[ तरुण विजय ]: इन दिनों पश्चिम बंगाल में जो हो रहा है वह तानाशाही के बाद जन्मे किसी नवजात गणराज्य का क्रंदन ही लगता है। वहां चुनाव खत्म होने के बाद भी हिंसा जारी है। इतना ही नहीं, इस बात का गहन अंदेशा है कि चुनाव नतीजे आने के बाद राज्य में नए सिरे से हिंसा भड़क सकती है। क्या इसे रोका नहीं जाना चाहिए? चुनाव नतीजे कुछ भी हों, सारे देश को इस पर विचार करना होगा कि बंगाल हिंसा की राजनीति के दुष्चक्र से कैसे मुक्त हो? यह दुख की बात है कि दुनिया के सबसे बडे़ लोकतंत्र का दावा करने वाला हमारा देश उन नेताओं के भरोसे बढ़ने की कोशिश कर रहा है जिनका आचरण कहीं से भी लोकतांत्रिक तौर-तरीकों के अनुकूल नहीं दिखता।

आज पश्चिम बंगाल में भगवा वस्त्रधारी कार्यकर्ता पुलिस की लाठियों का शिकार हो रहे हैं। जैसे वंदे मातरम से अंग्रेज कभी चिढ़ते थे वैसे ही आज जय श्रीराम के नारे से वहां की कथित सेक्युलर सत्ता चिढ़ रही है। पश्चिम बंगाल में कोई जय श्रीराम बोल दे रहा है तो उसे जेल में डाल दिया जा रहा है। वहां कोई तृणमूल प्रमुख का कार्टून या मीम भी बना दे तो पुलिस पकड़ लेती है। विडंबना यह है कि इस पर भी खुद को सेक्युलर-लिबरल कहने वाले मौन धारण करना पसंद करते हैं या फिर यह सिद्ध करना कि जयश्री राम बोलना सांप्रदायिक है। हाल के दिनों में पश्चिम बंगाल में भाजपा और संघ के कई कार्यकर्ता मार डाले गए। ऐसी आतंक की कथाएं जब अखबारों में छपती हैं तो आश्चर्य होता है कि यह पढे़-लिखे नेताओं का चुनाव हो रहा था या पाषाणकालीन मानवों का हिंसक खेल हो रहा था?

वास्तव में चुनाव लोकतंत्र की परंपरा है जो कार्यक्रमों, नीतियों और भविष्य के दृष्टिपथ को सामने रखकर लड़ा जाता है। भारत में ऐसे अनेक रोमांचक और युग प्रवर्तक चुनाव हुए हैं जिनमें 1977 के आपातकाल के तुरंत बाद वाला निर्वाचन भी शामिल है, लेकिन ऐसी गाली-गलौच और हिंसा पहले कभी देखने को नहीं मिली जैसी इस बार के लोकसभा चुनावों में देखने को मिली। प्रधानमंत्री को चोर कहना तो जैसे चना मुरमुरा खाने जैसा साधारण कृत्य हो गया। यह भी अजीब है कि सर्वोच्च न्यायालय से झूठ के लिए माफी मांगने के बाद भी चोर-चोर कहने वालों ने लज्जा का परिचय नहीं दिया।

क्या यह देश के संघीय ढांचे के लिए कम घातक है कि एक तरफ बंगाल में तृणमूल की अगुआई वाली सत्ता षड्यंत्र और राष्ट्रघात की मानसिकता से आ रहे घुसपैठियों को सादर सम्मान सहित राशन कार्ड जैसी सुविधाएं देना पसंद कर रही है और दूसरी ओर दिल्ली और शेष देश से बंगाल आने वाले भारतीयों को बाहरी गुंडा कहकर उन्हें बाहर फेंकने की धमकी दे रही है। उद्योगहीनता, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार में लिप्त शीर्ष नेता और दुष्कर्म एवं किसानों की आत्महत्याएं आज जिस बंगाल की मुख्य पहचान बन गई हैं वहां लोकतांत्रिक पार्टी का अर्थ है एक नेता का एकाधिकारवाद। यहां सत्ताधारी दल में नीचे से लेकर ऊपर तक किसी भी प्रकार के भिन्न मत की अनुपस्थिति दिखती है।

पश्चिम बंगाल एक ऐसा प्रदेश बन गया है जहां लगता है कि गणतंत्र और राजतंत्र में फर्क ही मिट गया है। इसके बावजूद बौद्धिक समाज प्रतिशोध के डर से सिर्फ बाबुगीरी में काम कर रहा है। इसी बंगाल में जब टाटा ने अपना कारखाना लगाना चाहा था तो वर्तमान सेक्युलर सत्ता के सूत्रधार ने हजारों-लाखों को रोजगार देने वाले उस उपक्रम को प्रदेश से बाहर जाने में एक भूमिका निभाई थी। हालांकि तब माकपा का शासन था। आज यह कल्पना करना भी कठिन है कि यह वही बंगाल है जहां कभी रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, रवींद्रनाथ टैगोर, सुभाषचंद्र बोस और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे महापुरुष हुए थे। इसी बंगाल के नौजवानों ने कभी भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का नेतृत्व किया था। आज जिस प्रकार भगवा वस्त्रधारियों का कथित सेक्युलर सत्ता द्वारा निरंकुश दमन हो रहा है उसने एक समय निरंकुश ब्रिटिश सत्ता द्वारा धर्म ध्वजा लेकर खडे़ हुए संन्यासी विद्रोह पर हमले की स्मृति जगा दी।

आज के बंगाल के माहौल में 1882 में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित आनंद मठ उपन्यास याद आता है जो 18वीं सदी के उस बंगाल की क्रांति गाथा थी जो अंग्रेजों के अन्याय के खिलाफ एक संन्यासी विद्रोह के रूप में फूट पड़ी थी। यह वही आनंद मठ है जिसने हमें वंदे मातरम गीत दिया जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हजारों क्रांतिकारियों के अधरों पर लहरा। यह गीत अलग से लिखा हुआ नहीं है, बल्कि आनंद मठ उपन्यास का हिस्सा है। इस पर 1952 में पृथ्वी राज कपूर के नायकत्व में आनंद मठ नाम से एक श्वेत श्याम फिल्म भी बनी जिसमें लता मंगेशकर द्वारा गाया संपूर्ण वंदे मातरम गीत युद्ध की धुन पर है। उस समय भी एक सत्ता थी जो निरंकुशता और तानाशाही का प्रतीक थी और एक प्रजा थी जो अपने धर्म, संस्कृति तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर लड़ रही थी।

बंकिमचंद्र चट़्टोपाध्याय की अमर कृति आनंद मठ प्रत्येक दल और विचारधारा को मानने वाले हर उस भारतीय को पढ़नी चाहिए जो भारत की वेदना से परिचित होना चाहता है। इसमें अकाल पीड़ित गांव से महेंद्र, उनकी पत्नी कल्याणी, आनंद मठ के गुरु के रूप में प्रखर राष्ट्रीय विचार वाले योद्धा गुरु सत्यानंद, युवा संन्यासी और शस्त्र एवं शास्त्र में पारंगत जीवानंद और दमन से लड़ने वाली युवती शांति के चरित्र एक शताब्दी से भी अधिक समय तक भारतीय राष्ट्रवादी चेतना को झकझोरते और प्रेरित करते रहे।

आनंद मठ फिल्म में पृथ्वी राज कपूर की गंभीर वाणी राष्ट्र प्रेमियों के हृदय के संताप और राष्ट्रघाती तत्वों के निर्मूलन का संदेश देती है। यह फिल्म देश के हर विद्यालय में दिखाई जानी चाहिए। प्रश्न उठता है कि आज हिंदू बहुसंख्यक देश में ही हिंदू भावनाओं पर प्रहार राजनीतिक दृष्टि से किसे लाभप्रद लगना चाहिए? जिन लोगों ने विदेशी आततायियों के खिलाफ अपने धर्म और अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष किया वे यदि आज भी अपने धर्म और विचार की रक्षा के लिए मारे जाएं तो क्या आजाद भारत में यह स्थिति स्वीकार होनी चाहिए? इस स्थिति को बदलने के लिए उठा हर कदम आनंद मठ का ही प्रतिरूप है।

( लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं )

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