[ डॉ. दीपक के श्रीवास्तव ]; भारत में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर अक्सर सवाल उठते हैं। इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी ने देश में उच्च शिक्षा की स्थिति सुधारने के लिए एक खाका पेश किया है। आयोग को कई उत्तरदायित्व मिले हुए हैं जिससे उसकी भूमिका काफी व्यापक हो जाती है। इनमें विश्वविद्यालय प्रणाली में समन्वय, निर्धारण और अध्यापन, परीक्षा एवं शोध के लिए उचित मानदंड बनाकर उन्हें बरकरार रखना जैसी जिम्मेदारियां प्रमुख हैं।

देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास में उच्च शिक्षा की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वहीं इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि यह उच्च शिक्षा की गुणवत्ता ही है जो किसी विकसित औद्योगिक देश और अल्पविकसित राष्ट्र में अंतर पैदा करती है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि दक्षिण कोरिया और फिनलैंड जैसे छोटे देशों ने कैसे उल्लेखनीय तरक्की हासिल की। एक वक्त इन देशों की अर्थव्यवस्था भी कृषि प्रधान थी। हालांकि इन देशों के नीति निर्माताओं ने उच्च शिक्षा की गुणवत्ता पर जोर दिया। इससे उनकी कायापलट हो गई। ऐसी नीतियों के दम पर ये देश बेहद प्रतिस्पर्धी मुल्कों की फेहरिस्त में शामिल हो गए और इन्होंने खुद को दुनिया के प्रमुख औद्योगिक देशों के रूप में भी ढाल लिया।

भारत में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की जरूरत को समझते हुए यूजीसी ने एक योजना तैयार की है। इस महत्वाकांक्षी योजना में एक विशेष रणनीति का भी उल्लेख है जिसके अनुसार वर्ष 2022 तक कैसे इससे जुड़े लक्ष्य हासिल किए जाएंगे।

इसमें सबसे पहला तो यही है कि स्नातक स्तर पर तस्वीर सुधारी जाएगी। इसके तहत प्रयास किए जाएंगे कि कम से कम 50 प्रतिशत स्नातकों को रोजगार या स्व-रोजगार से जोड़ा जाए। इस योजना का दूसरा पड़ाव है कि छात्रों का समाज और उद्योग जगत से जुड़ाव कराने के साथ ही यह सुनिश्चित किया जाए कि कम से कम दो तिहाई छात्र सार्थक गतिविधियों में सक्रिय रहें। तीसरा बिंदु छात्रों में टीम भावना, संचार और नेतृत्व के गुणों, उद्यमिता के भाव और महत्वपूर्ण निर्णयन क्षमता का समावेश करना है। इसका चौथा पड़ाव यही तय करना है कि किसी भी समय शिक्षकों के स्वीकृत पदों में से 10 प्रतिशत से अधिक रिक्त न रहें। साथ ही शिक्षकों को उच्च शिक्षा के ताजा रुझानों से भी अवगत कराने के प्रयास किए जाएं। पांचवां बिंदु यह रखा गया है कि उच्च शिक्षा के प्रत्येक संस्थान को राष्ट्रीय आकलन एवं प्रमाणन परिषद यानी एनएएसी से वर्ष 2022 तक कम से कम 2.5 के स्कोर के साथ मान्यता हासिल करनी होगी।

इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए यूजीसी ने कई पहलुओं को लेकर एक रणनीति भी बनाई है। मसलन अपनी इस मुहिम को सफल बनाने के लिए आयोग ने परिणाम आधारित शैक्षिक ढांचा यानी ओबीई अपनाने का फैसला किया है। इसमें नियमित अंतराल पर पाठ्यक्रमों को दोहराया जाएगा। अध्यापन के लिए सूचना, संचार एवं तकनीक आधारित माध्यमों का सहारा लिया जाएगा। समाज एवं उद्योग के साथ भी संपर्क होगा। सभी नए शिक्षकों के लिए वार्षिक प्रशिक्षण का भी प्रस्ताव है।

शिक्षा प्रशासकों के लिए नेतृत्व क्षमता और प्रबंधन का प्रशिक्षण दिया जाएगा। गुणवत्तापरक शोध को प्रोत्साहन मिलेगा। साथ ही गैर-मान्यता प्राप्त संस्थानों का भी मार्गदर्शन कर सुनिश्चित किया जाएगा कि कोई भी संस्थान एनएएसी से वर्ष 2022 तक मान्यता प्राप्त कर सकता है। हालांकि इन सभी में परिणाम आधारित शैक्षिक तंत्र सबसे महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय पहल है। दुनिया के तमाम देशों ने इसे सफलतापूर्वक लागू किया है। जहां तक अंतरराष्ट्रीय स्तर की बात है तो वर्ष 1989 में बने वाशिंगटन समझौते में परिणाम आधारित शैक्षिक तंत्र वाली व्यवस्था को स्वीकार किया गया था। यह एक ऐसा समझौता है जो इस तंत्र के तहत दी गई डिग्र्रियों को स्वीकार करता है।

परिणाम-आधारित शैक्षिक तंत्र इस बुनियादी अवधारणा पर बना होता है कि शिक्षा को ज्ञान, कौशल और दृष्टिकोण जैसे विशेष उद्देश्यों के साथ जोड़ा जाए। यह तंत्र इस बात की हिमायत करता है कि डिग्र्री यानी उपाधियां छात्र के ज्ञान, कौशल, रवैये, मूल्यों और अपेक्षित अकादमिक मानकों के अनुरूप दी जाएं। प्रत्येक कार्यक्रम का अध्ययन परिणाम तय करता है कि कि किसी छात्र का क्या स्तर होगा और पाठ्यक्रम के अंत तक वह किन-किन बातों को जानने में सक्षम हो सकेगा। परिणाम आधारित मॉडल असल में छात्र केंद्रित ऐसा शिक्षा मॉडल है जो विशेष नतीजों के माध्यम से छात्र के प्रदर्शन का आकलन करता है। इसमें स्पष्टता के भाव के साथ ही पर्याप्त लचीलापन भी होता है। इसमें परिणामों पर ध्यान केंद्रित करने से यह अनुमान भी लग जाता है कि पाठ्यक्रम या कार्यक्रम को सुचारू रूप से चलाने के लिए क्या-कुछ करने की दरकार है।

नतीजतन छात्रों को यह पता होगा कि उनसे क्या अपेक्षाएं हैं तो शिक्षक भी इससे भलीभांति वाकिफ होंगे कि पाठ्यक्रम की आवश्यकता और अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए उन्हें क्या करना होगा। परिणाम आधारित शिक्षा इसी दर्शन में विश्वास करती है कि पूर्व ज्ञान, सीखने की शैली और भविष्य में अपनी पसंद के करियर की आकांक्षा के लिहाज से प्रत्येक छात्र अपने आप में खास है। लिहाजा इसमें अध्यापन या आकलन के लिए कोई विशेष तौर-तरीका नहीं थोपा जाता और लक्षित परिणाम हासिल करने में छात्रों की मदद के लिए अलग-अलग आकलन पद्धतियों की गुंजाइश होती है। संस्थागत स्तर पर परिणाम आधारित तंत्र उच्च शिक्षा संस्थानों को एक महत्वपूर्ण संदर्भ बिंदु उपलब्ध कराता है जिसमें वे अध्यापन-अध्ययन रणनीति निर्माण, छात्रों के सीखने के स्तरों का आकलन और अकादमिक मानदंड तय कर सकते हैं। साथ ही यह तंत्र कार्यक्रमों और अकादमिक मानकों की अंतरराष्ट्रीय अनुरूपता में भी सहायक होता है जिससे छात्र एक देश से दूसरे देश में शिक्षा के लिए आवाजाही कर सकते हैं।

भारत का उच्च शिक्षा तंत्र दुनिया के सबसे बड़े शिक्षा तंत्रों में से एक है। स्वतंत्रता के बाद भारत ने उच्च शिक्षा के मोर्चे पर सराहनीय वृद्धि की जिसकी रफ्तार तेज होने के साथ दायरा भी बहुत व्यापक रहा। हालांकि चिंता का एक विषय यह भी है कि जिस तरह से संस्थानों की संख्या बढ़ी है शिक्षा की गुणवत्ता उस अनुपात में नहीं सुधरी है। समय आ गया है कि भारतीय उच्च शिक्षा ढांचे की गुणवत्ता पर विचार करने के साथ ही सुनिश्चित किया जाए कि अधिक से अधिक भारतीय संस्थान दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में अपनी जगह बना सकें। इस लिहाज से उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने में यूजीसी के ये कदम मील के पत्थर साबित हो सकते हैं।

[ लेखक भारतीय प्रबंध संस्थान, तिरुचिरापल्ली में प्रोफेसर हैं ]