[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: करीब पचास वर्ष पहले मैं बनारस से भुवनेश्वर अपने नए पद पर कार्य करने गया था। मेरा परिवार भी साथ था। वहां पहुंचने के सात-आठ दिन बाद आठ-नौ साल की बच्ची अपनी मां के साथ आई और मेरी डेढ़ साल की बेटी के साथ खेलने लगी। वह उड़िया बोलती थी। हम भाषा से अपरिचित थे। अध्यापक होने के नाते मैं उसकी मां से बेटी को स्कूल भेजने के लिए समझाने का प्रयास कर रहा था। तभी मैंने उस बच्ची को अपनी बेटी के लिए अभद्र पिल्ला कहते सुना-एक मीठी सी झिड़की के रूप में। अभद्र शब्द का वह उपयोग मुझे अत्यंत सार्थक लगा।

सीखने के अवसर हर तरफ बिखरे हुए हैं, अपने आंख-कान खुले रखो

उत्तर प्रदेश में अभद्र शब्द का प्रयोग भद्र लोगों की बड़ी बैठकों में भले ही होता हो, सामान्य पढ़े-लिखे लोगों के बीच नहीं होता। मैंने इसके बाद कई विद्वानों से इस पर चर्चा की। भाषा की पवित्रता को जानने का प्रयास किया। अपने विद्यार्थियों को भाषा की शालीनता और पवित्रता का ध्यान रखने के लिए प्रेरित करता रहा। उड़िया में जिस शालीनता से अनपढ़ व्यक्ति भी आज्ञा शब्द का उपयोग करता है वह विद्या ददाति विनयम का साकार रूप स्पष्ट करता है। अनेक बार उस बच्ची को याद करता हूं जिसने मुझे एक ऐसा पाठ पढ़ा दिया जो मैं कभी भूला नहीं। मैं विद्यार्थियों को इस उदाहरण के द्वारा यह समझाने का प्रयास करता कि सीखने के अवसर हर तरफ बिखरे हुए हैं, अपने आंख-कान खुले रखो।

भाषा की जो शालीनता भारत में है वह अपने में अद्भुत है

भाषा की जो शालीनता भारत में या यों कहें कि पूर्व की संस्कृति में है वह अपने में अद्भुत है। अन्यत्र ऐसा नहीं है। अनेक विकसित और महत्वपूर्ण देशों के सर्वोच्च शासक भी खुले आम ऐसे शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं जिनका उच्चारण भारत में लोग सपने में भी नहीं करना चाहेंगे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दिनों में मैंने देश के अनेक बड़े मनीषियों को सुना। उनमें स्वतंत्रता सेनानी और पक्ष-विपक्ष के महत्वपूर्ण नेतागण शामिल थे। कुछ नाम याद करता हूं-पंडित नेहरू, राम मनोहर लोहिया, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पुरुषोत्तम दास टंडन, कृष्ण मेनन, डॉ. राधाकृष्णन, आचार्य कृपलानी, जय प्रकाश नारायण, डॉ. संपूर्णानंद, केएम मुंशी आदि।

राजनीति, संविधान, प्रजातंत्र जैसे शब्दों का व्यावहारिक ज्ञान हमें अनेक बड़े मनीषियों से मिला

राजनीति, संविधान, प्रजातंत्र जैसे शब्दों का व्यावहारिक ज्ञान हमें सीधे इनसे ही मिलता था। सत्तापक्ष के नेताओं द्वारा वहां अपनी उपलब्धियां गिनाई जाती थीं तो विपक्ष उनकी धज्जियां उड़ाता था, लेकिन शालीनता के साथ। डॉ. राम मनोहर लोहिया की विद्वता और विश्लेषण क्षमता का निशाना बनते थे पंडित नेहरू।

पंडित नेहरू को सारा इलाहाबाद अपना मानता था  तो लोहिया को भविष्य की उम्मीद

आज के युवाओं को शायद यह समझना कठिन हो कि पंडित नेहरू को सारा इलाहाबाद अपना मानता था तो लोहिया को भविष्य की उम्मीद।

राजनीतिक में अभद्र भाषा का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा

आज पक्ष-विपक्ष के नेताओं के बीच पारस्परिक सम्मान और भाषाई शालीनता की अनुपस्थिति झकझोरती है। मुझे ही नहीं संभवत: अधिकांश लोगों की चिंता यही होगी कि भाषाई अशालीनता और अभद्रता का भारत की राजनीति में तेजी से सामान्यीकरण हो रहा है। आखिर इसे रोकने का कोई प्रयास क्यों नहीं किया जा रहा है? चूंकि इस दिशा में कोई कोशिश नहीं हो रही है इसलिए अभद्र भाषा का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। सोशल मीडिया में तो वह अपनी सारी हदें पार कर गया है। हदें पार करने का काम राजनीतिक लोग भी कर रहे हैं।

