उमेश चतुर्वेदी । आजादी के साथ ही व्यापक और समान मत अधिकार की जो बुनियाद संविधान सभा ने रखी, उस पर देश का लोकतांत्रिक ढांचा बहुत आगे बढ़ गया है। पश्चिमी माडल के लोकतंत्र की जड़ें इसी संवैधानिक खाद-पानी के सहारे इतनी गहरें तक पैठ गई हैं कि अक्सर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हम इसे अपने गर्व के इजहार का जरिया बनाते हैं। स्वाधीनता आंदोलन की छाया वाली राजनीतिक शख्सियतों की छतनार राष्ट्रीय आकाश पर छाई रही, तब तक भारतीय लोकतंत्र अपने ढंग से छांह पाता रहा। लेकिन जैसे ही स्वाधीनता आंदोलन की त्यागमयी कोख से उपजी शख्सियतें राष्ट्रीय क्षितिज से गायब होने लगीं, लोकतंत्र के बिरवे में तमाम तरह के कीड़े लगने लगे। राजनीति का अपराधीकरण और अपराधियों के राजनीति में बढ़ती भागीदारी ने लोकतंत्र के बिरवे में हानिकारक कीटों को इतना बढ़ावा दिया कि अब चाहकर भी कोई राजनीतिक दल इससे अलग नहीं रह पाता। ऐसे परिवेश में जब-जब चुनाव आते हैं, तब-तब अपराध, बाहुबल और धनबल का अनैतिक गठजोड़ और इसके सहारे सत्ता को साधने की कोशिश तेज हो जाती है। इस कोशिश का विरोध भी होता है। लोकतंत्र को स्वस्थ माहौल में आगे बढऩे देने की पैरवीकार ताकतें ऐसी कोशिशों में शामिल भी होती हैं। लेकिन ये कोशिशें केवल चर्चा का ही केंद्र बिंदु बनकर रह जाती हैं और चुनाव बीतते-बीतते ये बातें फिर अगले चुनाव तक के लिए भुला दी जाती हैं।

परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि चुनाव सुधार नहीं होने चाहिए। भारतीय राजनीति में जो बुराइयां हैं, उनके मूल में सबसे ज्यादा राजनीति में अपराधियों का बढ़ता बोलबाला हो या फिर पैसे की बढ़ती दखल, यही सबसे प्रमुख कारण के रूप में नजर आते हैं। इनके साथ ही- तुम मुझे वोट दो, मैं सत्ता में आने पर तुम्हें मुफ्त में तमाम सुविधाएं और चीजें दूंगा- एक सर्वमान्य राजनीतिक सिद्धांत भी स्वीकार्य हो गया है। यह सच है कि हाल के कुछ वर्षों में चुनावों में जो कुछ भी सुधार हुए हैं, उनमें केवल सर्वोच्च न्यायालय का ही योगदान है। वर्ष 2013 में चुनाव लडऩे वाले लोगों को अपने खिलाफ चलने वाले मुकदमों का हलफनामा देने का दबाव हो या फिर 2018 में अपनी आर्थिक देनदारी और कमाई का हिसाब देना हो या फिर चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित खर्च सीमा में खर्च करने के साथ ही खर्च का हिसाब देना हो, यह सब अनिवार्य बदलाव केवल और केवल सर्वोच्च न्यायालय की दखल से ही संभव हुआ है। लेकिन आपराधिक पृष्ठभूमि वाले या फरारी में चल रहे लोगों के चुनाव लडऩे का सवाल हो या फिर तीन साल से कम की सजा पाने वाले लोगों के चुनाव लडऩे पर रोक का सवाल हो, इन तमाम मसलों पर सुप्रीम कोर्ट के भी हाथ बंधे हुए हैं। इस संबंध में वर्ष 2016 में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट यह कह चुका है कि चुनाव सुधार का काम संसद का है, लिहाजा वह इसमें सीधे दखल नहीं दे सकता।

राजनीति की उदासीनता : सवाल यह है कि संसद में भागीदारी रखने वाली राजनीति इस ओर क्यों ध्यान नहीं दे रही है? इसका स्पष्ट जवाब है कि आज राजनीति के लिए सत्ता ही साध्य रह गई है। चाहे कोई भी राजनीतिक दल हो, आन रिकार्ड वह घोषित करता है कि राजनीति वह समाज सेवा के लिए करता है। परंतु वास्तविकता में उसका प्रमुख उद्देश्य सत्ता हासिल करना रह गया है। पश्चिमी माडल के इस लोकतंत्र की यह कमी है और इस बारे में संबंधित विषय के विचारकों को ध्यान देना चाहिए।

बहरहाल सत्ता उसे हासिल होगी, जिसे लोकसभा या विधानसभा में बहुमत हासिल हो यानी जिसके सबसे ज्यादा लोग जीत कर सदन में पहुंचेंगे। ऐसे में अधिकांश राजनीतिक दल उसे ही अपना प्रत्याशी बनाने की कोशिश करते हैं, जो चुनाव जीत सके, चाहे वह जैसे भी जीते। अपने लोकतंत्र की यह भी कमी है कि इसमें मतदाता के नैतिक जागरण की कभी कोशिश हुई ही नहीं। घोषित तौर पर भारतीय राज्य धर्म और जाति निरपेक्ष रहा, लेकिन उसकी मूल इकाई नागरिक जाति, धर्म और आर्थिक खांचे में ही लगातार अपनी पहचान खोजते रहे। इसका नतीजा हुआ कि अपराधी भी अपने इलाके, समुदाय, जाति और धर्म के बीच नायकोचित छवि हासिल करने लगे। इसकी वजह से राजनीतिक दलों का उन पर ही भरोसा बढ़ता गया। परिवार केंद्रित प्राइवेट लिमिटेड टाइप पार्टियों ने इस चलन को सबसे ज्यादा बढ़ावा दिया है। जबकि वे कभी लोहिया का अनुयायी होने का दावा करती हैं तो कभी जयप्रकाश नारायण का। गांधी तो खैर सबके प्रेरक ही हैं। आर्थिक और बारूदी ताकत के दम पर उनकी राजनीति चलती है। लोहियावाद हो या जयप्रकाशवाद या फिर गांधीवाद, वे केवल मुलम्मा का काम करते हैं। अगर थोड़े अप्रिय शब्दों में कहें तो विचारधाराएं उनके लिए केवल उनकी दलीय चमड़ी को स्वच्छ दिखाने की कोशिश भर होती है। कई राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां अपराधियों से बचना चाहती हैं, नैतिकता के दबाव में वे ऐसा करने से बचना चाहती हैं। लेकिन वे उस विशेष सीट पर जीत का लालच भी नहीं छोड़ पातीं, तो वे अपने किसी पुछल्ले सहयोगी पार्टी के खाते में वह सीट आवंटित कर देती हैं और उसके चुनाव निशान पर आपराधिक पृष्ठभूमि के नेता को चुनाव मैदान में उतार दिया जाता है।

मुफ्तखोरी का चुनावी वादा : भारतीय चुनाव पिछले कुछ वर्षों में मुफ्तखोरी के वादों का पर्याय बन चुके हैं। तमिलनाडु में पिछली सदी के छठे दशक के आखिरी दौर में द्रविड़ मुनेत्र कषगम यानी द्रमुक ने मुफ्त में चावल देने का वादा शुरू किया। इसके बाद आंध्र प्रदेश में 1983 के चुनावों में नंदमुरि तारक रामाराव उर्फ एनटीआर ने एक रुपये किलो चावल देने का वादा किया। पहले द्रमुक और बाद में एनटीआर को भारी चुनावी जीत मिली। इसके बाद तो तकरीबन हर राज्य में सत्ता की चाहत रखने वाले राजनीतिक दलों ने चुनाव जीतने के बाद राजकोष का मुंह मुफ्तखोरी के लिए खोलने की जैसे परिपाटी ही बना दी। सबसे ज्यादा यह परिपाटी परवान चढ़ी तमिलनाडु में ही। कभी किसी ने साड़ी देने का वादा किया तो अगली बार किसी ने रंगीन टीवी देने की बात कही। हरियाणा में ओमप्रकाश चौटाला ने पिछली सदी के आखिरी दशक में बिजली के बिल माफ करने की परिपाटी शुरू की। उत्तर प्रदेश में 1990 के विधानसभा चुनावों के पहले चोरी से बिजली जलाने की घटनाएं बढ़ गई थीं। उन्हें चुनावों के ठीक पहले आम माफी दे दी गई, बशर्ते उन्होंने अपना कनेक्शन वैध करा लिया, जिसके लिए महज चंद रुपये दिए जाने थे। इसके बाद तो हर राज्य के चुनाव में यह मुफ्तखोरी बढ़ती गई। सत्ता प्राप्ति की चाहत में राजनीतिक दल यह भुलाते रहे कि अगर उन्हें सत्ता हासिल भी हो गई तो उनके सामने इन वादों से जो चुनौतियां आएंगी, आखिर में उन्हें ही निबटना पड़ेगा। वे यह भी भूल गए कि आम करदाताओं पर उनके इन वादों से कितना दबाव बढ़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई के दौरान 2013 में चुनाव आयोग को निर्देश दिया था कि मुफ्त में देने वाले वादों पर नियंत्रण के लिए वह उपाय करे। इस सिलसिले में 2015 में चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों की एक बैठक बुलाई थी और उसमें उनसे चुनावी घोषणाओं को पूरा करने के लिए अपना स्रोत बताने को भी कहा था। यह बात और है कि इसे लागू नहीं किया जा सका। चुनाव आयोग का मानना है कि इस पर रोक भी कड़े कानूनों के जरिये ही लगाया जा सकता है। वैसे इस तथ्य को जागरूक नागरिक भी समझते हैं। आपसी बातचीत में जागरूक नागरिक कहते भी हैं कि जब कंपनियों के उत्पाद उपभोक्ता कानून के दायरे में लाए जा सकते हैं तो राजनीतिक दलों के वादों को क्यों नहीं लाया जा सकता? कुछ मतदाताओं का कहना है कि उपभोक्ता कानून जैसा कानून चुनावी वादों के बारे में भी लगाया जाना चाहिए, ताकि चुनाव जीतने के बाद अगर राजनीतिक दल उसे पूरा न कर सकें तो मतदाता उनका हिसाब ले सकें।

सुधार की ओर बढ़ते कदम - राजनीतिक दलों का अपराधियों पर बढ़ता भरोसा हो या फिर आर्थिक ताकत के दम पर चुनाव को प्रभावित करना, इन बुराइयों पर मौजूदा जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत ही चुनाव आयोग ने काबू पाने की सफल कोशिश की है। बूथ लूटने की घटनाओं पर काबू पाने के लिए भी चुनाव आयोग ने मौजूदा कानूनों और नियमों को ही हथियार बनाया। पूर्व चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने मौजूदा कानून के आधार पर ही चुनावों को बहुत हद तक निष्पक्ष और अपराधविहीन बनाया। बाद में एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक राइट यानी एडीआर की जनहित याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों ने चुनाव सुधार की दिशा में सकारात्मक भूमिका निभाई। सुप्रीम कोर्ट ने मौजूदा कानून के ही तहत हलफनामे में गलत जानकारी देने के चलते चुनाव खारिज करने का फैसला भी दिया। चुनाव आयोग की सक्रियता और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों ने एक हद तक राजनीतिक दलों को नियंत्रित किया, अपराधियों पर लगाम लगाई और आर्थिक रिश्वतखोरी के खिलाफ कड़ा रुख दिखाया। इन कदमों से राजनीतिक दल चुनाव आयोग की मर्यादा रेखा के बीच काम करने को बाध्य हुए। लेकिन चुनाव सुधार की दिशा में अब भी बहुत कुछ हासिल किया जाना बाकी है।

चुनावों में खर्च की कानूनी सीमा इस बार चुनाव आयोग ने बढ़ा दी है। इसी महीने के पहले हफ्ते में आयोग ने प्रत्याशियों द्वारा किए जाने वाले खर्च को बढ़ा दिया है। आयोग के मुताबिक, नई सीमा के तहत अब संसदीय क्षेत्रों में प्रत्याशी 95 लाख रुपये खर्च कर सकेंगे। इससे पहले यह रकम 70 लाख लाख ही थी। इसी तरह विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार के लिए प्रत्याशियों की खर्च सीमा भी आयोग ने बढ़ाई है। आयोग के मुताबिक, नई सीमा के तहत अब विधानसभा प्रत्याशी अपने क्षेत्रों में 40 लाख रुपये खर्च कर सकेंगे। पहले यह खर्च सीमा 28 लाख रुपये थी। वैसे आफ द रिकार्ड किसी भी प्रत्याशी से पूछिए तो इस सीमा को भी कम ही बताएगा। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में एक वरिष्ठ पत्रकार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की पृष्ठभूमि वाले एक नेता के चुनाव प्रभारी थे। उस समय उन्होंने देखा कि चुनाव में कितने पैसे खर्च होते हैं। उन्होंने बताया था कि पैसे पानी की तरह बहाने पड़ते हैं। वैसे चुनाव आयोग ने एक काम और किया है कि इंटरनेट मीडिया पर होने वाले खर्च को भी इसी खर्च सीमा में डाल दिया है। फिर भी अभी यह देखना शेष है कि वाकई में चुनाव सुधार किस तेजी से आगे बढ़ता है।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)