बलबीर पुंज। कई व्यक्तियों की भांति कुछ राष्ट्र भी अपनी गलतियों से कभी नहीं सीखते। वे बार-बार भूलों को दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं। अमेरिका इसका उदाहरण है। 16 दिसंबर को भारत ने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान पर विजय की स्वर्ण जयंती मनाई। इस अवसर पर बांग्लादेश में आयोजित समारोह में राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द भी शामिल हुए। जब इसकी राजकीय तैयारियां जोरों पर थीं, तब अमेरिका ने वर्चुअल लोकतंत्र सम्मेलन में बांग्लादेश को आमंत्रित नहीं किया। अमेरिका ने आतंक के प्रमुख गढ़ पाकिस्तान को निमंत्रण भेजा। हालांकि चीनी टुकड़ों पर पल रहे पाकिस्तान ने इस आयोजन से किनारा किया। अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस पर भी अमेरिका ने चीन, रूस, म्यांमार सहित जिन देशों के 10 संगठनों और 15 व्यक्तियों को प्रतिबंधित सूची में डाला, उसमें बांग्लादेश का अर्धसैनिक बल रैपिड एक्शन बटालियन (आरएबी) के सात पूर्व और वर्तमान अधिकारी भी शामिल रहे।

बांग्लादेश 18 करोड़ की आबादी वाला एक मुस्लिम बहुल देश है। इसका संविधान इस्लाम प्रदत्त है और दावा करता है कि यहां सभी गैर इस्लामी मजहबों के अनुयायियों को बराबरी का दर्जा प्राप्त है। इस पर कई अवसरों पर प्रश्नचिन्ह लग चुका है, क्योंकि घोषित इस्लामी इकोसिस्टम में गैर मुस्लिमों के प्रति सहिष्णुता और बराबरी की भावना का पनपना काफिर-कुफ्र अवधारणा के कारण असंभव है। इसी कारण दुर्गापूजा के दौरान हजारों की संख्या में भीड़ ने कुरान के अपमान का बहाना बनाकर चुन-चुनकर अनगिनत हिंदुओं और मंदिरों पर हमले किए। इसमें कई की मौत भी हो गई। इससे पहले इसी वर्ष मार्च में प्रधानमंत्री मोदी की बांग्लादेश यात्रा के दौरान भी उन्मादी भीड़ ने कई हिंदू मंदिरों को निशाना बनाया था। क्या अमेरिका के बांग्लादेश विरोधी आचरण का कारण बांग्लादेश की उपरोक्त घटनाएं हैं? यदि ऐसा होता तो अमेरिका ने लोकतंत्र सम्मेलन में पाकिस्तान को आमंत्रित क्यों किया? इसी तरह मानवाधिकार हनन के मामले में उस पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया? पाकिस्तान में हिंदू-सिख 1947 में 15-16 प्रतिशत से घटकर 1.5 प्रतिशत से कम रह गए हैं। यहां आए-दिन गैर मुस्लिम युवतियों का जबरन मतांतरण बाद निकाह करा दिया जाता है, बचे-कुछ मंदिर-गुरुद्वारों पर हमले होते हैं और ईशनिंदा के नाम पर भीड़ द्वारा आरोपित की हत्या कर दी जाती है।

अमेरिका ने जिस प्रमुख बांग्लादेशी अर्धसैनिक बल पर प्रतिबंध लगाया, उसने हालिया हिंदू-विरोधी दंगों पर काबू पाने के साथ जिहादी कट्टरवाद-आतंकवाद की कमर तोड़ने में मुख्य भूमिका निभाई है। बांग्लादेशी प्रधानमंत्री शेख हसीना अपने पिता शेख मुजीबुर्रहमान की भांति पंथनिरपेक्षता की पक्षपोषक हैं। इसी कारण कट्टर बांग्लादेशी उन्हें मुर्तद (इस्लाम त्यागने वाला) मानते हैं। वहां के विपक्षी दल-बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी यानी बीएनपी, जमात-ए-इस्लामी और हिफाज-ए-इस्लाम जैसे कट्टरपंथी समूह इस्लाम में पंथनिरपेक्षता का विरोध करते हैं। यही कारण है कि जब बीएनपी सत्ता में होती है, तब वहां हिंदुओं, बौद्धों और ईसाइयों के खिलाफ नरसंहार के मामले बढ़ जाते है। इस पृष्ठभूमि में अमेरिका द्वारा आरएबी पर कार्रवाई से वहां खालिस शरीयत के पक्षधर फिर से एकजुट होंगे, जो हसीना सरकार, हिंदू-बौद्ध आदि अल्पसंख्यकों और भारत के लिए ठीक नहीं। भारत को इससे चिंतित होना चाहिए।

बांग्लादेश की इस्लामी पार्टियों को भारत-हिंदू विरोधी चिंतन की प्रेरणा इस्लामी आक्रांताओं, उनके विषैले दर्शन से मिलती है। जब दिसंबर 1971 में भारतीय नेतृत्व ने पूर्वी बंगाल में पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों से निपटने के लिए सैन्य विकल्प चुना, तब अमेरिका के तत्कालीन प्रशासन ने पाकिस्तान के सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी में अपना जंगी जहाज तैनात कर दिया। चीन भी तब भारत विरोधी नीतियों के कारण पाकिस्तान का समर्थन कर रहा था। आज वही अमेरिका बांग्लादेशी आरएबी पर प्रतिबंध लगाकर शेख हसीना सरकार की आतंकवाद विरोधी नीतियों को कुंद करने का प्रयास कर रहा है। स्पष्ट है विश्व के किसी भी मामले में अमेरिकी उपचार बीमारी से अधिक घातक सिद्ध हुआ है। ऐसी ही गलती अमेरिका अफगानिस्तान के मामले में भी कर चुका है। 1980 के आसपास जिन मुजाहिदीनों को अमेरिका ने पाकिस्तान-सऊदी के सहयोग से सोवियत संघ के खिलाफ जिहाद के लिए खड़ा किया और उन्हें हथियार-पैसे दिए, वह 1994 से तालिबान बनकर क्षेत्रीय शांति-सुरक्षा को गंभीर चुनौती दे रहा है। यही नहीं, 2001 में 9/11 आतंकी हमले के बाद जिस तालिबान को अमेरिका ने अफगानिस्तान से खदेड़ा, जिसमें उसके 7,000 से अधिक सैनिक तालिबानी गोली का शिकार बने, उसी तालिबान को अच्छे-बुरे में बांटकर उसने समझौता कर लिया।

यह ठीक है कि सभी जिम्मेदार देशों की विदेश-नीति में अपना हित सर्वेपरि होता है, किंतु उन्हें श्रेष्ठ जीवंत जीवन मूल्य से अलग करके नहीं देखा जा सकता। अमेरिका जहां सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र है, वहीं भारत इस संदर्भ में सबसे बड़ा देश है। जैसे आज इन दोनों देशों में एक स्वाभाविक सहयोग है, वैसा दशकों पहले होना चाहिए था, किंतु अमेरिका ने अपने विशुद्ध हितों के लिए सोवियत रूस से शीतयुद्ध की आड़ में आतंकवाद के कारखाने पाकिस्तान का सामरिक-आर्थिक समर्थन किया और आज भी स्थिति अधिक बदली नहीं है। अमेरिका फिर वैसी ही गलती दोहरा रहा है। उसके द्वारा आरएबी पर प्रतिबंध लगाना और पाकिस्तान को लोकतंत्र मानना, इसका प्रमाण है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)