[ कुलदीप नैयर ]: अलवर हत्याकांड को लेकर वीभत्स जानकारियां उजागर हुई हैं। अगर पुलिस ने समय पर कदम उठाया होता तो पीड़ित अकबर खान की जान बचाई जा सकती थी। वास्तव में पुलिस बल चाय पीने के लिए रुका और उसने पीड़ित को अस्पताल पहुंचाने में ही साढ़े तीन घंटे बर्बाद कर दिए। वह ज्यादा खून बहने से मर गया। अगर तथ्यों को जोड़कर देखें तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि पुलिस ने जानबूझकर देरी की। पीड़ित का धर्म यानी उसका मुसलमान होना ही उसकी बर्बादी का कारण बना। इसकी ज्यादा जानकारी तो जांच में सामने आएगी, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि पुलिस की ज्यादा दिलचस्पी उसकी जान बचाने में नहीं, बल्कि दो गायों को बरामद करने में थी। इन गायों को दस किलोमीटर दूर गोशाला ले जाया गया और फिर अकबर खान को हमले की जगह से छह किलोमीटर दूर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचाया गया।

अल्पसंख्यकों के बीच खौफ पैदा करने वाली हिंसक भीड़ की हिंसा से जुड़े जो आंकड़े सामने आए हैं वे बताते हैं कि 2010 के बाद से गाय से संबंधित हिंसा के 86 प्रतिशत मामलों में पीड़ित की मौत हो गई। 97 प्रतिशत घटनाएं 2014 के बाद हुई हैं। हत्या या हमला समेत, जब भी ऐसी घटनाएं हुई हैं, तथाकथित गौरक्षा के इन मामलों में मुसलमान या दलित को चोट सहनी पड़ी है।

समाज को विविधतावादी बनाने के हमारे प्रयासों पर यह एक दुखद टिप्पणी है। महात्मा गांधी अपनी प्रार्थनाओं में हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर देते थे। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी इस पर जोर दिया और एकता की दलील को मजबूत करने के लिए कदम उठाए जिनमें संस्थानों में दाखिले या नौकरी के लिए आवेदन करने के फार्म से धर्म का कॉलम हटा देना भी शामिल था। धर्म के आधार पर खींची गई रेखा हमें बार-बार तंग करती है। 17 करोड़ की आबादी के बावजूद सरकार के प्रशासनिक मामलों में मुसलमानों का कोई महत्व नहीं है। वे अलग जगह रहते हैं और उन जगहों के झुग्गियों में तब्दील हो जाने के बाद भी वे वहां साथ रहने में सुरक्षित महसूस करते हैं। जब दिल्ली में दंगे हुए थे तो मैं एक कार्यकर्ता के रूप में समुदाय की मदद कर रहा था। एक कार्यरत जज ने झुग्गी में ही रहना पसंद किया। उन्होंने मुझसे कहा कि वह वहां सुरक्षित महसूस करते हैं।

जाहिर है, पुलिस के प्रशिक्षण में खामी है। सरकार ने लंबे समय तक मस्जिद, मंदिर और गुरुद्वारा पुलिस लाइन से बाहर रखे, लेकिन विभिन्न नेताओं ने लोगों को धार्मिक समूह के रूप में ही देखा और वे उनकी संकीर्ण प्रवृत्तियों का ही पोषण करते रहे। हमें खुद से यह सवाल करना चाहिए कि कानून के रक्षक ही क्यों इसे तोड़ने वाले बन रहे हैं? अब मस्जिद, मंदिर और गुरुद्वारे को वहां इजाजत दे दी जाती है जहां वे रहते हैं। वे इनका कानफोड़ू शोर सुनते रहते हैं। समुदायों के लिए अलग-अलग स्कूल हैं। मुसलमानों का मदरसों में विश्वास गहरा हो गया है, क्योंकि वे अपनी पहचान बचाना चाहते हैं। मैंने 1990 के दशक में इसे लेकर राज्यसभा में सवाल उठाए थे। तब मेरे सवालों का निशाना कांग्रेस थी, क्योंकि आजादी के बाद से उसी ने देश पर शासन किया था। जवाब देने के बजाय इस मुद्दे के प्रति अपनी अरुचि दर्ज कराने के लिए उस समय कांग्रेस के शीर्ष नेता प्रणब मुखर्जी सदन से बाहर चले गए।

