[ राजीव सचान ]: इस पर कोई भी यकीन के साथ कह सकता है कि प्रबल बहुमत से सत्ता में लौटी मोदी सरकार का रक्षा-सुरक्षा पर खासा जोर है, लेकिन यह भरोसे के साथ कहना कठिन है कि आंतरिक सुरक्षा तंत्र को मजबूत करना भी उसके एजेंडे में है। आंतरिक सुरक्षा की पहली कड़ी है पुलिस और वह किस तरह संसाधनों एवं संख्याबल से हीन है, इसका ताजा प्रमाण पिछले दिनों गृह मंत्रालय की ओर से सामने आया वह आंकड़ा है जो यह कहता है कि विभिन्न राज्यों में पुलिसकर्मियों के 5 लाख 28 हजार पद रिक्त हैं। ऐसा आंकड़ा पहली बार सामने नहीं आया।

पुलिसकर्मियों के तमाम पद खाली

2017 में एक याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह पाया था कि विभिन्न राज्यों में पुलिसकर्मियों के तमाम पद खाली पड़े हैं। खुद सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली पीठ ने बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल को यह आदेश दिया था कि वे इन रिक्तियों को प्राथमिकता के आधार पर भरें। पीठ ने इस भर्ती प्रक्रिया की निगरानी का काम भी अपने हाथ लिया। उक्त याचिका में 2015 तक के आंकड़ों का जिक्र था और उनके अनुसार देश में 5 लाख 52 हजार पुलिस कर्मियों की कमी है।

सुप्रीम कोर्ट का दखल

ताजा आंकड़ा कह रहा है कि पुलिस कर्मियों के रिक्त पदों की संख्या 5 लाख 28 हजार है। इसका मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद भी केवल 24 हजार पुलिस कर्मियों की भर्ती की जा सकी। इसमें एक बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश में की गईं पुलिस भर्तियों का रहा। इससे इसी भ्रम का निवारण होता है कि सुप्रीम कोर्ट सब चीजों को ठीक कर सकता है। इसकी पुष्टि पुलिस सुधार संबंधी उसके दिशा निर्देशों पर अमल न होने से होती है। ये दिशानिर्देश 2006 में दिए गए थे, लेकिन उन पर न तो केंद्र सरकारों ने ध्यान दिया और न ही राज्य सरकारों ने। 2014 में यह जो उम्मीद बंधी थी कि मोदी सरकार कम से कम केंद्र शासित और भाजपा शासित राज्यों में तो इन दिशा निर्देशों को लागू कराने का काम ही करेगी, लेकिन बीते पांच सालों में ऐसा नहीं हुआ। कहना कठिन है कि मोदी सरकार के इस कार्यकाल में यह उम्मीद पूरी होती है या नहीं?

सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों पर अमल नहीं

सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय किए गए पुलिस सुधारों संबंधी दिशा निर्देशों पर सही तरह से अमल न हो पाने और पुलिस के संख्याबल के अभाव से जूझने का सबसे अधिक दुष्परिणाम कानून के शासन को उठाना पड़ा है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि समय के साथ पुलिस पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है। बतौर उदाहरण अब उसे सोशल मीडिया के जरिये की जाने वाली खुराफात से भी निपटना पड़ता है, लेकिन ऐसा लगता है कि हमारे नीति-नियंता यह समझने को तैयार नहीं कि संसाधनहीन पुलिस कानून एवं व्यवस्था की सही तरह रखवाली कैसे कर सकती है?

भीड़ की हिंसा

इन दिनों भीड़ की हिंसा चर्चा में है। यह होनी भी चाहिए, क्योंकि ऐसी हिंसा देश की बदनामी का कारण बनती है, लेकिन भीड़ की हिंसा वही नहीं जो झारखंड के सरायकेला-खरसावां जिले में चोरी के आरोप में पिटे तबरेज अंसारी की मौत से सामने आई। कोलकाता के एक सरकारी अस्पताल में डॉक्टरों पर धावा बोलकर उन्हें अधमरा करना भी भीड़ की हिंसा थी। इसके बाद दिल्ली में एक कार चोर की हरकत से गुस्साए लोगों की ओर से वाहनों में की गई तोड़फोड़ भी भीड़ की हिंसा थी। इसी तरह दिल्ली में ही एक मंदिर में की गई तोड़फोड़ भी भीड़ की हिंसा थी।

न्याय मांगने के नाम पर हिंसा का सहारा

वास्तव में यह एक नया चलन बन रहा है कि न्याय मांगने, अन्याय का विरोध करने या फिर अपनी नाराजगी जाहिर करने के नाम पर लोगों की भीड़ हिंसा का सहारा ले रही है। इसका ताजा उदाहरण जयपुर में तब देखने को मिला जब एक बच्ची से दुष्कर्म की घटना के विरोध में हिंसा का सहारा लिया गया। यह विरोध इतने हिंसक तरीके से किया गया कि कई इलाकों में कर्फ्यू जैसे हालात बन गए और हालात काबू में करने के लिए जयपुर के 13 थाना क्षेत्रों में इंटरनेट सेवाएं बंद करनी पड़ीं। न्याय मांगने अथवा अन्याय का विरोध करने या फिर विरोध जताने के नाम पर सड़कों पर उतरी भीड़ का हिंसक व्यवहार एक बेहद खतरनाक चलन है। अगर इस चलन को रोका नहीं गया तो कानून एवं व्यवस्था में गिरावट को थामना मुश्किल होगा।

भीड़ की हिंसा कानून के शासन पर सवाल

भीड़ की हिंसा अथवा अन्य अराजक अथवा अन्यायपूर्ण घटनाओं का विरोध होना ही चाहिए, लेकिन उस तरह से नहीं जैसे हो रहा है। यह कानून के शासन पर एक गंभीर सवाल ही है कि भीड़ की हिंसा का विरोध करने वाली भीड़ भी उपद्रव करती दिखे। भीड़ की पिटाई से तबरेज अंसारी की मौत का विरोध करने के नाम पर पहले सूरत में अराजकता का प्रदर्शन किया गया, फिर रांची में।

हिंसा के विरोध के नाम पर हिंसक व्यवहार भी थमना चाहिए

इसी के साथ देश के कुछ अन्य शहरों में उक्त घटना का विरोध हिंसक तरीके से किया गया। जितना जरूरी यह है कि भीड़ की हिंसा रुके उतना ही यह भी कि ऐसी हिंसा के विरोध के नाम पर किया जाने वाला हिंसक व्यवहार भी थमे। पता नहीं यह सिलसिला कैसे रुकेगा, लेकिन यह अवश्य कहा जा सकता है कि पुलिस भीड़ को मनमानी करने से रोकने के उपाय अच्छी तरह जानती है। वह अपना काम सही तरह से कर सकती है, बशर्ते उसके पास पर्याप्त संसाधन हों।

पुलिस को आवश्यक संसाधनों से लैस किया जाए

चूंकि कानून एवं व्यवस्था राज्यों का विषय है इसलिए पुलिस को सक्षम बनाना उनका ही काम है, लेकिन केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राज्य अपने हिस्से का यह काम प्राथमिकता के आधार पर करें। यह चिंताजनक है कि कानून एवं व्यवस्था के समक्ष उभरती गंभीर चुनौतियों के बावजूद पुलिस सुधारों पर अमल की कोई सूरत नहीं दिख रही है। पुलिसकर्मियों के लाखों रिक्त पद यही बताते हैैं कि कानून एवं व्यवस्था को दुरुस्त करने के प्रति अपेक्षित गंभीरता का परिचय देने से इन्कार किया जा रहा है? आवश्यक केवल यही नहीं है कि पुलिस कर्मियों के रिक्त पद तेजी से भरे जाएं, बल्कि यह भी है कि पुलिस को आवश्यक संसाधनों से लैस भी किया जाए।

अराजकता के प्रदर्शन पर हो सख्त कार्रवाई

नि:संदेह इससे भी ज्यादा आवश्यक यह है कि न्याय मांगने अथवा अन्याय का विरोध करने के नाम पर कोई भी अराजकता का प्रदर्शन न कर सके। जो करे उसके खिलाफ नजीर बनने वाली सख्ती का परिचय देना चाहिए। अभी ऐसा नहीं हो रहा है और इसीलिए हर तरह की अराजकता बढ़ती चली जा रही है। यह अराजकता कानून के शासन का उपहास उड़ाने और साथ ही पुलिस के बचे-खुचे इकबाल को कम करने वाली है।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )