[ गोपालकृष्ण गांधी ]: पिछले कळ्छ सप्ताहों की चार घटनाओं से मुझे बहुत संतोष हुआ, बल्कि यह कहें कि आनंद मिला। संतोष और आनंद में कोई अंतर है? नहीं भी है और है भी। पर्याय से हम परिचित हैं। फिर प्रश्न उठता है कि एक ही भाषा में एक ही अर्थ के दो-दो भिन्न शब्द क्यों? ठीक सवाल है और सवाल में ही उसका जवाब है। पर्याय से हमें दो शब्द नहीं, लेकिन एक सूक्ष्म विकल्प मिलता है, जिसकी भाषा और विचार को जरूरत है। पूरक की सहायता से पर्याय का अंतर साफ होता है। संतोष फळ्ल्का है, आनंद पूड़ी। संतोष रसगुल्ला है, आनंद रसमलाई। संतोष सौंफ है, सुपारी भी, लेकिन आनंद है स्वादों से भरा बनारसी पान। आह! तो ये चार प्रसंग कुछ ऐसे हैैं:

भोपाल लोक सभा चुनाव में दुखभरा अनुभव

पहला: अभी हुए हमारे निर्णायक आम चुनावों में भोपाल निर्वाचन क्षेत्र के आंदोलन-प्रचार ने हमें एक दुखभरा अनुभव दिया। मैं उसकी अंतर्वस्तु में नहीं जाना चाहता। साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकळ्र ने गांधी-गोडसे को लेकर जो कहा सो कहा। क्या कहा, हम सब जानते हैं, लेकिन आनंद! हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने यथाशीघ्र उस बयान का खंडन किया। साध्वी ने एक वार्ता में कहा-मैं देशवासियों से माफी मांगती हूं...। क्षमा-प्रार्थना जो है, वह वार्तालाप की दुनिया से ऊपर, साहित्य से भी कळ्छ आगे, काव्य के क्षेत्र में संचार करती है। मेरा अर्थ सरसरी या मजबूरन मांगी हुई क्षमा से नहीं।

साध्वी प्रज्ञा ने साधु-दिल से मांगी थी क्षमा

मेरा अर्थ हृदय से क्षमा-याचना से है और मैं मानना चाहूंगा कि साधु-साध्वी जो कहते हैं वह सच होता है। अगर गेरुआधारी कोई झूठ बात कहता है तो वह साधु नहीं, अभिनेता है। मैं मानना चाहूंगा कि साध्वी प्रज्ञा ने जब देश की जनता से अपने कहे पर क्षमा मांगी तो वह अपने साधु-दिल से मांगी, न कि किसी सियासी-दिमाग से। मुझे उन दिनों पूछा गया, टिप्पणी दीजिए! कळ्छ सोचकर मैंने कहा कि गांधीजी अगर होते तो कहते, साध्वी को भगवान क्षमा करे। क्षमा मांगना बहादुरी का परिचायक है।

मेरी मंशा थी कि दिग्विजय सिंह विजयी हों

क्षमा करना बड़प्पन का और जब वह (मांगने और देने की) क्रिया पूर्ण होती है तो नैतिकता को आनंद होता है, मानवता को आनंद होता है, शिष्टता को, शिष्टाचार को, सभ्यता को, संस्कृति को आनंद होता है। मुझ अदना-इंसान को भी आनंद हुआ। यहां यह कहना जरूरी है (सच्चाई के तौर पर) कि उस चुनाव में मेरी प्रार्थनामय मंशा थी कि गरीब-नवाज, पिछड़ों के दोस्त, समता-सेवक दिग्विजय सिंह विजयी होएं, देश के नेतृत्व में अपनी अनमोल भूमिका निभाएं। वह बात अलहदा है। जीवन में हम सब न जाने कितने विरोधाभासों को लेते हुए चलते हैं। यह आनंद-दर्द-आनंद का मिश्रण जीवन में मेरी एक दुविधा है। बहरहाल दर्द खुशी का बड़ा भाई है। वह बहना को इन्कार नहीं करता।

पीएम मोदी की मन की बात में पानी की किल्लत

दूसरा: विजय-प्राप्ति के बाद अपनी पहली मन की बात में प्रधानमंत्री जी ने राजनीति, चुनाव, सियासी हार-जीत को परे रखते हुए ऐसी बात उठाई जो हमारे लिए महत्व क्या, जिंदगी-मौत का सवाल है- पानी की किल्लत। उत्तर भारतीयोंके लिए कल्पना करना मुश्किल है कि चेन्नई में (जहां मैं रहता हूं) और देश के कई हिस्सों में बारिश के विलंब से अकाल चल रहा है। भूख से भी इंसान कुछ समय निपट सकता है। प्यास की बात अलग होती है और प्यास सिर्फ पीने के पानी की नहीं है। खेती प्यासी है, उद्योग प्यासा है। अस्पतालोंं, स्कूलों और छात्रावासों के नलके सूखे हैैं।

