिए जाने पर भी चिंता साझा की। ट्रंप ने पेरिस में पर्यावरण सुरक्षा संकल्पों के विरुद्ध जाने का जो फैसला लिया था, उसके विरुद्ध यदि नई दिल्ली आए नेता चिंता साझा करते हैं तो यह मानना चाहिए कि विश्व पटल पर भारत का वजन बढ़ा है। भारत, अफ्रीका की तरह विकसित देशों का बाजार न बने, इतनी सावधानी हमारी लीडरशिप को बरतनी चाहिए। हम उनकी प्रौद्योगिकी को ‘मेक इन इंडिया’ में परिवर्तित कर विकासशील देशों में व्यापार के वास्ते कैसे आगे बढ़ा सकते हैं, लक्ष्य यह होना चाहिए!

संपादक, ईयू एशिया न्यूज, नई दिल्ली