[ श्रीप्रकाश मणि त्रिपाठी ]: प्रगति पथ पर निरंतरता और परिवर्तन की सदैव आवश्यकता होती है। अपने शासन के पहले चरण में मोदी सरकार ने उन योजनाओं को प्रमुखता दी, जिनका संबंध गरीब तबके को खुशहाल बनाने से था जैसे-शौचालय, रसोई गैस, जन-धन खाता, किसान सम्मान निधि आदि। इनके साथ ही राष्ट्र के उत्थान और गौरव को र्आिथक योजनाओं के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय फलक पर भारत को महाशक्तियों के समक्ष बराबरी में खड़ा करने तथा मेक इन इंडिया की संकल्पना को विस्तार देने का कार्य किया गया। अब एक महत्वपूर्ण कदम भारतीय शिक्षा मूल्यों के संदर्भ को शिक्षा-प्रणाली के साथ संबद्ध करने का किया जा रहा है। नई शिक्षा नीति में कौशल विकास, भाषा समन्वय और अंतरराष्ट्रीय शैक्षिक आदान-प्रदान के साथ-साथ शोध की ऐसी परियोजनाओं को महत्व दिया गया है, जो राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दे सकें।

बहुभाषिकता और बहुसांस्कृतिकता को प्रतिबिंबित करने वाली नई शिक्षा नीति 

शिक्षा में भारतीय चिंतन परंपरा, बहुभाषिकता और बहुसांस्कृतिकता को प्रतिबिंबित करने वाली नई शिक्षा नीति का प्रादुर्भाव एक लंबे अंतराल के बाद हुआ है। किसी भी सशक्त राष्ट्र के निर्माण में मूल्यों एवं आचरण की शिक्षा की विशेष भूमिका और आवश्यकता होती है। इसीलिए नई शिक्षा नीति में भारतीय मूल्यों को समाविष्ट करने के साथ ही इसे सार्थक ढंग से पाठ्यक्रमों और पाठचर्या के साथ जोड़ने की प्रविधियां विकसित की गई हैं। इसके जरिये भारतीय शिक्षा को नवीन और भारत के अनुरूप बनाने के लिए एक नीति बनाई गई है। इसके क्रियान्वयन के लिए नियत घटकों में एक बिंदु भाषा संगम का है, जिसमें विद्यालयों और शैक्षिक संस्थानों से आग्रह किया गया है कि वे ऐसे कार्यक्रमों का निर्माण करें, जिनसे भारत की संविधान स्वीकृत 22 भाषाओं को स्थान और गौरव मिल सके। इसका एकमात्र लक्ष्य शिक्षा क्षेत्र में विभिन्न संस्कृतियों के लोगों के बीच संपर्क के अवसर उत्पन्न करने के साथ ही मातृभाषाओं को उनका उचित स्थान देना है।

भारत की श्रेष्ठता उसकी भाषाओं और संस्कृतियों में निहित है

भारत की श्रेष्ठता उसकी भाषाओं और संस्कृतियों में निहित है। इतना ही नहीं, इन सब का समन्वय ही भारत को सक्षम बनाता है। इसे सिद्ध करने के लिए शिक्षा मंत्रालय के निर्देश पर राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद ने संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित सभी 22 भाषाओं की बोलचाल में प्रचलित सौ वाक्यों को छोटे-छोटे संवादों में समेट कर संकलन तैयार किया है। इस संकलन का निर्माण प्रत्येक स्तर की कक्षा के विद्र्यािथयों को ध्यान में रखकर किया गया है, ताकि वे एक बहुभाषिक राष्ट्र में रहते हुए यदि चाहें तो अपने निकट अथवा दूर की प्रांतीय भाषाओं का सामान्य परिचय प्राप्त कर सकते हैं। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय का हिंदीतर भाषा-भाषियों के लिए विकसित पाठ्यक्रम इसी प्रकृति का है, जिससे वे सामान्य अवसरों एवं स्थलों पर हिंदी में अपना काम चला सकें और हिंदी भाषा की संस्कृति से परिचित हो सकें।

संस्कृत और साहित्य के अभाव में भारतीय शिक्षा पूरी नहीं की जा सकती

भारतीय शिक्षा में मूल्यों के समाहन की बात संस्कृत और साहित्य की शिक्षा के अभाव में पूरी नहीं की जा सकती। संस्कृत भारतीय दर्शन, चिंतन, मिथकीय संदर्भ और जीवन मूल्यों का कोश है। संस्कृत का ललित साहित्य भी भारतीय दृष्टि का पोषक है और उसका काव्य कौशल तथा व्याकरण संदर्भ अद्भुत है। इस दृष्टि से उच्च शिक्षा के स्तर पर संस्कृत के शिक्षण को बढ़ावा देने के लिए संस्कृत के तीन डीम्ड विश्वविद्यालयों को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया है। भारत सरकार की अनेक लाभकारी योजनाएं भारत के आदिवासी समूहों को भी ध्यान में रखकर बनाई गई हैं। इसके लिए भारत में कई जनजातीय विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई है।

आंध्र प्रदेश जनजातीय विवि ने आदिवासियों को उच्च शिक्षा के अवसर प्रदान किए

अगस्त 2019 में आंध्र प्रदेश जनजातीय विश्वविद्यालय स्थापित किया गया। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में जनजातीय विश्वविद्यालयों की स्थापना ने आदिवासी समूहों को केवल उच्च शिक्षा के अवसर ही प्रदान नहीं किए हैं, बल्कि उन्हें अन्य सांस्कृतिक समूहों के साथ मिलने-जुलने, जानने-समझने और संवाद करने का अवसर भी प्रदान किया है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय ने इस दिशा में अनुकरणीय कार्य किया है। जनजातीय भाषाओं, संस्कृति, कला और कौशल को संरक्षित करने के लिए विश्वविद्यालय का लुप्तप्राय भाषा केंद्र भारत के सात राज्यों के जनजातीय समाजों पर कार्य कर रहा है। जनजातीय अध्ययन विभाग स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा के साथ आदिवासी जीवन के विभिन्न पक्षों पर शोध कार्य करा रहा है। मानविकी और विज्ञान के कई विभाग आदिवासी केंद्रित विषयों पर परियोजनाएं और विभागीय शोध कर रहे हैं। यह एक प्रकार से नई शिक्षा नीति को साकार रूप देने का प्रयत्न है।

भारतीय भाषाएं सीखने के अवसर ने प्रांतों के बीच आपसी समझ को बढ़ाने का सराहनीय कार्य किया

विभिन्न प्रांतों के बीच आत्मीयता स्थापित करने का भी कार्य पिछले एक वर्ष में किया गया है। विभिन्न प्रांतों के खान-पान और पाकविधि, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, पर्यटन, युवा उत्सव के साथ ही भिन्न भाषाओं की पुस्तकों के अनुवाद, भिन्न भारतीय भाषाएं सीखने के अवसर ने भिन्न प्रांतों के बीच आपसी समझ को बढ़ाने का सराहनीय कार्य किया है। ऐसा करने से भारत की स्थानीय संस्कृति का मान बढ़ा है। इससे अनेक व्यंजन और उन्हें तैयार करने की विशिष्ट विधि का पारस्परिक बोध संभव हुआ है। इसी तरह खेल-कूद में भी स्थानीय खेलों जैसे खो-खो, कबड्डी के साथ-साथ किल्लो, सिंघोरी, कोकड़ा पाट, गुलहड़ी, इत्ता-इत्ता पानी या रेहची, आमाडांडी, पचगोट्टा, अटकन-चटकन, डंडा-डोहरी आदि की ओर भी अब लोगों का ध्यान जाने लगा है। ये सभी खेल थोड़ा सा रूप बदलकर विभिन्न प्रांतों के आदिवासी और क्षेत्रीय समुदायों में प्रचलित हैं। भारत की जमीनी एकता का यह एक बहुत ही प्रेरक पक्ष है। इसमें संदेह नहीं कि इस प्रकार की योजनाओं को, जिनकी ओर दशकों से ध्यान नहीं दिया गया, साकार करने में समय लगता है, परंतु जिस योजनाबद्ध ढंग से तथा त्वरित गति से पूर्ण कटिबद्ध होकर इन पर कार्य किया जा रहा है, उसका लाभ मिलने लगा है।

( लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक के कुलपति हैं )