प्रधानमंत्री ने कड़वा सच बोला

प्रधानमंत्री जी ने जब कहा कि हमें बूंद-बूंद की किफायत करनी है तो मैं आनंदमय हो गया। पानी के बारे में पर्यावरणविद् बोलते हैं, पॉलिटिशियन-लोग नहीं, क्यों? क्योंकि यह विषय, यह चेतावनी, यह हिदायत लोकप्रिय नहीं। पानी कम हो गया है, यह एक गंभीर संदेश है। पानी का ध्यान से इस्तेमाल करें, यह एक कठिन सलाह है। उससे कोई वोट नहीं मिलने वाले, उससे कोई वाहवाही नहीं मिलने वाली, लेकिन प्रधानमंत्री का फर्ज बनता है कि कड़वे सच बोलें। हमारे प्रधानमंत्री जी ने मन की बात में वह कड़वा सच बोला। मैं प्रभावित हूं, आनंदित हूं। क्या इस संदेश को देश के उद्योगपति और शहरी अमीर सुनेंगे? आवश्यक है कि वे इसे औरों से पहले और उनसे ज्यादा ध्यान से सुनें, क्योंकि उद्योगपति और शहरी अमीर ही पानी का सबसे भारी उपयोग करते हैं। अगर ये सब प्रधानमंत्री के आह्वान को सुनें तो क्या बात होगी। वे जरा सोचें, समझें और अपने मुनाफे में कुछ नियंत्रण बरतें।

राजनीति में संयम जरूरी

तीसरा: मैं आकाश विजयवर्गीय-कांड के बारे में कुछ नहीं कहूंगा। बहुतों ने बहुत कुछ कह दिया है। मैं सिर्फ प्रधानमंत्री जी के बयान के बारे में इतना कहना चाहूंगा कि उन्होंने जो कहा है, वह सराहनीय ही नहीं, अनुकरणीय है। राजनीति में संयम बोली में, आचार में जरूरी है। वह नहीं तो राज कहां, नीति कहां? और अगर संयम, आत्म-संयम, आत्म-नियंत्रण, आत्म-अनुशासन का उदाहरण हमारे राजनेता नहीं देते हैं तो हमारा राजनीतिक भविष्य समझिए खत्म। इतना ही नहीं, हमारी संस्कृति खतरे में होगी। अफसोस इधर के कई सालों से हमारे नेतागण यह नहीं देते आए हैं। उदाहरण कम नहीं, उदाहरण किसी एक दल या विचारधारा में सीमित नहीं, जो कि बतलाएंगे कि राजनीतिक बयानों और बर्ताव का स्तर कितना गिर चुका है।

आकाश विजयवर्गीय को सबक

गत चुनाव में बहुत कुछ सुनने को आया, जिससे कान लाल हो जाते रहे, लेकिन प्रधानमंत्री जी ने आकाश विजयवर्गीय कांड के प्रसंग में जो सलाह दी है उसको पढ़-सुनकर दिल आनंदित हो गया। उन्हें धन्यवाद देता हूं, किंतु...क्या सियासी लोगों के साथ समाज को भी इस हिदायत की जरूरत नहीं? लिंचिंग शब्द अंग्रेजी का है, अमेरिका से आया हुआ, लेकिन उसका अर्थ आज हम सब जानते हैं। आकाश को दिया हुआ अत्यावश्यक सबक उन उन्मादियों को भी मिलना चाहिए, जो नफरत से उन पर वार करते हैं, जिनकी पहचान से उनको घृणा है। सच्चे पाठ की पूर्ति तभी होती है जब सारे दोषी उसके सहपाठी बनते हैं।

कांग्रेस अध्यक्षता से मुक्त होना जरूरी था राहुल गांधी के लिए

चौथा: पद-त्याग हमेशा एक ऊंची बात मानी गई है। उसमें नैतिकता निहित है, नेकी सम्मिलित है। कांग्रेस अध्यक्षता से मुक्त होना बिल्कुल जरूरी था राहुल गांधी के लिए। जवाबदेही करके भी कळ्छ होता है, यह हमारी राज-प्रणाली में लाल बहादुर शास्त्री ने सबसे पहले हमें दिखाया, जब वह रेल मंत्री थे। तमिलनाडु के अरियालुरु में रेल दुर्घटना के बाद उन्होंने एक क्षण भी सोचे बिना इस्तीफा दे दिया। माफी और इस्तीफा बहन-भाई हैं।

राहुल गांधी ने उत्तम उदाहरण दिया

राहुल गांधी ने अपने निर्णय पर डटे रहकर एक उत्तम उदाहरण दिया है। मैं आनंदित हूं, आभारी हूं। चुनाव में कांग्रेस की व्यापक पराजय का जिम्मा कांग्रेस के प्रादेशिक नेताओं से मांगना तब ही हो सकता है जब कांग्रेस अध्यक्ष स्वयं वैसा ही करें, लेकिन यह त्याग अपने लक्ष्य पर तभी पहुंचेगा जब अगला कांग्रेस अध्यक्ष एक ऐसा इंसान हो जो अपने बलबूते पर खड़ा या खड़ी हो, जो नेहरू-गांधी परिवार के इशारों पर न निर्भर हो, जो हार और दुर्भाग्य की कोख से महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, सरदार पटेल और मौलाना आजाद की कांग्रेस को पुनर्जन्म दे और जो बाबासाहेब आंबेडकर, राजाजी, पेरियार, नेताजी, शहीद भगत सिंह, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव और डॉ. लोहिया जैसे गैर कांग्रेसी नेताओं से ऊर्जा पाए। तभी राहुल गांधी का त्याग कांग्रेस और देश का सौभाग्य बनेगा।

( वर्तमान में अध्यापनरत लेखक पूर्व राजनयिक एवं पूर्व राज्यपाल हैं )