रिजवान अंसारी। हालिया वर्षो में बाढ़ ने देश के हर कोने में रहने वाले लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा है, इसकी बड़ी वजह है कि देश का लगभग हर राज्य बाढ़ से प्रभावित होता रहा है। हालांकि पहले अमूमन भारत के पूर्वी और पूवरेत्तर राज्य ही बाढ़ से दो-चार होते थे, लेकिन अब हालात बदल गए हैं। वर्तमान में बिहार और असम बाढ़ के रौद्र रूप का सामना कर रहे हैं।

अमूमन इन दोनों राज्यों में इन्हीं महीनों में बाढ़ आने की वजह है कि यह समय मानसून के कारण भारी बारिश का है। लेकिन जलवायु परिवर्तन और शहरीकरण के गठजोड़ ने इस आपदा को और बड़ी चुनौती के रूप में पेश किया है और बाढ़ को विस्तार भी दिया है। मुंबई, चेन्नई, पटना जैसे शहरों में बाढ़ जैसी स्थिति का होना इसी का एक पहलू है। अगर शहरी बाढ़ को छोड़ भी दें तो, पूर्वी और पूवरेत्तर राज्यों में साल-दर-साल बाढ़ की तबाही कई सवाल खड़े करती है। जब समस्या इतनी पुरानी है तो इसके निराकरण के लिए क्या कदम उठाए गए? और अगर कदम उठाए गए, तो इससे निपटने में हमारी सरकारें अब तक नाकाम क्यों रही हैं? क्या हमारी सरकारें इसे लेकर संजीदा हैं भी या नहीं?

वर्ष 1976 में गठित और 1980 में रिपोर्ट सौंपने वाले राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की मानें तो बाढ़ से होने वाले नुकसान में लगभग 60 फीसद क्षति नदियों के बाढ़ से होती है, जबकि 40 फीसद क्षति भारी बारिश और चक्रवात के बाद आने वाली बाढ़ से। आयोग का अनुमान है कि बाढ़ से होने वाले कुल नुकसान का 27 फीसद बिहार में, 33 फीसद उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड में और 15 फीसद पंजाब में होता है।

उधर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट की मानें तो आपदाओं के कारण भारत को प्रत्येक वर्ष औसतन 9.8 अरब डॉलर का नुकसान ङोलना पड़ता है जिसमें से सात अरब डॉलर से अधिक के नुकसान का कारण अकेला बाढ़ है। इतना ही नहीं, 2018 में संयुक्त राष्ट्र ने इकोनॉमिक लॉसेज, पॉवर्टी एंड डिजास्टर : 1998-2017 नामक एक रिपोर्ट में चिंता जाहिर करते हुए कहा कि पिछले दो दशकों में वैश्विक स्तर पर प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित देशों को 2,908 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है। इंटरनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर की एक रिपोर्ट की मानें तो देश में हर साल औसतन 20 लाख लोग बाढ़ की वजह से बेघर हो जाते हैं और चक्रवाती तूफानों के कारण औसतन ढाई लाख लोगों को घर से दूर करना पड़ता है।

आर्थिक नुकसान के कारण हम न केवल एक देश के तौर पर, बल्कि व्यक्तिगत रूप से भी विकास के मामले में कई साल पीछे हो जाते हैं। दूसरी ओर लोगों के मरने से देश की उत्पादकता भी लगातार गिर रही है। मानव भी एक संसाधन है जिसकी हानि भी आíथक हानि है। जाहिर है बाढ़ जैसी आपदा पर लगाम लगाना अब सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। लेकिन इससे बचाव के लिए किसी खाका का तैयार न होना, सरकारों की काबिलियत और इच्छाशक्ति पर बड़ा सवाल है।

राज्य स्तर पर बाढ़ नियंत्रण एवं शमन के लिए प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करने और स्थानीय स्तर पर लोगों को बाढ़ के समय किए जाने वाले उपायों के बारे में प्रशिक्षित करने की दरकार है। ऐसे उपाय जो बाढ़ को रोकने में सक्षम हैं, जैसे जल निकास तंत्र में सुधार, वाटर-शेड प्रबंधन, मृदा संरक्षण आदि पर जोर देना होगा। लेकिन इन सबसे अलग बाढ़ को लेकर सरकारों में राजनीतिक इच्छाशक्ति का जागृत होना बेहद जरूरी है। इसके लिए जरूरी है कि बाढ़ को राजनीतिक और चुनावी मुद्दा बनाया जाए। राजनीतिक दलों पर इस बात का दबाव हो कि वे चुनावी घोषणापत्रों में बाढ़ के लिए खाका तैयार करने का वादा करें। जब तक नागरिक समाज सियासी दलों पर इस बात के लिए दबाव नहीं बनाते, तब तक बेहतरी की उम्मीद बेमानी होगी।

[स्वतंत्र टिप्पणीकार]