अरविंद कुमार सिंह। केरल सरकार ने एक नवंबर से खाने पीने की 21 वस्तुओं का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करके देश भर में एक नई हलचल पैदा कर दी है। केरल के इतिहास में एक नवंबर खास है, क्योंकि 1956 में इसी दिन यह नया राज्य बना था। जिन 21 वस्तुओं की केरल सरकार ने एमएसपी तय की है, उसमें से 16 सब्जियां हैं। पहली नजर में तो ऐसा दिख रहा है कि काफी तैयारी के साथ बनी इस योजना के तहत एक हजार स्टोर भी खोले जाने हैं। केरल सरकार के इस फैसले के बाद कई राज्य हरकत में आए हैं और कई किसान संगठन ऐसी योजना की मांग कर रहे हैं।

स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा : झारखंड और मध्य प्रदेश सरकार भी इस दिशा में आगे बढ़ी है। हाल ही में भारतीय रेलवे और कृषि मंत्रलय की साझा पहल से किसान रेल भी आरंभ की गई है जो कई इलाकों में फल और सब्जी उत्पादक किसानों को वाजिब दाम दिलाने में मददगार होगी। हालांकि कहीं भी फसल बेचने की आजादी से बेहतर यह योजना है जो स्थानीय स्तर पर किसानों और उपभोक्ताओं को वाजिब दाम की गारंटी देगी। दूसरी ओर ग्राहकों के लिए भी ज्यादा फायदेमंद इसलिए है कि लोगों को ताजा स्थानीय बेहतरीन सब्जियां मिल सकेंगी। आत्मनिर्भर भारत के साथ स्थानीय उत्पादों को भी इससे बढ़ावा मिलेगा।

बिचौलियों के दुष्चक्र से बाहर होगा किसान : इस नए कदम से बेशक उन किसानों को राहत मिलेगी, जो बिचौलियों के दुष्चक्र में उलङो थे। हालांकि इस योजना पर तत्काल टिप्पणी जल्दबाजी होगी, क्योंकि इसका क्रियान्वयन कैसा होता है, वही इसकी दिशा तय करेगा। इस योजना से प्रति किलोग्राम केले का एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य 24 से 30 रुपये, खीरा और टमाटर का आठ आठ रुपये, गोभी का 11 रुपये, गाजर का 21 रुपये, आलू का 20 रुपये, बीन्स का 28 रुपये, चुकंदर का 21 रुपये, लहसुन का 139 रुपये, लौकी और करेला का 30-30 रुपये और भिंडी का 20 रुपये निर्धारित किया गया है। बताया गया है कि इन सब्जियों की यह एमएसपी इनकी लागत से 20 से 50 प्रतिशत तक अधिक है।

इसमें अच्छी बात यह है कि यदि बाजार में इस दाम से कीमत कम होगी तो सरकार उपज एमएसपी पर खरीदेगी। इस संबंध में उल्लेखनीय है कि केरल में बीते पांच साल से कम समय में सब्जी उत्पादन दो गुना से अधिक बढ़ कर करीब 15 लाख टन तक पहुंचने वाला है। लेकिन फिर भी किसानों को शोषण होता है। लिहाजा सरकार ने दीर्घकालिक रणनीति बनाई है, जिसमें फसल बीमा के बाद किसानों को कृषि विभाग के पोर्टल पर पंजीकरण कराना होगा। आगे इस योजना के तहत कोल्ड स्टोरेज से लेकर रेफ्रिजरेटेड वैन जैसी सुविधाओं की भी परिकल्पना है।

कृषि संबंधी स्थायी समिति कर चुकी है मांग : हालांकि केरल सरकार की यह पहल या विचार अनूठा नहीं है। कई बार संसद में इस पर चर्चा हो चुकी है और कृषि संबंधी स्थायी समिति फलों और सब्जियों को एमएसपी के दायरे में लाने की मांग कर चुकी है। किसान संगठन तो काफी वर्षो से आलू, प्याज, टमाटर और लहसुन आदि को इसके दायरे में लाने की मांग करते रहे हैं। छह अप्रैल, 2018 को राज्यसभा में इन उत्पादों के एमएसपी की मांग उठी थी, लेकिन कृषि राज्यमंत्री ने इसे मामने से इन्कार कर दिया था। हालांकि उनका कहना था कि बंपर फसल और दाम बहुत नीचे चले जाने पर राज्यों के अनुरोध पर बाजार हस्तक्षेप योजना तो है ही। जबकि हकीकत यह है कि यह योजना और कुछ दूसरी योजनाएं चंद छोटे राज्यों को छोड़ कर विफल ही रही हैं।

