नई दिल्ली [ पंकज चतुर्वेदी ]। हाल में प्रधानमंत्री ने मन की बात रेडियो कार्यक्रम में गोबर के सदुपयोग की अपील की। उन्होंने गोबरधन (गल्वानाइजिंग आर्गेनिक बायो एग्रो रिर्सोस फंड स्कीम)योजना की भी चर्चा करते हुए कहा कि मवेशियों के गोबर से बायो गैस और जैविक खाद बनाई जाए। उन्होंने लोगों से कचरे और गोबर को आय का स्नोत बनाने की अपील की। इस योजना की घोषणा इसी आम बजट में की गई है। इसके तहत गोबर और खेतों के ठोस अपशिष्ट पदार्थों को कम्पोस्ट, बायो-गैस और बायो-सीएनजी में परिवर्तित किया जाएगा।

खेती को लाभ का व्यवसाय बनाने में सक्षम

असल में गोबर न केवल ग्रामीण जीवन की तकदीर बदल सकता है, बल्कि खेती को लाभ का व्यवसाय बनाने और ग्रामीण जीवन को प्रदूषण मुक्त बनाने में भी बड़ी भूमिका निभा सकता है। खेतों में गोबर डाला जाए और मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए केंचुओं का इस्तेमाल किया जाए तो हारी-थकी धरती को नया जीवन मिल सकता है। आधुनिक खेती के तहत रासायनिक खाद और दवाओं के इस्तेमाल से बांझ हो रही जमीन को राहत देने के लिए फिर से पलट कर देखना होगा।

सोने को चूल्हे में जलाया जा रहा है

कुछ विदेशी किसानों ने भारत की सदियों पुरानी पारंपरिक कृषि प्रणाली को अपनाकर चमत्कारी नतीजे प्राप्त किए हैं। जब यह कहा जाता है कि भारत सोने की चिड़िया था तब हम यह अनुमान लगाते हैं कि हमारे देश में पीले रंग की धातु सोने का अंबार रहा होगा। वास्तव में हमारे खेत और हमारे मवेशी हमारे लिए सोने से अधिक कीमती थे। इसी रूप में सोना अभी भी यहां के चप्पे-चप्पे में बिखरा हुआ है। दुर्भाग्य है कि उसे या तो चूल्हों में जलाया जा रहा है या फिर उसकी अनदेखी हो रही है। एक ओर ऐसा हो रहा है तो दूसरी ओर अन्नपूर्णा जननी धरा तथाकथित नई खेती के प्रयोगों से कराह रही है।

रासायनिक खाद से उपजे विकार अा रहे सामने

रासायनिक खाद से उपजे विकार अब तेजी से सामने आने लगे हैं। दक्षिणी राज्यों में सैंकड़ों किसानों की खुदकुशी करने के पीछे रासायनिक दवाओं की खलनायकी उजागर हो चुकी है। इस खेती से उपजा अनाज जहर हो रहा है। रासायनिक खाद डालने से एक दो साल तो खूब अच्छी फसल मिलती है, फिर जमीन बंजर होती जाती है। बेशकीमती मिट्टी की ऊपरी परत का एक इंच तैयार होने में दशकों लगते हैं जबकि खेती की आधुनिक प्रक्रिया के चलते यह परत 15-16 वर्ष में नष्ट हो जा रही है। रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल के कारण मिट्टी सूखी और बेजान हो जाती है। यही भूमि के क्षरण का मुख्य कारण है।

गोबर से बनी कंपोस्ट से मिट्टी नम रहती है 

वहीं गोबर से बनी कंपोस्ट या प्राकृतिक खाद से उपचारित भूमि की नमी की अवशोषण क्षमता पचास फीसद बढ़ जाती है। फलस्वरूप मिट्टी नम रहती है और उसका क्षरण भी रुकता है। कृत्रिम उर्वरक यानी रासायनिक खादें मिट्टी में मौजूद प्राकृतिक खनिज लवणों को नष्ट करती हैं। इसके कारण कुछ समय बाद जमीन में जरूरी खनिज लवणों की कमी आ जाती है। जैसे नाइट्रोजन के उपयोग से भूमि में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध पोटेशियम का तेजी से क्षरण होता है। इसकी कमी पूरी करने के लिए जब पोटाश प्रयोग में लाते हैं तो फसल में एस्कोरलिक एसिड (विटामिन सी) और केरोटिन की काफी कमी आ जाती है। इसी प्रकार सुपर फास्फेट के कारण मिट्टी में तांबा और जस्ता चुक जाता है। जस्ते की कमी के कारण शरीर की वृद्धि और लैंगिक विकास में कमी, घावों के भरने में अड़चन आदि रोग फैलते हैं। नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश उर्वरकों से संचित भूमि में उगाए गेहूं और मक्का में प्रोटीन की मात्रा 20 से 25 प्रतिशत कम होती है। रासायनिक दवाओं और खाद के कारण भूमिगत जल के दूषित होने की गंभीर समस्या भी खड़ी हो रही है।

