[हर्ष वी पंत]। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे पर अमेरिका ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया टकटकी लगाए है। अंतिम परिणाम के लिए कुछ और प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है। फिर भी जो परिदृश्य उभरा है, उससे कई बातें स्पष्ट हुई हैं। सबसे बड़ी बात तो यह कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षण खारिज हो गए हैं। ये डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडेन की निर्णायक बढ़त बता रहे थे। इन नतीजों ने अमेरिका के लिबरल मीडिया की भी पोल खोलकर रख दी है कि वह जमीन से कितना कटा हुआ है। इसके साथ ही इन नतीजों ने यह भी दिखा दिया कि चुनाव को जिन मुद्दों पर केंद्रित होने का दावा किया जा रहा था, वास्तविक स्थिति वैसी नहीं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि चुनाव में उतरने से पहले रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार और मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मुश्किलों के भंवर में फंसे थे। उनके समक्ष सबसे बड़ी बाधा तो कोरोना वायरस के रूप में उपजी। पूरी दुनिया में अमेरिका पर इस वायरस की सबसे ज्यादा मार पड़ी। कुछ दिन पहले ही अमेरिका में नस्ली दंगों से भी अस्थिरता उत्पन्न हो गई थी। विपक्षी दल ट्रंप पर दुनिया में अमेरिका की छवि बिगाड़ने का आरोप लगा रहे थे। इतना ही नहीं वैश्विक ढांचे को तोड़ने-मरोड़ने का दोष भी ट्रंप के माथे पर मढ़ा गया। उनके पूर्व सहयोगी और स्वजन किताबें लिखकर उनके विषय में किस्म-किस्म के खुलासे कर उनकी मुश्किलों में इजाफा कर रहे थे। इन सभी पहलुओं को जोड़कर ट्रंप के विरोध में एक बड़ी मुहिम छेड़ी गई। इसके बावजूद जो नतीजे आए, वे यही साबित करते हैं कि इन मुद्दों ने ट्रंप का खेल उतना नहीं बिगाड़ा, जितना कि उनके विरोधी उम्मीद लगाए बैठे थे।

अर्थव्यवस्था के मुद्दे को ट्रंप ने बनाया अपनी ढाल

ट्रंप ने इन सभी हमलों से बचने के लिए अर्थव्यवस्था के मुद्दे को अपनी ढाल बनाया, जो उनके लिए काफी कारगर भी साबित हुआ। ‘अमेरिका फस्र्ट’ की नीति ने भी उस ‘रस्ट बेल्ट’ वाले इलाके में ट्रंप की पैठ मजबूत की, जो पारंपरिक रूप से डेमोक्रेटिक पार्टी के गढ़ माने जाते रहे हैं। इन इलाकों में शामिल मिशिगन एवं विस्कॉन्सिन जैसे सूबों में ट्रंप को मिले मतों में बढ़ोतरी से साफ जाहिर है कि अमेरिकी विनिर्माण इकाइयों के दूसरे देशों में स्थानांतरित होने के कारण जिन लोगों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी, उन्हें ट्रंप की यह नीति रास आई। इस चुनाव का एक और अहम पहलू यह है कि 2016 के चुनाव में ट्रंप की जिस जीत को एक तुक्का माना गया था, वह वास्तव में कोई तुक्का न होकर अमेरिकी राजनीति में एक नया पड़ाव था, जिसमें निरंतरता की पुष्टि हालिया नतीजों ने की है। अंतिम नतीजा भले जो हो, लेकिन इतना तय है कि ट्रंप ने अपने जनाधार में विस्तार किया है। नस्ली हिंसा के भड़कने के बावजूद वह अफ्रीकी-अमेरिकी और हिस्पैनिक समुदाय के मतों को रिपब्लिकन पार्टी की झोली में बढ़ाने पर सफल हुए हैं। साफ है कि ट्रंप जनता की नब्ज पकड़ना जानते हैं।

उच्च सदन सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी का कायम रहेगा दबदबा

ट्रंप ने केवल वैश्विक ढांचे को ही प्रभावित नहीं किया, बल्कि उन्होंने अमेरिका की घरेलू राजनीति का सांचा भी बदल दिया है। भारी विरोध के बावजूद इतनी बड़ी तादाद में लोगों का उनके पक्ष में लामबंद होना दर्शाता है कि लोगों को उनकी नीतियों में भरोसा है। यदि बाइडेन राष्ट्रपति बनते भी हैं तो अर्थव्यवस्था से लेकर चीन को लेकर ट्रंप की नीति को बदलने के लिहाज से उनके समक्ष ज्यादा गुंजाइश नहीं होगी। ऐसे में यही संभावना है कि बाइडेन भी ट्रंप की इन्हीं नीतियों को ही आगे बढ़ाएंगे। फिलहाल जो तस्वीर उभरी है, उससे वह अनुमान भी सही साबित नहीं हुआ कि अमेरिकी संसद के दोनों सदनों में डेमोक्रेटिक पार्टी की तूती बोलने जा रही है। उच्च सदन सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी का दबदबा ही कायम रहेगा। ऐसे में राष्ट्रपति बनने की सूरत में बाइडेन की राह बहुत आसान नहीं रहने वाली।

भारत के लिए अच्छे राष्ट्रपति साबित हुए डोनाल्ड ट्रंप

कई मामलों में अपने अस्थिर मिजाज के बावजूद ट्रंप भारत के लिए अच्छे राष्ट्रपति सिद्ध हुए। इक्का-दुक्का मामलों पर उन्होंने भारत को लेकर तल्ख बयानबाजी भले की हो, परंतु नीतिगत मोर्चे पर उन्होंने व्यापक रूप से भारत का पक्ष लिया। कुछ मामलों में गतिरोध अवश्य कायम रहा, लेकिन उनकी वजह दोनों देशों की घरेलू राजनीतिक आर्थिक मुद्दों से जुड़ी संवेदनाएं रहीं। भारत को लेकर ट्रंप का रुख तो जगजाहिर है, लेकिन बाइडेन के राष्ट्रपति बनने की स्थिति में जरूर कुछ आशंकाएं भारतीयों के मन में घर कर रही होंगी, लेकिन इन आशंकाओं को तूल देना उचित नहीं होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि मौजूदा दौर में भारत अमेरिकी रिश्ते जिस मुकाम पर हैं, वहां से उन्हें आगे ही बढ़ाया जा सकता है।

अमेरिका को भी है भारत की आवश्यकता

भारत को आज जितनी आवश्यकता अमेरिका की है, चीन के बढ़ते उभार को संतुलित करने के लिए अमेरिका को भी भारत की उतनी ही आवश्यकता है। ऐसे में बाइडेन भी भारत को लेकर अमेरिका की मौजूदा नीति को ही आगे बढ़ाएंगे। हालांकि डेमोक्रेटिक पार्टी की अंदरूनी कलह उनकी इस राह में कुछ कांटे बो सकती है। दरअसल वामपंथी झुकाव वाली पार्टी की एक लॉबी भारत को मानवाधिकार और पर्यावरण संबंधी अन्य मसलों पर घेरती आई है, लेकिन मध्यमार्गी माने जाने वाले बाइडेन से यही अपेक्षा है कि वह पार्टी के वैचारिक आग्रहों पर व्यावहारिक रुख को वरीयता देंगे।

बाइडेन को बराक ओबामा से लेनी होगी प्रेरणा

इस मामले में उन्हें उन बराक ओबामा से प्रेरित होना होगा, जिनके प्रशासन में वह नायब रह चुके हैं। सत्ता में आने से पहले ओबामा भी भारत को लेकर तमाम आशंकाएं व्यक्त कर चुके थे, पर दूसरे कार्यकाल में अपनी विदाई के वक्त वह भारत को अपने सबसे करीबी सहयोगियों में गिनने लगे। जहां तक चीन का प्रश्न है तो ट्रंप इस मसले पर बाइडेन को घेरते रहे हैं। ऐसे में यदि बाइडेन व्हाइट हाउस पहुंचते हैं तो उन्हें भी चीन पर अपना शिकंजा कड़ा ही करना होगा। चूंकि चीन अमेरिका के लिए जिस प्रकार के जोखिम बढ़ा रहा है, उसे देखते हुए किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए यह अपरिहार्य हो गया है।

जो भी हो, ये सभी किंतु -परंतु तब तक जारी रहेंगे, जब तक नतीजों से धुंध नहीं हटती। ऐसी स्थिति दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र को यह भी स्मरण कराती है कि उसे अब अपनी चुनाव प्रक्रिया में सुधार के लिए आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि पिछले कुछ चुनावों के दौरान ऐसे कई पेच फंसते रहे हैं, जिनसे नतीजों में गतिरोध पैदा होने के साथ देरी भी होती है।

(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं) 

[लेखक के निजी विचार हैं]