सभी को चिंता भारत की भावी पीढ़ियों की है

इस बारे में मैंने अनेक जानकारों से चर्चा की है। इनमें वे लोग भी हैं जिन्होंने पिछले 50-60 वर्षों के राजनीतिक परिवर्तन को गहराई से देखा है। सभी को चिंता भारत की भावी पीढ़ियों की है। पारस्परिक सम्मान और श्रद्धा में आई कमी भाषा में बहुधा दिखाई-सुनाई पड़ जाती है।

सबसे अधिक चर्चित वाक्य चौकीदार चोर है... में अब सरेंडर मोदी भी जोड़ दिया गया

हाल के समय का सबसे अधिक चर्चित वाक्य चौकीदार चोर है... माना जाता था, लेकिन अब उसमें सरेंडर मोदी भी जोड़ दिया गया। चौकीदार चोर है प्रधानमंत्री मोदी के लिए देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का नारा था। जिन दिनों यह नारा खूब प्रचारित किया जा रहा था उन्हीं दिनों मुझे फ्रांस जाने का अवसर मिला। वहां भी लोग जानना चाहते थे कि आखिर प्रधानमंत्री को इस तरह खुलेआम चोर क्यों कहा जा रहा है?

मनमोहन पर कभी तंज नहीं कसे अटल बिहारी, आडवाणी, जोशी जैसे अनुभवी नेताओं ने

मैंने उत्तर तो दिया मगर पीड़ा और अपमान के साथ। मुझे प्रतिक्रिया स्वरूप याद आया कि जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद पर आए तब विपक्ष में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे अनुभवी नेता थे। किसी ने नहीं कहा कि एक व्यक्ति द्वारा केवल अपनी पसंद के कारण किसी दूसरे को इतने महत्वपूर्ण पद पर बैठाना प्रजातंत्र तो नहीं। तकनीकी तौर पर कुछ भी कहा जाए, मनमोहन सिंह न देश की पसंद थे, न ही कांग्रेस पार्टी के। वह कांग्रेस अध्यक्ष की पसंद थे। उनके जैसा विद्वान व्यक्ति यह तो जानता ही होगा कि भारत का प्रधानमंत्री उसे बनना चाहिए जिसे जनता ने चुना हो।

मनमोहन के कार्यकाल में जो घोटाले हुए उन पर विपक्ष ने प्रधानमंत्री को चोर या डरपोक कहा हो

मनमोहन सिंह यह हलफनामा देकर राज्यसभा सदस्य चुने गए कि वह सामान्यत: असम में निवास करते हैं। विपक्ष ने कभी यह प्रश्न नहीं उठाया कि कम से कम दूसरे कार्यकाल में तो उन्हेंं लोकसभा का चुनाव लड़ना ही चाहिए। उनके दस वर्ष के कार्यकाल में जो घोटाले हुए वे इतिहास हैं। मुझे नहीं याद कि उस समय किसी विपक्षी दल या नेता ने प्रधानमंत्री को चोर या डरपोक कहा हो।

प्रजातंत्र में ऐसा नेतृत्व उभरना असंभव है जिसमें किसी प्रधानमंत्री को सभी लोग पसंद करते हों

प्रजातंत्र में ऐसा नेतृत्व उभरना असंभव है जिसमें किसी प्रधानमंत्री को सभी लोग पसंद करते हों। यह नरेंद्र मोदी के साथ भी लागू है। गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए जितनी तीखी आलोचना उन्होंने झेली उसका अन्य कोई उदाहरण नहीं है।

आलोचना और तिरस्कार सहने में नरेंद्र मोदी अद्वितीय हैं

आलोचना और तिरस्कार सहने में वह अद्वितीय हैं। राष्ट्रीय नेताओं और राजनीतिक दलों के पास अपनी विद्वत मंडली होती है। आखिर वह ऐसे अवसरों पर अपने लोगों को प्रशिक्षित क्यों नहीं करती और अपने नेताओं की गलतियों को ठीक करने की कोशिश क्यों नहीं करती?

भारत कोरोना के साथ चीन और पाक की दुष्टता का सामना को लेकर नेता भूल बैठे भाषागत शालीनता

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस समय जब देश कोरोना जैसी महामारी के साथ चीन और पाकिस्तान की दुष्टता का एक साथ सामना कर रहा है तब हमारे नेता भाषागत शालीनता भुला बैठे हैं। प्रधानमंत्री से पूछा जा रहा है-कहां छिपे हो, डरे क्यों हो?

भाषा की शालीनता पर दोनों पक्षों को ध्यान देना चाहिए

प्रजातंत्र में एक सबल और सतर्क विपक्ष आवश्यक होता है, लेकिन वह अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल कर सबल नहीं बन सकता। भाषा की शालीनता पर दोनों पक्षों को ध्यान देना चाहिए, क्योंकि यह सहयोग, संवाद और सहमति के लिए पहली सीढ़ी है। यह किसी से छिपा नहीं कि आज इन्हीं की सबसे अधिक जरूरत है।

( लेखक शिक्षा एवं सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं )