[ निरंजन कुमार ]: भाषा ऐसी दोधारी तलवार है जो एक तरफ राष्ट्रीय एकीकरण या राष्ट्रनिर्माण में सकारात्मक भूमिका निभाती है तो कभी यह नेताओं के हाथ में एक हथियार बन जाती है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान हिंदी राष्ट्रीय एकता की सूत्रधार बनकर उभरी थी। वही भाषा अब संकीर्ण सोच वाले नेताओं के हाथ में अपने हित साधने का खिलौना बन गई है। भाषाई अस्मिता से जुड़ी राजनीति के नकारात्मक स्वरूप का ताजा उदाहरण बना है तमिलनाडु। इस दक्षिणी राज्य के नेताओं द्वारा नई शिक्षा नीति के मसौदे में उस बिंदु का विरोध किया जिसमें स्कूली कक्षाओं में त्रिभाषा फार्मूला और हिंदी के शामिल किए जाने की बात कही गई थी।

सवाल है कि आखिर इस मुद्दे पर विवाद क्यों हुआ और हिंदी भाषी प्रदेशों का इस मामले में क्या दायित्व है? 

कृष्णास्वामी कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में बनी समिति ने नई शिक्षा नीति का जो मसौदा सौंपा है उसके खंड 4.5 में भारत की बहुभाषाई शक्ति एवं राष्ट्र निर्माण में भाषा की भूमिका पर गहराई से विचार करते हुए भाषा संबंधित विभिन्न अनुशंसाएं की गई हैं। इन्हीं अनुशंसाओं में से एक है स्कूली कक्षाओं में त्रिभाषा फार्मूले को लागू करने की बात। इसके अनुसार हर राज्य में स्कूली स्तर पर तीन भाषाएं पढ़ाई जाएंगी। हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी, अंग्रेजी और एक अन्य आधुनिक भारतीय भाषा एवं गैर-हिंदी राज्यों में वहां की क्षेत्रीय भाषा, अंग्रेजी और हिंदी की पढ़ाई का प्रस्ताव रखा गया।

पहले भी कई शिक्षा आयोगों-समितियों जैसे अखिल भारतीय शिक्षा परिषद 1956, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 और फिर 1992 में इस त्रिभाषा फार्मूले को स्वीकार किया गया, लेकिन उस पर ठीक से अमल नहीं हो सका। जनवरी 2000 में स्कूली शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचे ने त्रिभाषा के इस फार्मूले पर विचार करते हुए रेखांकित किया था कि कुछ राज्यों ने सिर्फ द्विभाषा नीति को ही अपनाया तो कुछ ने एक अन्य आधुनिक भारतीय भाषा की जगह क्लासिकल भाषाओं जैसे संस्कृत या अरबी को अपना लिया।

कुछ बोर्ड-संस्थाओं ने तो हद करते हुए तीसरी भाषा के रूप में फ्रेंच और जर्मन जैसी दूसरी अन्य विदेशी भाषाओं तक को अनुमति दे दी। इस तरह एक अच्छी और सुविचारित नीति जो देश को एक सूत्र में बांध सकती थी, केंद्र और राज्य सरकारों की कमजोर इच्छाशक्ति या उदासीनता के कारण केवल कागजों में सिमटकर रह गई।

यह आश्वस्तकारी है कि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में गठित कस्तूरीरंगन समिति ने विभिन्न बिंदुओं पर समग्रता से विचार कर नई शिक्षा नीति में त्रिभाषा फार्मूले पर पुन: जोर दिया है। विभिन्न साइको-लिंग्विस्टिक शोधों का हवाला देते हुए समिति ने उल्लेख किया है कि बच्चों में एकाधिक भाषाओं के सीखने की सहज और असीम क्षमता होती है और यह भाषाई ज्ञान जहां उनकी संज्ञानात्मक क्षमता और ज्ञान क्षितिज का विस्तार करेगा तो वहीं राष्ट्रीय एकीकरण में भी बहुत सहायक सिद्ध होगा।

मगर तमिलनाडु के नेताओं और कथित बुद्धिजीवियों ने पहले की तरह त्रिभाषा नीति का विरोध करना शुरू कर दिया है। उनका आरोप है कि उन पर हिंदी थोपी जा रही है। इसे उत्तर भारतीयों का षड्यंत्र बताया जा रहा है कि इससे तमिल भाषा खतरे में पड़ जाएगी। ये सारे आरोप बेबुनियाद हैं। हिंदी थोपने जैसी कोई बात ही नहीं है, क्योंकि अभी यह प्रस्ताव है अंतिम फैसला नहीं। तमिलभाषी मंत्रियों डॉ. एस जयशंकर और निर्मला सीतारमण सहित मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने स्पष्ट कर दिया है कि सरकार सभी पक्षों की राय लेकर अंतिम निर्णय करेगी और सरकार सभी भारतीय भाषाओं के विकास के लिए प्रतिबद्ध है।

हिंदी भाषियों के षड्यंत्र की बात इसलिए भी आधारहीन है, क्योंकि न केवल इस प्रारूप समिति के अध्यक्ष दक्षिण के एक गैर-हिंदी भाषी हैं, बल्कि 11 में से दो-दो सदस्य केरल और कर्नाटक तथा एक महाराष्ट्र जैसे गैरर्-ंहदी राज्यों के हैं। इसी तरह तमिल या अन्य भारतीय भाषाओं के खतरे में पड़ने की बात भी गले नहीं उतरती, क्योंकि एक तो हिंदी की पढ़ाई विभिन्न राज्यों की क्षेत्रीय भाषाओं की कीमत पर नहीं होगी, बल्कि उनसे इतर होगी। वहीं हिंदी प्रदेशों में भी अन्य भारतीय भाषाओं की पढ़ाई शुरू होने पर इन क्षेत्रीय भाषाओं का विस्तार ही होगा।

फिर हिंदी की यह पढ़ाई सिर्फ सामान्य भाषाई दक्षता के लिए है, न कि रोजगार से संबंधित प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए। यह दलील भी गले नहीं उतरती कि इससे तमिल या गैर-हिंदी भाषी लोग भी दूसरे दर्जे के नागरिक हो जाएंगे। उल्टे सिर्फ हिंदी के थोड़े ज्ञान से तमिलनाडु के बाहर तमिलवासियों को जम्मू-कश्मीर और गुजरात से लेकर अरुणाचल जैसे राज्यों तक में आम लोगों से घुलने-मिलने, रोजगार और व्यापार में आसानी होगी। 1940 या 1960 के दशक के भारत से आज का भारत काफी बदल गया है। व्यापार, रोजगार, शिक्षा और पर्यटन आदि के लिए अब एक दूसरे राज्य में आवागमन बहुत अधिक हो रहा है।

यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है कि एक केरलवासी या एक आंध्र-तेलंगानावासी को अपने राज्यों के बाहर सामान्य कामकाज में वैसी कठिनाई नहीं होती जितना एक तमिल व्यक्ति को होती है। ध्यातव्य है कि केरल या आंध्र आदि गैर-हिंदी भाषी राज्यों के स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई पर भी ध्यान दिया जाता है।

इस पूरे विवाद में हिंदी भाषी राज्यों की भी अहम भूमिका है। बड़ी संख्या में दक्षिण के छात्र हिंदी पढ़ते हैं, लेकिन हिंदी भाषी सरकारों ने यह नहीं सोचा कि हमें भी अन्य क्षेत्रीय भाषा खास तौर से द्रविड़ परिवार की कोई भाषा सीखना चाहिए। गैर-हिंदी भाषियों को हिंदी के वर्चस्व का जो डर सताता है उसे हम तभी दूर कर सकते हैं जब हम उनकी भाषाएं सीखें। मसौदे में इसी से जुड़ा हुआ एक विवादास्पद बिंदु है हिंदी प्रदेशों में तीसरी भाषा के रूप में क्षेत्रीय भाषाओं की जगह संस्कृत पढ़ने का विकल्प। पहले भी इसी कारण हिंदी भाषी राज्य दूसरी क्षेत्रीय भाषाएं छोड़कर संस्कृत पढ़ते रहे हैं जो गैर-हिंदी राज्यों में संदेह और असंतोष का कारण बनता है। मेरा यह दृढ़ मत है कि तीसरी भाषा अनिवार्य रूप से संस्कृत के बजाय कोई क्षेत्रीय भाषा ही हो। 

हमारी विरासत को समझने के लिए नि:संदेह संस्कृत जरूरी है, लेकिन उसकी पढ़ाई अलग से हो। मसौदे में यह पहलू भी उल्लेखनीय है जिसमें सरकारी-निजी सभी स्कूलों में मिडिल स्तर पर संस्कृत या क्लासिकल भाषाओं में न्यूनतम दो साल की पढ़ाई की जरूरत बताई गई है। सरकार द्वारा स्पष्टीकरण के बाद भी दक्षिणी राज्यों से हिंदी लेकर लगातार भड़काऊ बयानों और विरोधियों के सोशल मीडिया अभियान को देखते हुए इस त्रिभाषा नीति में परिवर्तन कर दिया गया है।

अब गैर-हिंदी राज्यों में भी हिंदी अनिवार्य नहीं होगी और सभी राज्यों में अपने राज्य से बाहर की एक भाषा पढ़नी होगी। वह हिंदी या कोई अन्य भाषा भी हो सकती है। सरकार के इस कदम पर हालांकि कस्तूरीरंगन समिति के दो सदस्यों और हिंदी पट्टी के लोगों ने विरोध जताया है, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि देश की भावात्मक एकता सर्वोपरि है और इसमें हिंदी प्रदेशों को विशेष जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी।

( लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर हैं ) 

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