[ दिव्य कुमार सोती ]; गलवन में भारत और चीन के बीच सैन्य झड़प हुए दो माह से अधिक का समय बीत चुका है, लेकिन तमाम बातचीत के बाद भी बीजिंग का रवैया जस का तस है। चीनी सेना पैंगोंग झील और देपसांग के मैदानों से अपने कदम पीछे खींचने के लिए तैयार नहीं है। अब तो वह उलटे भारत से अपनी सेना को पीछे हटाने के लिए कह रहा है। चूंकि अभी तक उठाए गए कदम अपर्याप्त साबित हुए हैं, इसलिए इस पर विचार होना चाहिए कि चीन के आक्रामक रवैये से निपटने के लिए और क्या किया जाना चाहिए? इस पर विचार करने के पहले भारत-पाक सैन्य तनावों पर नजर डालना जरूरी है। कल्पना कीजिए कि तब क्या होता, जब भारत-पाक की सेनाओं में गलवन जैसी झड़प हुई होती और दोनों सेनाओं की तीन-तीन डिवीजन आमने-सामने खड़ी होतीं? ऐसी स्थिति में विश्व बिरादरी इसे लेकर चिंतित होती कि दोनों देशों में परमाणु युद्ध न हो जाए। भारत में भी इसे लेकर गंभीर चर्चा हो रही होती।

भारतीय सेना ने चीन से निपटने के लिए लड़ाकू विमानों को फारवर्ड एयरबेस पर तैनात कर दिए

अब जरा इसकी तुलना भारत-चीन के बीच उपजे सैन्य तनाव से करें। भारतीय सेना ने चीनी आक्रामकता से निपटने के लिए उतनी ही तैनाती की है, जितनी चीन ने की है। भारतीय वायुसेना ने अपनी उन्नत हथियार प्रणालियों और लड़ाकू विमानों को फारवर्ड एयरबेस पर तैनात कर दिया है। इसके बावजूद चीन में इस बढ़ते सैन्य तनाव के खतरनाक मोड़ ले लेने की वैसी कोई चिंता नहीं दिख रही है, जैसी पाकिस्तान के मामले में भारत में दिखाई जाती रही है।

चीनी सेना को आगे बढ़ने से रोकने के लिए एलएसी पर भारतीय सेना का जमावड़ा

यह सही है कि भारत-चीन के बीच परमाणु युद्ध होने की आशंका न उभरने के पीछे दोनों ही देशों का सामरिक सिद्धांत है, जिसके तहत परमाणु हथियारों का पहले इस्तेमाल न करने की बात कही गई है, लेकिन हमारे कदम ऐसे तो होने ही चाहिए कि चीनी नेताओं के दिमाग में एक विनाशकारी पारंपरिक युद्ध का खतरा उत्पन्न हो। अभी तक ऐसा नहीं हो पाया है, तो इसका एक कारण भारतीय नीति की प्रकृति है। चीनी नेता भारत द्वारा किए गए सैन्य जमावड़े को एक प्रतिक्रियावादी कदम के तौर पर देख रहे हैं, जो वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अचानक आ धमकी उनकी सेना को और आगे बढ़ने से रोकने के लिए उठाया गया है, न कि उसे पीछे धकेलने के उद्देश्य से।

एलएसी पर सैनिकों का जमावड़े को कम्युनिस्ट सत्ता खतरा नहीं महसूस कर रही

कोर कमांडर स्तर की बातचीत ने चीन के इस रवैये को स्पष्ट भी किया है। शायद इसी के चलते सीडीएस बिपिन रावत का यह बयान सामने आया कि अगर बातचीत से बात नहीं बनी, तो सैन्य कार्रवाई का विकल्प खुला है। चीन को लगता है कि अगर युद्ध हो भी गया, तो वह बहुत ही छोटी अवधि और सीमित भौगोलिक फैलाव वाला होगा। पूर्वी लद्दाख, जहां दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने खड़ी हैं, चीन के आबादी वाले हिस्सों से हजारों किमी दूर है। दक्षिण-पश्चिम तिब्बत और अक्साई चिन धरती के सबसे वीरान इलाकों में से हैं। इन सुदूर इलाकों में भारतीय सैन्य तैनाती चीनी शक्ति के केंद्रों के लिए खतरा नहीं पैदा करती और इसीलिए कम्युनिस्ट सत्ता कोई खतरा नहीं महसूस कर रही है।

भारतीय नीति की विफलता है कि हम अभी तक चीन को भारी कीमत चुकाने का संदेश नहीं दे सके

इस मामले में हमें पाकिस्तान से सीखना चाहिए कि किस तरह दशकों तक परमाणु युद्ध का भय दिखाकर उसने अपने से बड़े और ताकतवर भारत को अपने यहां के आतंकी संगठनों के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई से रोके रखा। यह हमारी नीति की विफलता है कि हम अभी तक चीन को यह संदेश नहीं दे सके हैं कि उसे भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। इसका कारण यही लगता है कि पिछले तीन दशक में जब-जब चीनी सेना ने कोई घुसपैठ की, तब-तब हमने कुछ ले-देकर मामले को निपटाने की कोशिश की।

चीन भारतीय सैनिकों को देपसांग जैसे इलाकों में गश्त से रोक रहा

चीन को लगता है कि वह जो चाहे करे, भारत उससे युद्ध करने से बचेगा। हमने अभी तक ऐसी सैन्य मुद्रा धारण नहीं की है कि तिब्बत से परे चीनी मुख्यभूमि के लिए खतरा उत्पन्न हो जाए। हमने मलक्का जलडमरूमध्य, जिससे चीन के ज्यादातर समुद्री जहाज गुजरते हैं, में ऐसा कोई कदम नहीं उठाया है कि चीनी आयात-निर्यात के लिए दिक्कतें पैदा हो जाएं। जब चीन सारे अंतरराष्ट्रीय कानूनों को ताक पर रखकर पूरे दक्षिण चीन सागर को अपना बता सकता है, तो भला भारत चीनी मालवाहक जहाजों को परेशान क्यों नहीं कर सकता, खास तौर पर तब जब वह हमारे सैनिकों को देपसांग जैसे इलाकों में गश्त से रोक रहा है?

टिकटॉक पर प्रतिबंध एक बेहद मजबूत कदम जरूर था, लेकिन हम वहीं रुक गए 

भारत की कार्रवाई हिचक के साथ नहीं होनी चाहिए, वरना बीजिंग को यही संदेश जाता रहेगा कि भारत जो कर रहा है, वह महज लेन-देन के लिए दबाव बनाने के लिए कर रहा है। गलवन की झड़प के बाद आर्थिक मोर्चे पर उठाए गए कदमों की ओर नजर डालें, तो टिकटॉक जैसे चीनी एप्स पर प्रतिबंध एक बेहद मजबूत कदम जरूर था, लेकिन हम वहीं रुक गए। अगर सीमा पर तनाव न हुआ होता, तो भी हुआवे जैसी कंपनियां राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा थीं, लेकिन हम उन पर प्रतिबंध लगाने के लिए इंतजार कर रहे हैं। ध्यान रहे कि कनाडा और ब्रिटेन जैसे देश ऐसे कदम उठा चुके हैं, जबकि उनका चीन के साथ कोई सैन्य टकराव भी नहीं हुआ। हैरत नहीं कि चीनी नेताओं ने टिकटॉक के विरुद्ध भारतीय कार्रवाई को कोर कमांडर स्तर की बातचीत में महज दबाव बनाने की कोशिश के तौर पर देखा हो। यह तय है कि अपनी सेना भारत की ओर रवाना करने से पहले चीनी नेताओं ने यह आकलन किया होगा कि भारत जवाब में ऐसा क्या कर सकता है, जिससे उन्हेंं नुकसान उठाना पड़ सकता है? संभव है कि अपने सामरिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए चीन कुछ सीमा तक आर्थिक नुकसान उठाने का मन पहले से बनाए हो।

चीन को पीछे धकेलने के लिए आर्थिक मोर्चे पर भारत की कार्रवाई व्यापक होनी चाहिए

वैसे भी पिछले दो दशकों में व्यापार असंतुलन के चलते वह खरबों डॉलर के मुनाफे पर बैठा है। चीन को पीछे धकेलने के लिए आर्थिक मोर्चे पर भारत की कार्रवाई इतनी व्यापक होनी चाहिए कि उससे होने वाला नुकसान चीनी व्यापार जगत की सहनशक्ति से बाहर हो।

भारतीय सेना को कड़ा संदेश देना होगा

सैन्य स्तर पर भी चीन को यह संदेश जाना चाहिए कि भारत सीमा पर सैन्य तैनाती से आगे जाकर उसके मालवाहक जहाजों को भी निशाने पर ले सकता है। इसी के साथ हमें चीन को यह संदेश देना होगा कि अगर वह हम पर युद्ध थोपेगा, तो वह अक्साई चिन के वीरान इलाकों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि उसकी आंच शेनझेन और शंघाई जैसे बड़े औद्योगिक केंद्रों तक महसूस होगी।

( लेखक काउंसिल फॉर स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं )