[ कैप्टन आर विक्रम सिंह ]: वैश्विक और क्षेत्रीय शक्ति संतुलन के समीकरण में हो रहे बदलाव की परिणति चाबहार के हमारे नियंत्रण से बाहर जाने के अंदेशे के रूप में दिख रही है। चाबहार से अफगानिस्तान तक हमारे पहुंचने-जुड़ने का महत्वपूर्ण रेल मार्ग विकसित हो रहा, जिसे पाकिस्तान प्रभावित नहीं कर सकता था। हाल में ईरान ने कहा कि वह इस रेल मार्ग का निर्माण खुद करेगा। हालांकि भारत ने इस मार्ग को बनाने को लेकर अपना संकल्प दोहराया है, लेकिन ईरान के इरादों को लेकर संदेह पैदा हो गया है। भारतीय भागीदारी को लेकर ईरान पहले भी सशंकित रहा है। इसी कारण यह प्रोजेक्ट उस तीव्रता से नहीं चला, जिसकी प्रारंभ से अपेक्षा थी। ईरान की सोच में उसका धार्मिक एजेंडा सर्वोपरि है। राष्ट्रहित और राजनय उसके बाद आते हैं।

महाराजा की सेना में मेजर ब्राउन ने गद्दारी कर गिलगित में पाकिस्तानी झंडा फहरा दिया

महाराजा हरी सिंह के दौर में कश्मीर से अफगानिस्तान के वाखान गलियारे से 105 किमी लंबी सीमा मिलती थी, लेकिन कश्मीर के 26 अक्टूबर, 1947 को भारत में विलय के बाद वह गिलगित-बाल्टिस्तान का इलाका पाकिस्तान युद्ध में गंवा दिया गया। 31 अक्टूबर, 1947 को गिलगित में महाराजा की सेना में मेजर ब्राउन ने उनसे गद्दारी कर वहां पर पाकिस्तानी झंडा फहरा दिया। महाराजा की सेना के तमाम डोगरा सिख मारे गए। बाकी सैनिकों ने भागकर दक्षिण स्कर्दू में शरण ली। तीन दिसंबर, 1947 से स्कर्दू में मेजर शेरजंग थापा ने बची खुची जम्मू-कश्मीर स्टेट फोर्स के अपने जवानों के साथ आठ माह तक लगातार मोर्चा लगाकर पाक सेनाओं को रोके रखा। भारतीय सेना नहीं पहुंची, जबकि स्कर्दू में हवाई पट्टी भी थी।

कश्मीर को बचाने के लिए सेनाएं उतरीं, लेकिन स्कर्दू बचाने के लिए कोई नहीं गया

श्रीनगर और घाटी बचाने के लिए तो सेनाएं उतरीं, लेकिन स्कर्दू बचाने के लिए कोई नहीं गया। महाराजा हरी सिंह की ही सेना अकेले लड़ती रही। इसी दौरान कश्मीर में उड़ी से आगे भी भारतीय सेनाओं का बढ़ना रोक दिया गया। लेफ्टिनेंट जनरल एलपी सेन अपनी पुस्तक-‘स्लेंडर वाज द थ्रेड’ में लिखते हैं कि कोई समझ नहीं पा रहा था कि भागते हुए शत्रु का पीछा करती सेनाएं क्यों रोक दी गईं? युद्ध के आखिरी दिनों में हाजीपीर पास भी हमारे कब्जे से चला गया, क्योंकि पाकिस्तानी सेनाओं को दम लेने की फुरसत दे दी गई।

लगता है नेहरू की रुचि मात्र कश्मीर घाटी तक थी

लगता है नेहरू की रुचि मात्र कश्मीर घाटी तक थी। उन्होंने और माउंटबेटन ने संभवत: पहले से तय किसी योजना के तहत गिलगित-बाल्टिस्तान और पश्चिमी कश्मीर को पाक के कब्जे में जाने दिया। गिलगित की आवश्यकता शीत युद्ध के सैन्य अड्डों के लिए थी। स्कर्दू के चले जाने के परिणामस्वरूप भारत के अफगानिस्तान से सीधे जमीनी संपर्क की संभावना ही समाप्त हो गई। स्वप्नजीवी नेहरू के लिए इन जमीनी सच्चाइयों का कोई महत्व ही नहीं था। कश्मीर एक जानबूझकर हारा गया युद्ध था।

