गंगा को बचाने के नाम पर तमाम कोशिशें की जा रही हैं, लेकिन उनका कोई खास नतीजा निकलता नहीं दिख रहा है। इससे गंगा संरक्षण की मुहिम से जुटे तमाम लोगों का कुपित होना स्वाभाविक ही है। हाल में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण यानी एनजीटी ने भी तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि जैसे तंबाकू उत्पादों पर चेतावनी लिखी जाती है वैसी ही चेतावनी गंगा जल के लिए भी क्यों नहीं लिखी जाती जिसका तमाम लोग श्रद्धापूर्वक सेवन करते हैं। वहीं प्रख्यात पर्यावरणविद प्रो. जीडी अग्रवाल जिन्हें लोग स्वामी सानंद जी के नाम से भी जानते हैं, हाल में गंगा के लिए कानून बनाए जाने की मांग को लेकर आमरण अनशन पर चले गए। इस पर सरकार और समाज की प्रतिक्रिया को गंगा के लिए शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता।

मोदी सरकार के चार साल बीत जाने के बाद भी गंगा को राष्ट्रीय नदी बनाए जाने के लिए कानून की जरूरत की स्थिति उत्पन्न होने के कारणों की हमें विवेचना करनी होगी। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस की सरकारों में गंगा के लिए बहुत काम किया गया और बीते चार वर्षों में स्थिति बदल गई हो। इसके लिए दोनों सरकारों के कामकाज को भी समझना होगा। 16 फरवरी 1985 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने जो गंगा एक्शन प्लान शुरू किया उसे उनके ही नौकरशाहों ने पलीता लगा दिया। राजीव गांधी ने गंगा के पानी को पीने योग्य बनाने लक्ष्य रखा था, लेकिन दिल्ली पहुंचते ही यह लक्ष्य नहाने योग्य पानी में बदल गया। यह इसलिए किया कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पीने के पानी का मानक तय है, लेकिन नहाने के पानी का मानक तय नहीं है। तकनीकी रूप से गंगा के साथ षड्यंत्रों की शुरुआत तो 1985 में ही हो गई। फिर गंगा के बहाने अपनों को उपकृत करने का खेल चल पड़ा। इसमें गंगा के बहाने नौकरशाही की ही प्यास बुझती रही।

कैग की रिपोर्ट 2006 में भी आई थी तब लक्ष्य का सिर्फ 20 प्रतिशत काम और तीन गुना पैसे खर्च होने का आरोप कैग ने लगाया था। पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने स्वीकार किया कि गंगा एक्शन प्लान के तहत 9000 करोड़ रुपये खर्च हो गए, लेकिन भगवान जाने ये पैसे कहां खर्च हुए। उसके विपरीत मार्च 2017 में कैग ने जो रिपोर्ट दी है उसमें आर्थिक अनियमितता और भ्रस्टाचार का आरोप तो नहीं है, लेकिन योजनाओं में अदूरदर्शिता और धन खर्च न कर पाने जैसे आरोप लगे हैं।

केंद्र या राज्य की कोई भी एजेंसी कारगर योजना पेश नहीं कर पाई तो पैसा वापस मंत्रालय के पास चला गया। गंगा किनारे देश के चार प्रमुख संस्थान आइआटी-रुड़की, कानपुर एवं खड़गपुर और बीएचयू स्थित हैं। इनमें से किसी ने भी गंगा के कायाकल्प की कोई ठोस योजना नहीं बनाई। आइआइटी कंसोर्टियम की रिपोर्ट कट एंड पेस्ट से ज्यादा कुछ नहीं है। इसे तैयार कराने में भारत सरकार के 16 करोड़ रुपये खर्च हो गए।

प्रश्न उठता है कि गंगा भारत के लिए इतनी महत्वपूर्ण क्यों है और इसके लिए राष्ट्रीय कानून लाए जाने की आवश्यक्ता क्यों है? वर्ष 2000 में अशोक सिंघल के नेतृत्व में संतों का एक प्रतिनिधिमंडल तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिलने गया। अटल जी ने अपने साहित्यिक अंदाज में पूछा कि आप गंगा को जल मानते हो या आस्था? इस पर एक संत ने कहा कि गंगा गुरु की तरह हैं जो देह रूप में भी हैं और तत्व रूप में भी हैं। तब अटल जी ने पूछा कि संविधान के अनुसार तो देश की हर नदी समान भाव से देखी जाती है, फिर गंगा में वह कौन सा तत्व है जिसके कारण भारतीय संस्कृति में इसे सर्वोच्च दर्जा प्राप्त है?

सिंघल ने एक शब्द प्रयोग किया कि हिंदुत्व की तरह ही गंगत्व भी भारतीय जनमानस की प्राणधारा है और इसी गंगा तत्व की रक्षा के लिए गंगा को भारतीय संविधान के दायरे में विशिष्ट नदी की पहचान देना आवश्यक है। पहचान की आवश्यकता को देखते हुए गंगा महासभा द्वारा न्यायमूर्ति गिरिधर मालवीय की अध्यक्षता में नवंबर 2012 में राष्ट्रीय नदी गंगा संरक्षण एवं प्रबंधन विधयेक, 2012 तैयार किया गया। उसे संप्रग सरकार और भारत के प्रत्येक सांसद को भेजा गया। तत्कालीन जल संसाधन मंत्री हरीश रावत ने इसे अच्छा तो बताया, लेकिन बात इससे आगे नहीं बढ़ी।

मोदी सरकार ने न्यायमूर्ति मालवीय के नेतृत्व में एक समिति गठित की। इस समिति ने भी 2016 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी, लेकिन मंत्रालय के लचर रवैये के चलते यह विधेयक आगे नहीं बढ़ा है। प्रधानमंत्री मोदी की दृढ़ इच्छाशक्ति और पीएमओ के बार-बार फटकारने के बाद भी मंत्रालय के रवैये में खास सुधार नहीं है। गंगा मंत्रालय का एक दुर्भाग्य यह भी है कि उसे उस बड़े मंत्रालय के साथ जोड़ दिया गया है जो गंगा को नदी या मां के रूप में नहीं, बल्कि जल या संसाधन के रूप में ही देखता है। वास्तव में गंगा मंत्रालय को तो पर्यावरण मंत्रालय के साथ ही होना चाहिए था।

पीएम मोदी ने गंगा के लिए अलग मंत्रालय गठित कर ऐतिहासिक कदम उठाया था, परंतु नौकरशाही की विसंगतियों ने इस पर ग्र्रहण लगा दिया। ऐसे में अब गंगा के लिए जो किया जाए उसकी कमान सीधे पीएमओ को संभालनी चाहिए। 27 अक्टूबर 2016 को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कैबिनेट ने निर्णय लेते हुए कानून आने में देरी को देखते हुए एनएमसीजी को अथॉरिटी में बदल कर गंगा सफाई के लिए एक हजार करोड़ रुपये तक का निर्णय लेने का अधिकार दिया। प्रधानमंत्री मंत्रालय और अधिकारियों को अधिकार तो दे सकते हैं, परंतु नौकरशाही की अकर्मण्यता का वह क्या कर सकते हैं? इसका नतीजा यही हुआ कि अक्टूबर 2016 से लेकर आज तक एनजीटी एवं इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद गंगा में मल जल छोड़ने वाली किसी भी प्रदूषक इकाई पर कोई भी कानूनी कार्यवाई नहीं की गई।

इसका मूल कारण गंगा के किनारे औद्योगिक इकाई लगाने की स्वीकृति देने वाले अधिकारियों पर ही गंगा प्रदूषण रोकने की जिम्मेदारी होगी तो परिणाम यही होगा। गंगा के प्रश्न पर प्रधानमंत्री ने दो-दो बार मंत्रालय की समीक्षा एवं पीएमओ द्वारा लगातार मॉनिटरिंग की है। पिछले आठ दस महीनों में गंगा के भौतिक सत्यापन के लिए सर्वे ऑफ इंडिया को काम देकर, एसटीपी के लंबित पड़े प्रोजेक्ट्स पर त्वरित निर्णय लेकर सही दिशा में देर से उठाया गया कदम हम कह सकते हैं।

जिस प्रकार गंगा बिल को लेकर मंत्रालय के अंदर अफरातफरी दिखाई जा रही है, वह कार्य पिछले दो वर्षों में ही पूरा हो जाना चाहिए था। गंगा को बचाने के लिए, नेशनल फ्लैग एक्ट की तरह नेशनल रिवर एक्ट को कैबिनेट एवं संसद से पास कराना बहुत ही आवश्यक है। मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री के गंगा संबंधी सपनों को सच करने के लिए इसी मानसून सत्र में मंत्रालय को गंगा विधयेक संसद के समक्ष रखना चाहिए।

[ लेखक गंगा महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री हैं ]