[अभिषेक कुमार सिंह]। अमेरिका और ईरान के बीच खतरनाक स्तर तक पहुंच गए तनाव के बीच पूरी दुनिया खाड़ी क्षेत्र में एक और युद्ध की आशंका से भयभीत है। हाल की कुछ घटनाओं ने यह चिंता पैदा कर दी है कि अगर इन दोनों के बीच बढ़ते तनाव को कम नहीं किया गया तो एक नया विश्व संकट दुनिया के तमाम देशों की मुश्किलें बढ़ाने आ सकता है। चिंता खासतौर से भारत के लिए है, क्योंकि हमारा देश तेल आयात के लिए बहुत हद तक ईरान से होने वाली सप्लाई पर निर्भर रहा है, जो फिलहाल अमेरिका के दबाव के चलते ठप पड़ी है। उधर कहा जा रहा है कि अगले साल अमेरिका में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों के मद्देनजर वहां के मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने मुल्क से दूर इलाके में कोई छोटे स्तर का युद्ध छिड़ते देखना पसंद करेंगे, ताकि उसके असर से सत्ता में उनकी वापसी मुमकिन हो सके। ऐसे में कुछ हालिया घटनाओं के बीच सवाल उठ खड़ा हुआ है कि अगर अमेरिका-ईरान के बीच जंग की नौबत आई तो क्या दुनिया उसके असर से बच पाएगी।

ताजा टकराव की वजह

ताजा मुश्किल 20 जून को तब उठ खड़ी हुई, जब ईरान की इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कोर (आइआरजीसी) ने घोषणा की कि उसने अमेरिका के एक जासूसी ड्रोन को मार गिराया है। ड्रोन मार गिराने की घटना की पुष्टि अमेरिकी सेना के सेंट्रल कमांड ने भी की और कहा कि ईरान ने अमेरिकी नेवी का ड्रोन मार गिराया है। अमेरिका ने यह दावा भी किया कि उसका ड्रोन अंतरराष्ट्रीय हवाई क्षेत्र में था न कि ईरानी हवाई क्षेत्र में। अमेरिकी सेना ने इसे बिना किसी कारण का हमला बताया। इस घटना की प्रतिक्रिया में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पहले तो कहा कि ईरान ने बहुत बड़ी गलती की है। बाद में उनका यह बयान भी आया कि वे ईरान के तीन ठिकानों पर हमला करने के लिए पूरी तरह से तैयार थे, लेकिन हमला होने के सिर्फ 10 मिनट पहले उन्होंने अपना फैसला बदल लिया।

ट्रंप ने हमला रोकने के पीछे अपने सैन्य जनरल का यह आकलन बताया कि ड्रोन के बदले किए जाने वाले जवाबी हमले के आधे घंटे में ही 150 मौतें होंगी। ट्रंप के मुताबिक यह मानव-विनाश देखते हुए उन्होंने हमला रोकने का आदेश दिया। इस ड्रोन प्रकरण से पहले एक अन्य घटना ने भी ईरान-अमेरिका के बीच तल्खी बढ़ा दी थी। असल में मई के मध्य में संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के बंदरगाह फुजैरा में सऊदी अरब के दो समुद्री तेल टैंकरों पर तकरीबन एक साथ हमला किया गया था। इनमें से एक टैंकर सऊदी अरब से तेल लेकर अमेरिका के लिए रवाना होने वाला था। अमेरिका ने इसके लिए ईरान और उसके सहयोगी देशों-संगठनों को जिम्मेदार बताते हुए दावा किया था कि छद्म युद्ध की नीति के तहत ऐसा कर रहे हैं। हालांकि ईरान ने इस हमले से खुद को अलग बताते हुए मामले की निष्पक्ष जांच की मांग की थी।

होर्मुज जलमार्ग का महत्व

फुजैरा बंदरगाह में खड़े तेल टैंकरों पर हमले के महत्व को इससे समझा जा सकता है कि यह बंदरगाह उस होर्मुज जलमार्ग से महज 140 किलोमीटर दूर स्थित है, जहां से पूरी दुनिया के एक तिहाई तेल और गैस का निर्यात होता है। यहां एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि सऊदी अरब, इराक, यूएई, कुवैत, कतर और ईरान से भी ज्यादातर तेल का निर्यात होर्मुज बंदरगाह से होता है। अनुमान के मुताबिक यह आंकड़ा कम से कम 15 मिलियन बैरल प्रतिदिन है। विश्व का लगभग 30 फीसद समुद्र में पैदा होनेवाला तेल इसी रास्ते से होकर गुजरता है। ओपेक देशों के लिए तेल निर्यात का भी एकमात्र भरोसेमंद रास्ता होरमुज से होकर ही जाता है।

इस जलमार्ग के रास्ते से तरलीकृत प्राकृतिक गैस (एलएनजी) की पाइपलाइनें भी होकर गुजरती हैं और दुनिया का सबसे बड़ा एलएनजी निर्यातक कतर भी इसी मार्ग का प्रयोग करता है। कतर लंबे समय से भारत का सबसे बड़ा एलएनजी निर्यातक है। इसलिए इसके बंद होने का सीधा असर भारत पर पड़ता है। यह उल्लेखनीय है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा ईरान के साथ हुआ बहुपक्षीय व्यापार समझौता एकतरफा तौर पर खारिज कर दिए जाने और ईरान के तेल निर्यात पर प्रतिबंध लगा देने के बाद से ही ईरान यह कहता रहा है कि अगर अमेरिका ने उस पर ज्यादा दबाव बढ़ाया तो वह होर्मुज जलमार्ग को बंद कर देगा। इसी आशंका के तहत अमेरिका इस क्षेत्र में अब्राहम लिंकन युद्धपोत और बी-52 बमवर्षक विमान तैनात कर चुका है।

