[ डॉ. मनमोहन वैद्य ]: कई बार विशिष्ट समय और परिस्थिति में कोई भूमिका लेने के कारण मूल विचार और स्वभाव का विस्मरण हो जाता है। भारत की आत्मा, पहचान, उसकी विशेषता अर्थात हिंदुत्व के मामले में भी ऐसा ही है। भारतीयता अध्यात्म आधारित, एकात्म और समग्र जीवन दृष्टि है, जो सर्व समावेशक है। हिंदू प्रार्थनाएं और दृष्टि केवल मानव ही नहीं, अपितु समस्त सृष्टि मात्र के कल्याण, समन्वय और शांति की कामना करती हैैं। इसीलिए हिंदू ने अपने को हिंदू नाम भी नहीं दिया। व्यापार और अन्य कारणों से बाहर जाने वाले भारतीयों को अन्य लोगों ने अलग पहचान देने के लिए सिंधु नदी के पार रहने वालों को हिंदू नाम दिया। भारत में आने वाले विदेशी हमलावरों ने भी हमें हिंदू कहा। इसलिए इस भूखंड पर रहने वालों का नाम हिंदू हुआ। इन सबका समान आधार था, एकम् सत् विप्रा: बहुधा वदंति, विविधता में एकता और अध्यात्म आधारित चिंतन।

कुछ समय पहले ‘भविष्य का भारत’ विषय पर आयोजित व्याख्यानमाला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने यह स्पष्ट किया था कि संघ जिस बंधुभाव को लेकर काम करता है, उस बंधुभाव का एक ही आधार है, विविधता में एकता परंपरा से चलते आए इस चिंतन को ही दुनिया हिंदुत्व कहती है। इसीलिए हम कहते हैं कि हमारा हिंदू राष्ट्र है। इसका मतलब इसमें मुसलमान नहीं चाहिए, ऐसा बिल्कुल नहीं होता। जिस दिन यह कहा जाएगा कि मुसलमान नहीं चाहिए उस दिन वह हिंदुत्व नहीं रहेगा। हिंदुत्व तो विश्व कुटुंब की बात करता है। उनके इस कथन पर अनेक भृकुटियां तन गई थीं और संघ के कुछ समर्थकों के मन में भी कतिपय प्रश्न पैदा हुए थे।

स्मरण रहे कि 1857 के स्वतंत्रता युद्ध से लेकर 1905 के बंगभंग विरोधी आंदोलन में हिंदू-मुसलमान सभी अंग्रेजों से इकट्ठे लड़े। बाद में हिंदू-मुसलमानों के बीच द्वेष के बीज बोने की राजनीति शुरू हुई जिसका परिणाम देश विभाजन में हुआ। इसका आधार हिंदू-मुस्लिम विभाजन था। तब विभाजन का विरोध करते हुए हिंदू की बात में मुस्लिम विरोध आना स्वाभाविक था। यदि उस समय के अनेक हिंदू नेताओं के भाषण में मुस्लिम विरोध झलकता था तो वह तात्कालिक परिस्थितिजन्य प्रतिक्रिया थी न कि समाज की सार्वकालिक धारणा। हिंदू विचार में एक्सक्लूशन के लिए कोई स्थान नहीं और इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने शिकागो व्याख्यान में कहा था,‘मुझे यह निवेदन करते हुए गर्व होता है कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूं जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में अंग्रेजी शब्द एक्सक्लूशन का कोई पर्यायवाची शब्द नहीं है।’

सेमेटिक मूल के विचार मानव समाज को दो हिस्सों में बांटते हैैं। एक जो उनके साथ हैैं वे तो अच्छे, ईमान वाले हैैं। जो उनके साथ नहीं हैं वे बुरे, शैतान के पक्ष के काफिर आदि हैं और इसलिए निषिद्ध और यहां तक कि जीवित रहने के भी लायक नहीं हैं। कम्युनिस्ट विचारों का मूल भी सेमेटिक होने से उनमें भी ऐसे विचारों का प्रभाव दिखता है। आप वामपंथी विचारों से सहमत नहीं हैैं तो आप दक्षिणपंथी हो और इसीलिए निषेध योग्य। ऐसे लोगों ने हिंदू विचार को भी ऐसे ही द्वंद्वात्मक दृष्टि से प्रस्तुत किया। उनका विरोध और सामना करते हुए हिंदुओं की भी परिस्थितिजन्य सोच वैसी ही बन जाना अस्वाभाविक नहीं।

भारत का विभाजन केवल ब्रिटिश डोमिनियन का विभाजन था। उसमें जनसंख्या स्थानांतरण निहित नहीं था। हजारों साल से समाज एक ही था। एक भाग में-भारत में मुस्लिम अल्पमत में था तो दूसरे में-पाकिस्तान में हिंदू। दोनों को समान अधिकारों का आश्वासन था, लेकिन मुस्लिम बहुल पाकिस्तान में सेमेटिक परंपरा के अनुसार गैर मुसलमानों को समान अधिकार नहीं दिए गए। भारत के संविधान में हिंदू परंपरा के अनुसार सभी पंथों को समान माना गया और समान अधिकार भी दिए गए।

