विवेक ओझा। हाल के समय में अमेरिका समेत कुछ अन्य शक्तियों द्वारा अफगानिस्तान से सेनाओं की वापसी के निर्णय से तालिबान के इस्लामिक एजेंडे में एक नई ऊर्जा भर गई है। वर्ष 2001 से अफगानिस्तान में तैनात अंतरराष्ट्रीय फौजों की संख्या में कमी आई है, लेकिन अमेरिका ने वर्ष 2017 में अपनी नई अफगान पाक रणनीति में परिवर्तन कर अपनी फौजों को वहां से तब तक न निकालने का निर्णय किया जब तक तालिबान मसले का कोई ठोस हल नहीं निकल जाता।

बीते दिनों रूस के विदेश मंत्री ने अफगानिस्तान पर दूसरी मास्को बैठक की शुरुआत करते हुए कहा था कि रूस और अन्य प्रमुख देश अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच वार्ता कायम करने के लिए प्रयास करेंगे। भारत के अलावा मॉस्को की बैठक में अमेरिका, पाकिस्तान, चीन, ईरान और कुछ मध्य एशियाई देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। भारत ने इस बैठक में अनौपचारिक तरीके से भाग लिया था।

अफगानिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत अमर सिन्हा और पाकिस्तान में पूर्व भारतीय उच्चायुक्त टीसीए राघवन द्वारा नौ नवंबर 2018 को गैर आधिकारिक स्तर पर तालिबान संग मंच साझा करने पर भारत को सफाई भी देनी पड़ी थी। वर्ष 1999 में भारतीय विमान हाईजैक होने के बाद ऐसा पहली बार है जब भारत सरकार के प्रतिनिधि सार्वजनिक रूप से तालिबान से मिले हों। कतर में तालिबान की राजनीतिक परिषद के प्रमुख शेर मोहम्मद अब्बास के नेतृत्व में पांच सदस्यीय तालिबान प्रतिनिधिमंडल ने इस बैठक में भाग लिया था। इसी क्रम में 7-8 जुलाई 2019 को कतर की राजधानी में अमेरिका तालिबान वार्ता को लेकर दोहा समझौता संपन्न किया गया है। इसमें मास्को वार्ता के बिंदुओं पर सहमति जताकर रूस के हित का भी मान रखा गया है। साथ ही अमेरिका तालिबान से निर्णायक वार्ता एक सितंबर 2019 तक कर लेना चाहता है ताकि अमेरिकी और नाटो फौजों की वापसी का मार्ग प्रशस्त हो सके।

माना जा रहा है कि चीन अफगानिस्तान- पाकिस्तान में सुलह कराना चाहता है। चीन के शिंजियांग प्रांत से प्रशासन की ज्यादतियों से भागकर उईगर मुसलमान अफगानिस्तान में शरण ले रहे हैं। वहां चीन के खिलाफ आवाज उठ रही है। इसको दबाना भी चीन की रणनीति है, इसलिए वह अफगानिस्तान शांति वार्ता में अपने लिए भूमिका की तलाश में है। हालांकि अफगानिस्तान में सबसे बड़ा क्षेत्रीय योगदानकर्ता एक प्रकार से भारत ही रहा है, लेकिन उसे इस बैठक और वार्ता से बाहर ही रखा गया और उसकी कोई राय नहीं ली गई। जबकि पाकिस्तान को तवज्जो दिया गया है। विचारणीय प्रश्न यह कि आर्थिक रूप से पंगु पाकिस्तान को इस बैठक में इतना महत्व क्यों दिया गया है?

अफगानिस्तान में तालिबान के पुन: सिर उठाने के पीछे के कारणों को खोजने पर पाकिस्तान की अफगान तालिबान वार्ता में सामने आई भूमिका का मूल्यांकन हो सकेगा। तालिबान के दो धड़े हैं, एक अफगानी तालिबान जो पश्तून या पश्तो हैं और दूसरा पाकिस्तानी तालिबान। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान यानी टीटीपी पाकिस्तान में सबसे बड़ा और घातक तालिबानी संगठन है। दोनों में मुख्य अंतर यह है कि एक तरफ जहां अफगान तालिबान अमेरिका और नाटो के नेतृत्व वाले फौजों से अफगानिस्तान में निपटने पर ज्यादा ध्यान देता है, वहीं टीटीपी पाकिस्तानी सुरक्षा बलों से संघर्ष करने पर जोर देता है। टीटीपी दक्षिणी वजीरिस्तान में स्थित है जिसके तीन मुख्य लक्ष्य हैं- पाकिस्तान में शरिया कानून को लागू करना, एक एकीकृत फ्रंट तैयार करना जो अफगानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो फौजों का प्रतिकार कर सके और पाकिस्तानी सुरक्षा बलों के खिलाफ एक सुरक्षात्मक जेहाद को संपन्न करना। वर्ष 2014 से आंतरिक टूटफूट और पाकिस्तान के आतंकवाद निरोधक अभियानों ने टीटीपी को कमजोर किया है। वर्ष 2018 में टीटीपी के सबसे बड़े नेता मौलाना फजलुल्ला की मौत के बाद इस समूह के भविष्य पर खतरा मंडराने लगा।

एक अन्य समूह है हक्कानी नेटवर्क जो तालिबान और अल कायदा से जुड़ा हुआ है और अफगानिस्तान की शांति और स्थिरता में इसे सबसे बड़े खतरे के रूप में देखा जाता है। यह संगठन वजीरिस्तान में तीन दशकों से एक लड़ाका समूह के रूप में सक्रिय है। यह आत्मघाती बम विस्फोटों में निपुण है। काबुल और उत्तरी अफगानिस्तान के हाई प्रोफाइल लोगों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार रहा है। इसने अमेरिकी सैनिकों की भी हत्याएं की हैं। यह सब जलालुद्दीन हक्कानी के नेतृत्व में होता आया है। अब इसके बेटे इस नेटवर्क को संभाल रहे हैं। हक्कानी नेटवर्क को पाकिस्तान से काफी हद तक समर्थन मिला हुआ है जिससे वो अफगानिस्तान में अपने हिंसक अभियान चलाता आया है। हक्कानी नेटवर्क का भी उद्देश्य जेहाद की भावना के आधार पर शरिया कानून से शासित अफगान राष्ट्र का निर्माण है और इस आधार पर एक राष्ट्रवादी अफगान सरकार के निर्माण का समर्थन करता है।

वर्तमान में अफगानिस्तान में आइएस खोरासन जैसे आतंकी संगठन भी सक्रिय हैं। खोरासान ऐसा क्षेत्र है जिसमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान और मध्य एशिया के क्षेत्र शामिल हैं। इसका भी उद्देश्य अफगानिस्तान में इस्लामिक साम्राज्य की स्थापना है। इन इस्लामिक आतंकी संगठनों की कार्यप्रणाली को देखकर ऐसा लगता है कि पाकिस्तान के चाहे बिना अफगानिस्तान का राजनीतिक भविष्य प्रशस्त नहीं हो सकता। भारत की स्थिति इस संदर्भ में थोड़ी भिन्न है। भारत ने अफगानिस्तान में विकासात्मक परियोजनाएं चला कर उसका विकास साझेदार बनना ज्यादा श्रेयस्कर समझा।

भारत ने अफगानिस्तान में चार बिलियन डॉलर से अधिक का विकास निवेश किया है। अफगान संसद का पुनर्निर्माण, सलमा बांध का निर्माण, जरंज डेलारम सड़क निर्माण, गारलैंड राजमार्ग के निर्माण में सहयोग, बामियान से बंदर-एअब्बास तक सड़क निर्माण, काबुल क्रिकेट स्टेडियम का निर्माण, चार मिग 25 अटैक हेलीकॉप्टर दिए हैं। अफगान प्रतिरक्षा बलों को भारत सुरक्षा मामलों में प्रशिक्षण भी दे रहा है। भारत ने अफगानिस्तान में सैन्य अभियानों में किसी तरह की संलग्नता न रखने की नीति बनाई ताकि वह हक्कानी नेटवर्क, आइएस खोरासान, तहरीक-ए-तालिबान जैसे संगठनों का प्रत्यक्ष रूप से निशाना न बन जाए जैसा आज अमेरिका और नाटो के साथ है।
[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार]

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