अमित शर्मा। पिछले कुछ वर्षो से पंजाब में विधानसभा सदन के लगभग हर सत्र की शुरुआत शोरगुल और हंगामे के बीच होना अब एक नियति सी बन गई है। इन वर्षो में शायद ही कोई ऐसा सत्र रहा हो जिसकी कार्यवाही दिवंगत सदस्यों को श्रद्धांजलि देने के बाद स्थगित न हुई हो। दुर्भाग्यवश यहां के राजनेताओं के निहित स्वार्थ, व्यक्तिगत कुंठाएं और प्रतिशोध की भावना तय विधायी कामकाज पर इस कदर हावी हो जाती है कि आम नागरिक से जुड़े सरोकार गायब हो जाते हैं। चार दिन पहले शुरू हुए 15वीं विधानसभा के 11वें सत्र के हालात भी ऐसे ही बने हुए हैं। बिजली के बढ़े दामों, नशे व कुशासन जैसे मुद्दों पर बहस करने के लिए सत्र की सीमा अवधि बढ़ाने की मांग करने वाले विपक्षी दल विधायी कामकाज की अवधि बढ़ाते ही इन मसलों को भूल हमेशा की तरह एक बार फिर उसी चक्र में उलझते दिख रहे हैं जिससे आम जनता का कोई विशेष सरोकार नहीं।

हंगामे, नारेबाजी और व्यवधान का पर्याय बन चुकी पंजाब की राजनीति में अब यह एक अघोषित परंपरा ही बन गई है कि विधानसभा सत्र की तारीख तय होते ही सत्ता पक्ष अपनी विफलता छिपाने के लिए ‘सरकारी दमखम’ के बल पर ऐसी रणनीति बनाने में ही मशगूल रहता है जिससे विपक्ष की आवाज दबाई जा सके। वहीं सत्र की तैयारी में जुटे विपक्षी दल भी प्रशासनिक गुणवत्ता, विकास व विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं की सफलता-असफलता पर केंद्रित होने की बजाए सत्ता पक्ष के लोगों से जुड़े ऐसे व्यक्तिगत मसले भी तलाशने में जुट जाते हैं जिसके दम पर वे सदन में वाकआउट या हंगामा कर सकें।

अब इसे मात्र संयोग कहें या फिर इसी अलिखित परिपाटी का हिस्सा कि इस बार भी चार दिन पहले विधानसभा सत्र शुरू होने से ठीक 72 घंटे पहले और बाद में चंद ऐसी घटनाएं घटीं जिनमें हमारे राजनेताओं की उसी ‘सियासी रणनीति’ की एक झलक दिखी जिसके चलते तमाम विधानसभा सत्र अब बिना किसी सार्थक परिणाम के ही संपन्न होने लगे हैं। यह मात्र संयोग तो हो नहीं सकता कि ड्रग तस्करी के एक मामले में कई सप्ताह से जांच में जुटी राज्य पुलिस सत्र शुरू होने से चंद घंटे पहले ही एक आरोपित को गिरफ्तार करने में सफलता प्राप्त करे और फिर अगले दिन सत्र के शुरुआती दौर में ही इस गिरफ्तार ‘ड्रग तस्कर’ और विरोधी पार्टी के एक बड़े नेता के खिलाफ जांच की बात हो। यह भी संयोग का विषय नहीं हो सकता कि इसी सत्र अवधि के दौरान सत्ता पक्ष में बैठे एक वरिष्ठ मंत्री के खिलाफ एक निलंबित पुलिस अधिकारी प्रेस कांफ्रेंस में 1992 में हुई आतंकवादी घटना का दस्तावेज पेश कर 28 साल बाद मंत्री के खिलाफ टाडा एक्ट चलाने की मांग करे और अगले ही दिन विपक्षी दल इस मुद्दे पर सदन में कामकाज बाधित करें।

खैर, मसला इन दो प्रकरणों का या इस सत्र का नहीं बल्कि पिछले डेढ़ दशक से दलों द्वारा प्रदेश के ज्वलंत मुद्दों से ध्यान भटकाने और जनहित में आयजित किये जाने वाले सत्रों पर हर वर्ष करोड़ों रुपये बिना कोई सार्थक परिणाम हासिल किए व्यर्थ करने का है। पिछले एक दशक के दौरान विधानसभा के प्रत्येक सत्र की कार्यवाही का यदि विश्लेषण करें तो सूबे के बाशिंदों और उनसे जुड़े सरोकारों को लेकर हासिल परिणाम पूर्णतया निराशाजनक और अर्थहीन ही दिखेंगे। एक सत्र के आयोजन में 70 से 80 लाख रुपये प्रतिदिन खर्चे जाने के बाद भी ऐसे तमाम सत्र बिना किसी सार्थक नतीजे के संपन्न होते रहे हैं। और अवैध खनन, कृषि संकट, नशे की समस्या, गिरते भूजल जैसी ज्वलंत समस्यां आज भी उसी तरह मुंह बाए खड़ी हैं जिस तरह यह डेढ़ दशक पहले थी। इन तमाम वर्षो में कुछ बदला है तो केवल सत्ता और विपक्ष में बैठने वाले चेहरे।

सबसे दिलचस्प बात यह है कि खुद विधानसभा की कमेटी ने किसानों की आत्महत्याओं पर एक विस्तृत रिपोर्ट दी जिस पर कई साल बीतने के बावजूद आज तक कोई बहस नहीं हुई। पंजाब की एग्रीकल्चर पॉलिसी भी पिछले डेढ़ साल से विधानसभा में बहस के लिए लटक रही है। यहां सवाल यह उठता है कि इसमें बदलाव कैसे लाया जा सके? किस तरह सदन के भीतर होने वाले बेवजह वाकआउट और कामकाज बाधित करने वाले हथकंडों पर अंकुश लगाया जा सके ताकि हमारे चुने गए नेता कम से कम सदन के भीतर तो भारतीय लोकतंत्र की मूल धारणा ‘लोगों का, लोगों के लिए और लोगों द्वारा’ का अनुपालन कर सके। ऐसे में एकमात्र विकल्प जो कुछ हद तक कारगर सिद्ध हो सकता है वह यही है कि पंजाब में भी छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की तर्ज पर सदन का कामकाज बाधित करने वाले विधायकों को मिलने वाले भत्ते पर रोक लगा दी जाए।

(लेखक पंजाब के स्थानीय संपादक हैं)