धर्म में आस्था रखने वाले अधिकांश लोग मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा-चर्च हो या घर पूजा-पाठ जरूर करते हैं। लोग पूजा-पाठ जब करते हैं तो वे अपने ईष्ट से सांसारिक मनोकामनाओं की पूर्ति की प्रार्थना करते हैं। बहुत लोग अपने ईष्टदेव से इन आवश्यकताओं के लिए अनुबंध भी करते हैं कि उनकी कामनाएं जैसे ही पूरी होंगी तो वे कुछ भेंट चढ़ाएंगे या दान करेंगे। संयोगवश कार्य पूर्ण होने पर विशेष धार्मिक अनुष्ठान आदि करते दिखाई भी पड़ते हैं। तमाम धर्मगुरु इस तरह का आश्वासन भी देते हैं कि जप-तप से उनकी मनोकामनाएं त्वरित गति से पूरी हो जाएंगी। जबकि यह कोई जरूरी नहीं कि ईष्टदेव की पूजा-पाठ या चढ़ावे से सांसारिक उपलब्धियां मिल जाएंगी। ‘पूजा’ का अर्थ ही है पवित्रता का जन्म। पूजा यदि मन में पवित्र भावों के जन्म के लिए हो तो उचित है जो आगे चलकर जीवन को पूजनीय बना देती है। हर धर्म में जो ईष्टदेव हैं, उनका जीवन आदर्शमय था, इन्हीं कारणों से उनकी पूजा होती है। इसलिए पूजा-पाठ मन-बुद्धि के बीच सेतु बनाने के लिए करना चाहिए। मन सकारात्मक होकर जब अच्छे कार्यों में लग जाए तब स्वत: जीवन में अनुकूलता मिलने लगती है। इसी सकारात्मक-सोच की तलाश का रास्ता है पूजा-पाठ।

सर्वप्रथम पूजा-पाठ से दिनचर्या नियमित होती है, तमाम तरह के निषेधों को अपनाने की प्रेरणा मिलती है, एकाग्रता बढ़ती है, समूह में जीने की आदतें उत्पन्न होती हैं। ये सारे रास्ते इतने महत्वपूर्ण हैं कि इनसे जो परिचित हो गया, वह जो भी काम करेगा, सफल होगा। प्राय: लोग किसी व्यक्ति का उदाहरण देते हैं कि वह मिट्टी भी छूता है तो सोना (स्वर्ण) बन जाता है। इसी के साथ पूजा-पाठ में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होते हैं। सभी धर्मावलंबी पूजा-कार्य में पुष्प-चंदन आदि विविध पदार्थ अपने ईष्टदेव को चढ़ाते हैं। ये सारे पदार्थ ईष्ट को मिले कि नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं, लेकिन इन पदार्थों के जो प्राकृतिक एवं औषधीय गुण हैं, वह उपासक को जरूर मिलते हैं। इसलिए सबसे पहले मन को मजबूत करने के लिए धार्मिक ग्रंथों में जो निषेध बताए गए हैं, उसकी आदत डालनी चाहिए। कोई भी व्यक्ति धार्मिक कार्यों से बाह्य जगत की उपलब्धि का रास्ता बताए तो उससे तत्काल दूरी बनाना ही लाभप्रद होता है।

[ सलिल पांडेय ]