नई दिल्ली [राजीव सचान]। चुनाव नतीजों के बाद भी कर्नाटक किसी नतीजे पर पहुंचता नहीं दिखा। फिलहाल किसी के लिए भी यह कठिन है कि कर्नाटक में राजनीतिक अस्थिरता का ऊंट किस करवट बैठेगा। पता नहीं कर्नाटक को राजनीतिक अस्थिरता से कब मुक्ति मिलेगी और वह स्थाई होगी या अस्थाई, लेकिन यह गनीमत है कि इस राज्य के बाद जिन तीन बड़े राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुछ माह बाद चुनाव होने हैं वहां त्रिशंकु विधानसभा के आसार इसलिए कहीं कम हैं, क्योंकि इन राज्यों में कोई ऐसा ताकतवर क्षेत्रीय राजनीतिक दल नहीं है जो कर्नाटक के जनता दल-एस की तरह किंग मेकर होने का दावा करे। इस वर्ष के अंत तक राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में चुनाव होते ही लोकसभा चुनाव की तैयारी और तेज हो जाएगी। लोकसभा चुनाव होने के बाद कुछ और राज्यों के विधानसभा चुनावों की तैयारी होने लगेगी। विधानसभाओं और लोकसभा के आगामी चुनावों के पहले कई उपचुनाव भी हो सकते हैं-ठीक वैसे ही जैसे कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश और बिहार में और उसके पहले राजस्थान में हुए थे।

कर्नाटक के चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश में कैराना, महाराष्ट्र में भंडारा-गोदिया एवं पालघर और नगालैंड की लोकसभा सीटों के उपचुनाव होने हैं। इन चार लोकसभा सीटों के अलावा नौ राज्यों में विधानसभा की दस सीटों के भी उपचुनाव होने जा रहे हैं। कई राज्यों में इन्हें सेमीफाइनल कहा जा रहा हो तो हैरत नहीं, क्योंकि हर चुनाव राजनीतिक दलों के लिए परीक्षा की घड़ी होता है। केवल विधानसभाओं और लोकसभा अथवा उनके उपचुनाव ही राजनीतिक दलों की परीक्षा नहीं लेते। स्थानीय निकायों और पंचायतों के चुनाव भी राजनीतिक दलों की परीक्षा लेते हैं। इन चुनावों को राजनीतिक दल किस तरह अहमियत देते हैं, इसकी गवाही पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव दे रहे हैं। पंचायत चुनाव जीतने को तृणमूल कांग्रेस ने इस कदर प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया कि उच्च न्यायालय की तमाम सख्ती के बावजूद मतदान के दौरान जमकर हिंसा हुई। इस रक्तरंजित हिंसा ने यही बताया कि राजनीतिक दलों के लिए हर स्तर के चुनाव जीवन-मरण का प्रश्न बन जाते हैं। चूंकि दलों की प्रतिष्ठा का निर्धारण चुनावों में हार-जीत से होता है इसलिए वे कोई कोर कसर नहीं उठा रखते। यह तब है जब स्थानीय निकायों एवं पंचायतों के चुनावों के साथ-साथ कई बार विधानसभा और लोकसभा के उपचुनाव राष्ट्रीय राजनीति पर नगण्य प्रभाव डालते हैं।

किस्म-किस्म के चुनाव राजनीतिक दलों को केवल सिर के बल ही नहीं खड़ा करते, बल्कि वे राजनीतिक माहौल को दूषित भी करते हैं। जब ऐसा होता है तो सामाजिक माहौल भी किसी न किसी स्तर पर प्रभावित होता है। आखिर यह किसी से छिपा नहीं कि कर्नाटक में चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस ने उत्तर बनाम दक्षिण का विभाजनकारी सवाल खड़ा करने के साथ ही लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक समाज का दर्जा देने में संकोच नहीं किया। हालांकि इसका उसे कोई लाभ नहीं मिला, लेकिन इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि आगे अन्य कोई राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए ऐसी विभाजनकारी राजनीति नहीं करेगा। इस मामले में यह ध्यान रहे कि गुजरात चुनावों के दौरान भाजपा ने भी पाकिस्तान को कथित तौर पर सक्रिय होते देखा था। इसके

चलते संसद में कई दिन तक हंगामा भी हुआ था। यह सही है कि लोकतंत्र में चुनाव एक उत्सव की तरह होते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि ऐसे उत्सव हर दो-चार माह में होते रहें। चूंकि चुनाव राजनीतिक दलों के बीच तनातनी बढ़ा देते हैं इसलिए लोकतंत्र के उत्सव रूपी चुनावों में कड़वाहट भी देखने को मिलती है। इस कड़वाहट को रोकने का कोई उपाय नहीं, लेकिन बार-बार होने वाले चुनावों से अवश्य बचा जा सकता है।

मुश्किल यह है कि जब भी विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने का सुझाव सामने आता है तो यही माना जाता है कि सुझाव देने वाला राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए ऐसा कर रहा है। इस पर हैरत नहीं कि भाजपा की ओर से विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने की जरूरत जताए जाने के जवाब में अधिकतर विपक्षी दलों और खासकर क्षेत्रीय दलों का यही कहना है कि ऐसा हुआ तो उन्हें घाटा होगा, क्योंकि विधानसभा चुनावों के मुद्दे अलग होते हैं और लोकसभा चुनावों के अलग। यह एक हद तक सही है-ठीक वैसे ही जैसे यह कि कई बार राष्ट्रीय मसले क्षेत्रीय मसलों को ढक लेते हैं। इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि हर चार-छह माह में विधानसभाओं के चुनाव कराने का सिलसिला कायम रखने से लोकतंत्र को बल मिल रहा है। सच्चाई यह है कि बार-बार के चुनाव लोकतंत्र की अति का सूचक हैं और हर चीज की अति बुरी ही होती है। बार-बार चुनाव होने से केवल संसाधनों की ही बर्बादी नहीं होती, आचार संहिता के चलते शासन-प्रशासन के कामों में अड़ंगा भी लगता है। 

ससे भी चिंताजनक यह है कि पक्ष-विपक्ष के राजनीतिक दलों के बीच तनातनी बढ़ती है और उनकी प्राथमिकताएं भी बदलती हैं। जहां सत्तारूढ़ दल अपने हर छोटे-बड़े फैसले आगामी चुनाव को ध्यान में रखकर करने लगते हैं वहीं विपक्षी दल हर छोटे-छोटे से मसले को राष्ट्रीय मसला बनाने की कोशिश में रहते हैं। अगर विधानसभा चुनाव करीब हों तो कई बार संसद का चलना भी मुश्किल हो जाता है। राजनीतिक दल चाहें तो बार-बार के चुनाव से खुद को और साथ ही देश को भी आसानी से मुक्त कर सकते हैं। यदि क्षेत्रीय दलों को यह लगता है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने से राष्ट्रीय दल फायदे में और वे घाटे में रहेंगे तो फिर वे ऐसे किसी उपाय पर सहमत हो सकते हैं जिसमें लोकसभा चुनाव होने के दो या तीन साल बाद समस्त विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हो जाएं। लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ेगा, लेकिन क्या यह कोई ऐसा काम है जिसे करना दुष्कर हो? आखिर 1952 से लेकर 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे। नि:संदेह तब क्षेत्रीय दलों का बोलबाला नहीं था और एक मात्र राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस ही थी, लेकिन अगर पहली जैसी व्यवस्था को अपनाना क्षेत्रीय दलों के हित में नहीं तो लोकसभा चुनाव के बाद एक खास अवधि में सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने में उन्हें कठिनाई नहीं होनी चाहिए। अगर ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण हो सके जो तमाम लाभ मिलेंगे उनमें एक यह भी होगा कि राजनीतिक दल कहीं ज्यादा परिपक्व और जिम्मेदार भी बनेंगे।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)