[ बलबीर पुंज ]: रामजन्मभूमि अयोध्या में राम मंदिर कब बनेगा? इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने जो रुख अपनाया उससे जहां समाज का एक बड़ा वर्ग हतप्रभ है वहीं साधु-संतों के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद और सामान्यजन आंदोलित हैं। अयोध्या विवाद के समाधान में और देरी के कारण ही कुछ लोगों की ओर से यह मांग भी हो रही है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण सुनिश्चित करने के लिए कानून का सहारा लिया जाए। क्या यह विडंबना नहीं कि जो अदालत आधी रात को भी मामले सुन चुकी हो उसके पास दशकों पुराने इस अहम मामले की सुनवाई के लिए फिलहाल समय नहीं है? गत दिवस भी उसने इस मामले की शीघ्र सुनवाई की याचिका ठुकरा दी।

सैकड़ों वर्षों से करोड़ों हिंदू अयोध्या में अपने आराध्य और इस सनातन राष्ट्र की पहचान प्रभु राम के भव्य मंदिर के लिए संघर्ष कर रहे हैं जिसमें सफलता कब मिलेगी, यह अभी तक अनिश्चित है। यदि सोमनाथ मंदिर की भांति अयोध्या में राम मंदिर का पुनर्निर्माण हो गया होता तो हिंदू-मुस्लिम समुदायों के बीच कटु संबंधों का एक बड़ा अवरोधक दूर हो जाता। इस अवरोध को दूर करने में जो बाधा बने हैैं उनमें वे भी हैैं जो यह मानते रहे हैैं कि भारत एक राष्ट्र न होकर अलग-अलग राष्ट्रों का समूह है। वाम विचारधारा वाले ऐसे ही लोगों ने पाकिस्तान की मांग का समर्थन किया था। क्या स्वतंत्रता के 71 वर्ष बाद इस स्थिति में परिवर्तन आया है? शायद नहीं। यदि बदलाव आया होता तो अयोध्या में राम मंदिर का पुनर्निर्माण आज भी अधर में नहीं लटका होता।

क्या यह सत्य नहीं कि जिन शक्तियों ने पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए पैरवी की थी आज वही अयोध्या में रामजन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर के निर्माण का विरोध कर रही हैैं। आज तक अयोध्या का समुचित हल क्यों नहीं निकल पाया? समाज के बहुत बड़े वर्ग को यह स्पष्ट ही नहीं है कि विवाद किसी भूखंड के स्वामित्व या फिर किसी मस्जिद के विरुद्ध नहीं रहा है, अपितु यह शुद्ध रूप से करोड़ों हिंदुओं की आस्था और देश की सनातन पहचान से जुड़ा है। अयोध्या, सोमनाथ, काशी और मथुरा के प्रतिष्ठित मंदिरों को विदेशी आक्रांताओं ने कई बार ध्वस्त किया।

प्रत्येक विध्वंस के बाद और विशेषकर इन चार मंदिरों का श्रद्धालुओं द्वारा हर बार पुनर्निर्माण भी हुआ। कालांतर में बार-बार इन मंदिरों को विदेशी हमलावरों द्वारा जमींदोज करना और हर बार उनका पुनर्जीवित होना-अपने भीतर छह सौ वर्षों के संघर्षमय इतिहास को समेटे हुए है। वास्तव में, इन चारों मंदिरों का इतिहास, भारत की कालजयी संस्कृति और पहचान को बार-बार घाव देना और उससे उबरने का प्रयास इस राष्ट्र के अस्तित्व और जीवन मूल्यों को बचाने का संघर्ष है।

रामजन्मभूमि आंदोलन उसी सतत संघर्ष का एक भाग है। स्वतंत्र भारत में अयोध्या का मामला 1949 से विभिन्न अदालतों का चक्कर काट रहा है, किंतु इसका संपूर्ण कानूनी इतिहास 133 वर्ष पुराना है। वर्ष 1885 में पहली बार मंदिर निर्माण हेतु याचिका दाखिल की गई थी। सर्वोच्च न्यायालय के हालिया रुख से यही संकेत मिला है कि अभी यह मामला और अधर में लटका रह सकता है। ध्यान रहे कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अयोध्या विवाद पर अपना फैसला 2010 में दे दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में उस पर रोक लगा दी और तबसे उसके फैसले का इंतजार है। यह इंतजार बढ़ता ही जा रहा है।

यहां इसका स्मरण करना उचित होगा कि भारत में 1947 के बाद से आस्था से जुड़े मामलों को कैसे-कैसे निपटाया गया है? वर्ष 1988 में सलमान रुश्दी के उपन्यास ‘सेटेनिक वर्सेस’ का लंदन में प्रकाशन हुआ। तब भारत में मुस्लिम समाज की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए राजीव गांधी सरकार ने देश की 87 प्रतिशत गैर-मुस्लिम आबादी के पढ़ने के अधिकार की अनदेखी करते हुए इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया। तसलीमा नसरीन के उपन्यास ‘लज्जा’ के साथ भी ऐसा हुआ। यही नहीं, 2015 में एक उर्दू अखबार की महिला संपादक मुंबई में इसलिए गिरफ्तार कर ली गई थीं, क्योंकि उन्होंने ‘चार्ली एब्दो’ में प्रकाशित पैगंबर मोहम्मद साहब के विवादित कार्टून को भूलवश दोबारा छाप दिया था। उन्होंने माफी भी मांगी, लेकिन उन्हें माफी नहीं मिली। क्या इन घटनाक्रमों में सत्तातंत्र या पीड़ित पक्ष ने न्यायिक हस्तक्षेप की प्रतीक्षा की थी?

वर्ष 1985 का शाहबानो प्रकरण जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने तलाकशुदा मुस्लिम पत्नी को उसके पूर्व पति से गुजारा भत्ता लेने का ऐतिहासिक निर्णय दिया था, उसे पूर्ण बहुमत वाली तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं के दबाव में 1986 में संसद द्वारा पलट दिया था। इस घटनाक्रम में क्या संदेश निहित है? क्या यह कि आस्था से जुड़े विषयों पर निर्णय देने में अदालत सक्षम नहीं है और संबंधित मामलों को जांच के दायरे में नहीं लाया जा सकता?

रामजन्मभूमि का मामला अनसुलझा इसलिए भी है, क्योंकि भगवान राम में विश्वास रखने वाले करोड़ों हिंदू आज तक ऐसे प्रश्नों के मकड़जाल में फंसे हुए हैं जिसमें अक्सर राम के जन्म और बाबरी मस्जिद से पहले वहां उनके मंदिर होने का प्रमाण मांगा जाता है। क्या आस्था से जुड़े मामलों में ऐसे प्रश्नों की कोई प्रासंगिकता है? मक्का और मदीना के बाद मुसलमानों का तीसरा पवित्र स्थल अल-अक्सा मस्जिद यरुशलम में स्थित है। यहूदियों का दावा है कि इसी मस्जिद के स्थान पर पहले उनका एक विशालकाय सिनेगॉग (मंदिर) हुआ करता था जिसे रोमन शासकों ने तोड़ दिया था। अब उसी कथित सिनेगॉग अवशेष के रूप में यहां एक पवित्र परिसर और दीवार बची है जिसे पश्चिमी दीवार कहते है जहां दुनियाभर के यहूदी आकर पूजा-अर्चना करते है।

पश्चिमी दीवार के पीछे ही अल-अक्सा मस्जिद और डोम ऑफ द रॉक स्थित है। इस्लामी मान्यताओं के अनुसार पैगंबर मोहम्मद यहीं से एक उड़ने वाले घोड़े में बैठकर स्वर्ग गए थे। कहा जाता है कि उसी घोड़े के पैरों के निशान आज भी वहां मौजूद हैं। ईसाई भी इस प्राचीन नगर को पवित्र मानते हैं। मान्यता है कि यहां स्थित ‘चर्च ऑफ द होली स्कल्पचर’ में ईसा मसीह को सूली पर लटकाया गया था और उनके शव को इसी स्थान पर दफनाया गया था। यरुशलम को लेकर विवाद है, परंतु किसी ने भी मुस्लिम समाज से इस प्रकार का असभ्य प्रश्न पूछने का साहस नहीं किया कि 1400 वर्ष बाद भी वहां घोड़े के पैरों के निशान कैसे मौजूद हैं?

विरोधी पक्ष भी मुस्लिम आस्था को ध्यान में रखते हुए ऐसे मूर्खतापूर्ण सवाल नहीं करते। भारतीय वामपंथी इस विवाद में अक्सर फलस्तीन का साथ देते हैं, किंतु उन्होंने कभी भी उनसे संबंधित मान्यताओं को प्रमाणित करने की बात नहीं कही। फिर क्यों हिंदुओं की आस्था, परंपरा और पहचान संबंधी मुद्दों पर बार-बार प्रश्न उठाया जा रहा है?

 

[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]