ईरान पर आर्थिक दबाव

यहां अहम मुद्दा यह है कि आखिर अमेरिका को ईरान से समस्या है। असल में इसकी दो वजहें हैं। एक वजह ऐतिहासिक है और दूसरी आर्थिक। इसका आर्थिक कारण यह है कि फिलहाल दुनिया में ईरान तेल उत्पादन के मामले में शीर्ष पर है। अमेरिका, जो खुद तो तेल के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है, अब चाहता है

कि दुनिया में उसके तेल के लिए बाजार बने। इस खास मकसद से ईरान के तेल निर्यात पर पूरी तरह रोक के लिए अमेरिका बाकी देशों से मिलकर दबाव बनाना चाहता है। इसी उद्देश्य से उसने ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं और चीन समेत भारत को ईरान से होने वाली तेल की सप्लाई में रुकावट डाली है। अमेरिकी प्रतिबंधों के दोबारा लागू होने के बाद ईरानी अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त हो चली है। बीते एक साल में डोनाल्ड ट्रंप ने ओबामा प्रशासन में ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते को खत्म कर दिया, जिससे ईरान पर कठोर प्रतिबंध फिर से लागू हो गए। इसके साथ ही भारत और चीन जैसे देशों को दी गई रियायत भी खत्म हो गई। इन सबका असर ईरान की अर्थव्यवस्था पर बुरी तरह से पड़ा है। हालत यह है कि ईरान की मुद्रा रियाल का इतना पतन हो गया है कि एक लाख रियाल के बदले कोई एक अमेरिका डॉलर देने को तैयार नहीं है।

तनाव के ऐतिहासिक कारण

जहां तक ऐतिहासिक कारणों की बात है तो इसके पीछ वर्ष 1979 में हुई ईरानी क्रांति की भूमिका देखी जाती है, जिस दौरान ईरान स्थित अमेरिकी दूतावास में कई अमेरिकियों को करीब 400 दिन तक बंधक बनाकर रखा गया था। इससे अमेरिका में ईरान को लेकर नफरत का एक भाव रहता है। इसके अलावा 1979 की क्रांति के असर से वहां पहले से काबिज रहे मोहम्मद रजा पहलवी का पतन हो गया, जो कि असल में अमेरिका-परस्त थे। वह अमेरिका द्वारा ईरान में किए गए तख्तापलट से ही गद्दी पा सके थे और तब 1953 में लोकतांत्रिक देश बना ईरान एक बार फिर से बादशाहियत के शिकंजे में जा फंसा था। इसे 1979 की क्रांति ने बदला और तब सत्ता में शियाओं की बढ़ती दखल से ईरान मध्य-पूर्व में एक ताकतवर राष्ट्र में तब्दील होकर अमेरिका के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया। अब अमेरिका चाहता है कि ईरान में एक बार फिर सत्ता परिवर्तन हो और तेहरान की गद्दी पर कोई अमेरिका-समर्थक नेता काबिज हो। असल में जिस तरह से सऊदी अरब, पाकिस्तान और पहले तुर्की आदि देश अमेरिका के साथ खड़े रहते थे, उसी तरह ट्रंप की मंशा है कि ईरान भी उसके सामने सिर झुकाए नजर आए। यही वजह है कि वह ईरान पर चौतरफा दबाव बनाए हुए हैं।

हालांकि इन आर्थिक और ऐतिहासिक कारणों के अलावा एक अन्य वजह राजनयिक कूटनीति भी है। असल में यह कूटनीति इजरायल की है जो अमेरिका में अपनी मजबूत लॉबिंग के बल पर फलस्तीन के मसले से दुनिया का ध्यान हटाने के लिए यह बात प्रचारित करता रहा है कि ईरान के परमाणु हथियार पूरी दुनिया के लिए खतरा हैं। इसी नीति के तहत इजरायली अरबपति अमेरिकी चुनाव में पैसे लगाते हैं। मध्य-पूर्व में इजरायल को अपना वर्चस्व स्थापित करने में ईरान ही एकमात्र बाधा है, इसलिए वह चाहता है कि अमेरिका किसी भी तरह से ईरान को इस हाल में पहुंचा दे कि वह कभी उठकर चुनौती देने की हिम्मत न कर सके। इसलिए इजरायल भी अंदर ही अंदर किसी जंग के सहारे ईरान का मस्तक झुकते हुए देखने का इच्छुक है, लेकिन बात इतनी सीधी नहीं है।

भारत की मुश्किल

असल में अमेरिका से जंग छिड़ने के नतीजे ईरान भी जानता है। इसलिए उकसावे की कोशिशों के बीच ऐसे संकेत भी देता है कि वह तनाव बढ़ाने के बजाय उसे कम करने की कोशिश कर रहा है। इसी तरह अमेरिका को भी इसका अहसास है कि ईरान से युद्ध लड़ने के क्या परिणाम हो सकते हैं, पर तनातनी का यह माहौल दुनिया के सामने कई संकट पैदा कर रहा है। जैसे भारत के सामने मुश्किल है कि ईरान से तेल की सप्लाई बंद होने की सूरत में इसके विकल्प सीमित हैं। इसलिए अमेरिका से दोस्ती के लिए वह सीधे तौर पर ईरान को नाराज करने के पक्ष में नहीं है। देखना होगा कि भारतीय राजनय इस समस्या से कैसे पार पाता है और सस्ते तेल के क्या विकल्प तलाश कर पाता है?।

[संस्था एफएसआइ ग्लोबल से संबद्ध]

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