पाकिस्तान की इस्लामिक व्यवस्था के विपरीत सेक्युलरिज्म को हमने अपनी विचारधारा के रूप में ग्रहण किया। दुर्भाग्य से मुस्लिम समुदाय दूर खड़ा है। ऐसा महसूस होता है कि वह बंटवारे के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार है। यह पूरी तरह सच नहीं है। मुसलमानों में विश्वास पैदा करने में हिंदू नाकाम रहे। कुछ कट्टरपंथी उन विचारों का प्रचार करते रहे जिन्हें उन्होंने अपना रखा था। चूंकि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी का आजादी के आंदोलन से कोई संबंध नहीं इसलिए उसकी विचारधारा वही रही जिसका प्रचार उस समय उसके बड़े नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने किया। वह हिंदू राष्ट्र बनाने का दर्शन था।

जयप्रकाश नारायण ने कट्टर हिंदुओं को भी जनता पार्टी में लाने और उनके कहे पर चलने में सफलता पाई। उन्होंने अपनी टोपी भी छोड़ दी जो उनका प्रतीक थी, लेकिन आरएसएस से संबंध इसमें बाधा था। जब जेपी ने उस समय के जनसंघ के नेताओं को आरएसएस से संबंध तोड़ने के लिए कहा तो उन्होंने अपनी अलग पार्टी बनाना बेहतर समझा। कुछ प्रतिबद्घ सदस्य आरएसएस के साथ गए और बाकी जेपी के साथ रह गए।

अंत में, मामला केंद्रीय नेतृत्व के सामने पहुंचा। वहां जनसंघ हार गया। यही समय था जब अटल बिहारी वाजपेयी नेता के रूप में उभरे, क्योंकि वह सबको स्वीकार्य थे। उन्होंने लोगों का विश्वास बनाए रखा, क्योंकि वह बस लेकर लाहौर गए जिसमें लगभग हर राजनीतिक पार्टी के सदस्य थे। अपने नागरिक सम्मान में उनका भाषण इतना आकर्षक था कि कुछ लोग मेरी सेवा लेने आए कि मैं नवाज शरीफ से भाषण नहीं देने का आग्रह करूं, क्योंकि माहौल पूरी तरह वाजपेयी के पक्ष में था।

नवाज शरीफ ने कहा कि वह मूर्ख नहीं हैं कि वाजपेयी के भाषण के बाद बोलें। इसके बजाय उन्होंने कहा कि अगर वाजपेयी पाकिस्तान में चुनाव लड़ें तो वह भारी मतों से जीतेंगे। इसके बाद से भाजपा काफी लंबा रास्ता तय कर चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी दूसरा वाजपेयी बनने के प्रयास में है, लेकिन सफल नहीं हो रहे हैं। वाजपेयी आदर्श हैं, क्योंकि वह कांग्रेस के समर्थकों को भी प्रभावित कर पाते थे।

मुझे याद है कि मैं जब उच्चायुक्त था तो वह लंदन आए थे। उस समय बाबरी मस्जिद चर्चा में थी। वाजपेयी ने कहा कि रामभक्त अयोध्या गए हैं और जो देश से प्यार करते हैं वे यहां आ गए हैं। हालांकि मोदी ‘सबका साथ, सबका विकास’ पर जोर दे रहे हैं, लेकिन लगता है कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक समानांतर अभियान शुरू कर रखा है कि ज्यादा से ज्यादा उम्मीदवार उनके हों ताकि जब चुनाव के बाद प्रधानमंत्री चुनने का समय आए तो उस पर आरएसएस की छाप हो। अलवर हत्याकांड जैसे मामले आरएसएस और भाजपा का ग्राफ नीचे उतार देंगे, क्योंकि देश का मूड आरएसएस के इरादों से मेल नहीं खाता। राष्ट्र विविधतावादी रहना चाहता है।

[ लेखक जाने-माने पत्रकार एवं स्तंभकार हैं ]