मध्य प्रदेश की भावांतर योजना : वर्ष 2017 में मध्य प्रदेश सरकार में सब्जियों का समर्थन मूल्य तय करने की बात चली थी। लेकिन यह जमीन पर नहीं उतरी। उस दौरान लहसुन का भाव बहुत नीते चला गया तो शिवराज सरकार ने भावांतर योजना के तहत लहसुन का दाम 3,200 रुपये प्रति क्विंटल तय किया। लेकिन किसी स्थायी तंत्र के अभाव में फल और सब्जी किसानों को ठोस राहत आगे मिल नहीं सकी। अब केरल सरकार के फैसले के बाद झारखंड सरकार भी ऐसी योजना चलाने का मन बना रही है। कई राज्यों में इस संबंध में विवरण मंगाया जा रहा है। झारखंड के कृषि सचिव अबू बकर सिद्दीकी ने कहा है कि सरकार सब्जियों की एमएसपी तय करने की दिशा में गंभीर है, लेकिन इसके लिए काफी तैयारी और बड़े पैमाने पर कोल्ड स्टोरेज की आवश्यकता है। ऐसे में किसानों से उपज खरीद में सरकार किसी एजेंसी की मदद ले सकती है। मध्य प्रदेश सरकार भी सब्जियों को समर्थन मूल्य पर खरीदने की तैयारी कर रही है। वहां के कृषि मंत्री कमल पटेल ने इस बात की पुष्टि की है। वहीं पंजाब में भी किसान संगठन राज्य सरकार पर इसके लिए दबाव बना रहे हैं।

इन दिनों आलू और प्याज देश के कई हिस्सों में काफी चर्चा में है। अन्य वर्षो की तुलना में इस समय इनकी कीमत बहुत अधिक है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि सबसे अधिक आलू उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश में कोल्ड स्टोरेज में आलू की कमी नहीं है। सरकार ने जब तक कुछ कदम उठाया, तब तक बिचौलियों ने काफी वारा न्यारा कर दिया था। जब उत्पादन कम होता है तो किसानों को मंडियों में सब्जियों के थोड़े बेहतर भाव मिल जाते हैं, लेकिन बंपर उपज में टमाटर, आलू समेत अन्य सब्जियों के भाव एकदम गिर जाते हैं। चूंकि फूड प्रोसेसिंग का तंत्र अभी भी कमजोर है और भंडारण या कोल्ड स्टोरेज अपेक्षित नहीं है, इस कारण सालाना एक लाख करोड़ रुपये की फल सब्जियां और अनाज नष्ट हो जाता है।

उदारीकरण के बाद देश में बिचौलिया तंत्र मजबूत हुआ है। जो आलू बाजार में उपभोक्ता 50 से 60 रुपये में एक किलो खरीद रहा होता है, जरूरी नहीं कि उसका दाम किसान को पांच रुपये भी मिला हो। किसान अपना उत्पाद बाजार में थोक मूल्य पर बेचते हैं, लेकिन अपनी जरूरत का सामान खुदरा में अधिक दाम पर खरीदते हैं। दोनों सौदों में वे घाटा उठाते हैं। किसान बाजार जाए या मंडी, उसे वाजिब दाम की गारंटी नहीं। यह उस देश की दशा है जहां के किसानों ने कम उत्पादकता के बावजूद चीन के बाद इसे सबसे बड़ा फल व सब्जी उत्पादक देश बना दिया है।

प्रोसेसिंग उद्योग से किसान को फायदा : चीन के बाद भारत में सर्वाधिक सब्जियां पैदा होने के बावजूद हमारे यहां उत्पादित करीब 40 प्रतिशत ताजा खाद्य पदार्थ ग्राहकों तक पहुंचने से पहले ही खराब हो जाते हैं। कई बार अत्यधिक फसल होने पर उसे रखने के लिए हमारे पास पर्याप्त इंतजाम नहीं होते। उल्लेखनीय है कि खाद्य प्रसंस्करण के जरिये फलों एवं सब्जियों को अधिक दिनों तक खराब होने से बचाया जा सकता है, लेकिन देश में इसकी सुलभता बहुत सीमित है। देश में कुल उत्पादित फलों एवं सब्जियों का महज दो प्रतिशत ही प्रसंस्कृत हो पाते हैं, जबकि अमेरिका में करीब 60 प्रतिशत सब्जियों को प्रसंस्कृत किया जाता है। हमें भी इस बारे में ध्यान देना चाहिए और इस उद्योग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

हाल के वर्षो में श्रम के साथ खेती की लागत हर राज्य में काफी बढ़ी है। इस नाते सरकार किसानों की आय वर्ष 2022 तक दोगुना करने के लिए कई योजनाएं चला रही है। फलों और सब्जियों के साथ जीरो बजट और जैविक खेती पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। लेकिन हर जगह यह आम बात दिखती है कि किसानों की फसल तैयार होने के समय उसके दाम घटने लगते हैं। लिहाजा देश भर में जीवनयापन के लिए सबसे जरूरी उन कृषि उत्पादों के मूल्य निर्धारण की जरूरत है जिसकी जरूरत हर आम और खास को पड़ती है।

अगर किसानों को किसी उत्पाद की बिक्री से लागत भी नहीं निकलती तो उसका मोहभंग होता है। कई बार यह सुर्खी बनी है कि मंडियों में हताश किसान आलू, टमाटर, प्याज आदि फेंक कर घर लौट गए। आलू जैसी खाद्य सुरक्षा से जुड़ी अहम फसल प्रत्येक दो साल पर फेंकी जाती है। जनवरी-फरवरी में आलू खोदाई के समय कीमतें लुढ़कने लगती हैं। पांच माह बाद ही दोगुनी हो जाती हैं।

इस बात में कोई संदेह नहीं कि किसान हमारे अर्थव्यवस्था की रीढ़ और अन्नदाता हैं। कोरोना संकट ने पूरी दुनिया में उनकी अहमियत को साबित किया है। उनकी रक्षा के लिए सरकार ने दो दर्जन फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से संरक्षण दिया है, लेकिन इस पर खरीद चंद राज्यों और अधिकतर गेहूं और चावल तक सीमित है। भारत सरकार ने वित्तीय वर्ष 1985-86 में बाकायदा कृषि मूल्य नीति बनाई, जिसमें कहा गया कि किसानों से उपज की खरीद सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है। मोदी सरकार ने एमएसपी के संदर्भ में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें जमीन पर उतारने के साथ हाल के कृषि अधिनियमों को लागू करते समय कई कदमों का दावा किया है। लेकिन असंरक्षित फसलों और फल सब्जियों की दिशा में कुछ नए कदमों की दरकार है। संसद की कृषि संबंधी स्थायी समिति ने वर्ष 2005 में सिफारिश की थी कि प्रमुख नकदी फसलों के साथ हर राज्य की एक-दो प्रमुख फसलों को इसमें शामिल किया जाना चाहिए, लेकिन सरकार इस पर गंभीर नहीं रही।

यह कड़वी हकीकत है कि भारत में उत्पादित कुल फल-सब्जियों में से महज 20 से 25 फीसद का कारोबार मंडियों से होता है। लेकिन बाजार की कीमतें यहीं से तय होती हैं। भारत में कृषि उपज कारोबार में करीब 20 लाख थोक कारोबारी और 50 लाख से अधिक खुदरा व्यापारी लगे हुए हैं। वे पूरे देश के किसानों पर भारी हैं। देश के करीब 14 करोड़ कृषि भूमि धारकों में से 12 करोड़ छोटे और मझोले किसान हैं। इनके संरक्षण के लिए फल सब्जियों को एमएसपी से संरक्षण की दरकार है। इससे उनका जीवन बेहतर होगा। दीर्घकाल में इसका एक सकारात्मक असर यह भी सामने आ सकता है कि उदारीकरण के बाद से जिस प्रकार देश भर में किसानों का खेती से धीरे धीरे मोहभंग होता जा रहा है, वह फिर से एक नई दिशा प्राप्त कर सकता है। इससे शहरों और महानगरों पर बढ़ती जनसंख्या का दबाव भी कम होगा।

[वरिष्ठ पत्रकार]