हिंदुत्व के प्रभाव के कारण भारत में रिलीजन के नाम पर कभी भेदभाव रहा ही नहीं। इसीलिए भारत के संदर्भ में अल्पसंख्यक की संकल्पना ही अप्रासंगिक है। दुर्योग से स्वतंत्र भारत में भी राजनीतिक स्वार्थ के लिए हिंदुत्व का विरोध और मुसलमान-ईसाईयों का तुष्टीकरण चलता रहा। कहीं-कहीं प्रतिरोध के लिए हिंदू समाज भी कट्टरपंथी मुसलमानों के खिलाफ लड़ा। इस कारण मुस्लिम विरोध का भाव मन में रहने लगा परंतु भारत के सभी मुसलमान और ईसाई मूलत: तो हिंदू ही थे। हिंदू समाज की दुर्बलता या अन्य कारण से उन्हें अपनी उपासना पद्धति छोड़नी पड़ी या बदलनी पड़ी, परंतु वे भारत के उतने ही अभिन्न अंग है जितने हिंदू हैं।

मुस्लिम द्वारा होने वाले हिंदू विरोध के कारण हिंदू समाज की कोई हानि न हो, इसकी सावधानी और पुख्ता व्यवस्था रखते हुए भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वे भी एक समय हिंदू ही थे। उन्हें छोड़कर भारत के भविष्य का विचार करना सेमेटिक विचार का लक्षण है, जो भारतीय नहीं है। भारत का विचार हिंदुत्व आधारित होने के कारण सर्वसमावेशी है। इसलिए कहीं प्रतिक्रिया में मुसलमान विरोध दिखता होगा तो भी भारत के मुसलमानों में भारतीयता यानी हिंदुत्व का जागरण करते हुए उन्हें भारत का भविष्य गढ़ने में साथ लेना ही हिंदुत्व की पहचान है।

संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने प्रसिद्ध पत्रकार सैफुद्दीन जिलानी को दिए साक्षात्कार में इसे स्पष्ट किया था। जिलानी ने उनसे पूछा था कि भारतीयकरण पर बहुत चर्चा हुई, भ्रम भी बहुत निर्माण हुए, क्या आप बता सकेंगे कि ये भ्रम कैसे दूर किए जा सकेंगे? इस पर श्री गुरुजी ने कहा था कि भारतीयकरण का अर्थ सबको हिंदू बनाना तो है नहीं। हम सभी को यह सत्य समझ लेना चाहिए कि हम इसी भूमि के पुत्र हैैं। अत: इस विषय में अपनी निष्ठा अविचल रहना अनिवार्य है। हम सब एक ही मानव समूह के अंग हैं। हम सबके पूर्वज एक ही हैं इसलिए हम सबकी आकांक्षाएं भी एक समान हैैं। इसे समझना ही सही अर्थों में भारतीयकरण है। भारतीयकरण का यह अर्थ नहीं कि कोई अपनी पूजा-पद्धति त्याग दे। यह बात हमने कभी नहीं कही और कभी कहेंगे भी नहीं। हमारी तो यह मान्यता है कि उपासना की एक ही पद्धति संपूर्ण मानव जाति के लिए सुविधाजनक नहीं।

सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने भविष्य का भारत व्याख्यानमाला के अवसर पर कहा था कि राष्ट्र के नाते हम सब लोगों की पहचान हिंदू है। कुछ लोग हिंदू कहने में गौरव मानते हैं और कुछ के मन में उतना गौरव नहीं है तो कोई बात नहीं। कुछ ‘पोलिटिकल करेक्टनेस’ के कारण सार्वजनिक रूप से कभी कहेंगे नहीं, लेकिन निजी रूप से कहते भी हैं और कुछ लोग ऐसे हैं जो यह भूल गए हैं। ये सब लोग हमारे अपने हैैं, भारत के हैं। जैसे परीक्षा में प्रश्नपत्र जब हमारे हाथ में आता है तो हम सबसे पहले आसान सवालों को हल करते हैं, बाद में कठिन सवालों को। वैसे ही हम पहले उनका संगठन करते हैं, जो अपने आपको हिंदू मानते हैं, क्योंकि हमारा कोई शत्रु नहीं है, न दुनिया में, न देश में। हमसे शत्रुता करने वाले लोग होंगे, उनसे अपने को बचाते हुए भी हमारी आकांक्षा उनको समाप्त करने की नहीं है, उनको साथ लेने की है, जोड़ने की है। यही वास्तव में हिंदुत्व है। स्वातंत्रयवीर सावरकर ने भी कहा था, ‘आप मुसलमान हो इसलिए मैं हिंदू हूं। अन्यथा मैैं तो विश्वमानव हूं।

[ लेखक आरएसएस के सह सरकार्यवाह हैं ]