एक टन यूरिया बनाने के लिए पांच टन कोयला फूंकना पड़ता है

अभी तक ऐसी कोई तकनीक विकसित नहीं हुई है जिससे भूजल को रासायनिक जहर से मुक्त किया जा सके। ध्यान रहे कि अब धरती पर जल संकट का एक मात्र निदान भूमिगत जल ही बचा है। न्यूजीलैंड एक विकसित देश है। यहां आबादी के बड़े हिस्से का जीवनयापन पशु पालन से होता है। इस देश में कृषि वैज्ञानिक पीटर प्राक्टर पिछले 30 वर्षों से जैविक खेती के विकास में लगे हैं। पीटर का कहना है कि रासानयिक खादों का प्रयोग पर्यावरणीय संकट पैदा कर रहा है। जैसे एक टन यूरिया बनाने के लिए पांच टन कोयला फूंकना पड़ता है।

भारत में हर साल 120 करोड़ टन गोबर मिलता है

कुछ साल पहले हालैंड की एक कंपनी ने भारत को गोबर निर्यात करने की योजना बनाई थी तो खासा बवाल मचा था, लेकिन यह दुर्भाग्य है कि इस बेशकीमती कार्बनिक पदार्थ की हमारे देश में कुल उपलब्धता आंकने के आज तक कोई प्रयास नहीं हुए। अनुमान है कि देश में कोई 13 करोड़ मवेशी हैं जिनसे हर साल 120 करोड़ टन गोबर मिलता है। इसमें से आधा उपलों के रूप में चूल्हों में जल जाता है। यह ग्रामीण उर्जा की कुल जरूरत का 10 फीसदी भी नहीं है। बहुत पहले राष्ट्रीय कृषि आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि गोबर को चूल्हे में जलाया जाना एक अपराध है। ऐसी और कई रिपोर्ट सरकारी बस्तों में बंधी होंगी, लेकिन इसके व्यावहारिक इस्तेमाल के तरीके गोबर गैस प्लांट की दुर्गति यथावत है। राष्ट्रीय कार्यक्रम के तहत निर्धारित लक्ष्य के 10 फीसदी प्लांट भी नहीं लगाए गए हैं। ऐसे कई प्लांट तो सरकारी सब्सिडी गटकने का माध्यम बन रहे हैं। ऊर्जा विशेषज्ञ मानते हैं कि हमारे देश में गोबर के जरिये 2000 मेगावाट ऊर्जा पैदा की जा सकती है। सनद रहे कि गोबर के उपले जलाने से बहुत कम गर्मी मिलती है। इस पर खाना बनाने में बहुत समय लगता है यानी गोबर को जलाने से बचना चाहिए।

यदि इसका इस्तेमाल खेतों में किया जाए तो अच्छा होगा। इससे एक तो महंगी रासायनिक खादों और दवाओं का खर्चा कम होगा, साथ ही जमीन की ताकत भी बनी रहेगी। सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि फसल रसायनहीन होगी। यदि गांव के कई लोग मिल कर गोबर गैस प्लांट लगा लें तो उसका उपयोग रसोई में अच्छी तरह होगा। देश के कई हिस्सों में ऐसे प्लांट सफलता से चल रहे हैं। ये प्लांट रसोई गैस सिलेंडर के मुकाबले काफी कम कीमत में खाना पकाने की गैस उपलब्ध करा रहे हैं। गोबर गैस प्लांट से निकला कचरा बेहतरीन खाद का काम करता है। दरअसल यही है कि वेस्ट से वेल्थ की अवधारणा। गोबर का सदुपयोग एक बार फिर हमारे देश को सोने की चिड़िया बना सकता है। जरूरत तो बस इस बात की है कि इसका उपयोग ठीक तरीके से किया जाए। अच्छा होगा कि सरकार गोबरधन योजना को साकार करने के लिए ठोस कदम उठाए। 

(लेखक पर्यावरण मामलों के विशेषज्ञ एवं स्तंभकार हैं)