भारत को अफगानिस्तान से जोड़ने वाली चाबहार परियोजना

1962 के युद्ध के बाद जब राष्ट्रहित की सोच हमारे राजनीतिक शब्दकोश में सम्मिलित हुई तब महसूस किया गया कि अफगानिस्तान को पाकिस्तान का सैटेलाइट देश बन जाने से बचाने के लिए वहां भारतीय सहयोग तथा मौजूदगी आवश्यक है। उसका जवाब चाबहार के ईरानी बंदरगाह के विकास में खोजा गया, जहां से एक सड़क सीधे अफगानिस्तान जाती है। चाबहार से जाहेदान जाने वाली 628 किमी रेलवे लाइन का प्रोजेक्ट भी इसी योजना का हिस्सा है, जिसके निर्माण में विलंब की बात कहकर भारत को बाहर करने की बात ईरान की ओर से कही गई है। यह समझने की जरूरत है कि भारत को अफगानिस्तान से जोड़ने वाली चाबहार परियोजना में विलंब की एक बड़ी वजह ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध हैं।

ईरान को चीन के 400 अरब डॉलर के निवेश समझौते के तहत मिला विकल्प

लगता है कि ईरान को चीन के 400 अरब डॉलर के निवेश समझौते के तहत एक विकल्प मिल गया है। जो भी हो, पश्चिम एशिया की राजनीति में अपनी अतिवादी नीतियों के कारण ईरान अमेरिकी प्रतिबंधों का शिकार है। अत: उसके भी विकल्प सीमित हैं। दूसरी बात यह है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैन्य वापसी संबंधी अमेरिका-तालिबान समझौते के अनुसार अफगानिस्तान का तालिबानी नियंत्रण में पुन: आ जाना लगभग तय है। जिहादी तालिबान भारत के मित्र तो नहीं हो सकते। वे पाक के निकट होंगे। पाकिस्तान के कराची, ग्वादर पोर्ट उनके लिए उपलब्ध रहेंगे। अमेरिकी सैन्य वापसी समझौते ने अफगानिस्तान को लेकर भारतीय उत्साह को फीका कर दिया है।

कोरोना के चलते चीन की अर्थव्यवस्था की गाड़ी फिर पटरी पर चलने लगी 

कोरोना के बाद के वैश्विक समीकरणों में बड़े खलनायक के रूप में उभरे चीन की अर्थव्यवस्था की गाड़ी फिर पटरी पर चलने लगी है। इतने वर्षों में चीन ने स्वयं को विश्व का कारखाना बना लिया है। अत: चीन का आर्थिक बहिष्कार दूर की कौड़ी है। चीन के ऊपर विश्व की निर्भरता तमाम प्रयासों के बावजूद काफी समय तक चलने वाली है। चीन की आर्थिक एवं क्षेत्रीय दबंगई का सामना करने के लिए क्वॉड की अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया की पहल सबसे महत्वपूर्ण है।

भारत में चीन की आर्थिक भूमिका सीमित करने का कार्य चल रहा

चीन का सामना करने के लिए ब्रिटेन के अलावा शेष यूरोपीय देशों की भागीदारी अभी संदेह के घेरे में है। अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव भी निकट है। इसे लेकर संदेह है कि ट्रंप के बयान चुनावी पैतरेबाजी हैं या स्थायी नीतिगत परिवर्तन? हम चीन के मुकाबले में फ्रंटलाइन देशों में सबसे पहले हैं। पूर्वी लद्दाख में हुए चीनी दुस्साहस के परिणामस्वरूप घटनाक्रम का पहला राउंड तो भारत के पक्ष में गया। अब भारत में चीन की आर्थिक  भूमिका सीमित करने का कार्य चल रहा है।

ईरान, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया के अलावा कोई और देश चीन के साथ नहीं है

ऐसी स्थितियों में चाबहार-जाहेदान प्रोजेक्ट जैसे झटके आ सकते हैं। आज दुनिया में ईरान, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया के अलावा कोई और देश चीन के साथ नहीं है। एक चीनी धुरी आकार ले रही है। भारत के तो खुले पत्ते मेज पर हैं। हम 1962 से ही चीन के मुकाबले में खड़े रहे हैं। देखना यह है कि जो दुनिया हमारा जिंदाबाद बोल रही है, वह आगे मजबूती से हमारे साथ खड़ी भी रहेगी या कमजोर हो रही अपनी अर्थव्यवस्थाओं के मद्देनजर कोई नया आर्थिक चीनी लालीपॉप थामकर उसके प्रति नरम होकर उसके पीछे चले जाने का बहाना खोजेगी?

( लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं )