विवेक काटजू; जम्मू-कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र की हालिया मानवाधिकार रिपोर्ट विवादों के साये में है। 14 जून को जारी हुई 49 पृष्ठों की इस रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के उच्चायुक्त जैद राद हुसैन ने तैयार किया है। इसमें अगस्त 2016 से अप्रैल 2018 के बीच जम्मू-कश्मीर के साथ ही पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर यानी पीओके में भी मानवाधिकारों की स्थिति का संज्ञान लिया गया है।

रिपोर्ट तैयार करने के लिए जैद ने जम्मू-कश्मीर और पीओके का दौरा करने के लिए भारत और पाकिस्तान से अनुमति मांगी थी। भारत सरकार ने उन्हें अनुमति न देकर एकदम सही किया, क्योंकि ऐसी रिपोर्ट तैयार करने की जैद की पहल भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप ही थी। पाकिस्तान ने जैद से कहा कि वह उन्हें तभी इजाजत देगा जब भारत से भी उन्हें इसकी अनुमति मिलेगी। भारत के रुख पर अपना फैसला करने की पाकिस्तान की इस रणनीति से उसका व्यवहार किसी स्वतंत्र सोच वाले देश जैसा नहीं लगता। बहरहाल किसी देश से अनुमति न मिलने के बावजूद जैद ने अपनी मुहिम बढ़ाई।

उन्होंने मीडिया में आई खबरों, बयानों और संभवत: किसी तीसरे देश में हुई कुछ बैठकों के आधार पर अपनी रिपोर्ट तैयार की। यह रिपोर्ट तैयार करने का गलत तरीका है, क्योंकि इससे संदेह बना रहता है कि रिपोर्ट की सामग्र्री भरोसेमंद है या नहीं? इससे पक्षपातपूर्ण रपट ही तैयार हो सकती है। जैद ने बिल्कुल यही किया है। इसमें आरोप लगाया गया है कि जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों द्वारा बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का उल्लंघन किया जाता है। इसमें वही आरोप दोहराए गए हैं जो भारत विरोधी तत्व और पाकिस्तान उछालते रहते हैं।

रिपोर्ट में आरोप मढ़ा गया है कि सुरक्षा बल निर्दोष लोगों पर अत्याचार और महिलाओं का उत्पीड़न करते हैं। इसमें सरकार को भी आड़े हाथों लिया गया है कि वह दोषी सुरक्षाकर्मियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करती। अफस्पा कानून और पैलेट गन के इस्तेमाल की भी तीखी आलोचना करते हुए कहा गया है कि सरकार ने सुरक्षाकर्मियों के मामले में एक भी अभियोजन को मंजूरी नहीं दी है। ऐसे मिथ्या आरोप वाली जैद की रिपोर्ट में उन मुश्किल हालात की अनदेखी हुई है जिनमें बीते तीन दशकों के दौरान सीमा पार आतंक के चलते सुरक्षा बलों की चुनौती और कड़ी हुई है।

अपने पूर्वाग्रह जाहिर करते हुए जैद ने जम्मू-कश्मीर में सक्रिय आतंकी समूहों को ‘हथियारबंद समूह’ कहा है। जबकि खुद संयुक्त राष्ट्र लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों को अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठनों की सूची में डाल चुका है। खुद संयुक्त राष्ट्र के तथ्यों को नजरअंदाज करने वाली जैद की रिपोर्ट अपने आप ही संदिग्ध बन जाती है। हैरत है कि वह अपने को सही साबित करने की कोशिश कर रहे हैैं।

अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत कुछ परिस्थितियों में हथियारबंद समूह वैध माने जाते हैं जैसे उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष में, लेकिन आतंकी समूहों को कभी वैधता नहीं मिलती। रिपोर्ट में उल्लेख है कि ये हथियारबंद समूह नागरिकों के साथ ज्यादती करते हैं, लेकिन इसका जिक्र नहीं किया गया कि वे पाकिस्तान की शह पर ऐसा करते हैं जो कश्मीर में समस्याओं की प्रमुख जड़ है। रिपोर्ट में यह तो कहा गया है कि पीओके में सरकारी तंत्र नागरिकों को कोई अधिकार नहीं देता, लेकिन भारतीय सुरक्षा बलों से जुड़े मानवाधिकारों को कहीं ज्यादा गंभीर बताया गया है। जैद ने इस पहलू का संज्ञान ही नहीं लिया कि पीओके के लोगों को कभी कोई अधिकार मिले ही नहीं और उन्हें हमेशा खौफजदा रखा गया। साफ है कि वह पाकिस्तान की बेहतर छवि दिखाना चाहते थे।

जैद ने मानव अधिकार परिषद से गुहार लगाई है कि ‘कश्मीर में मानव अधिकारों के आरोपों की व्यापक, स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय पड़ताल के लिए एक जांच आयोग का गठन किया जाए।’ परिषद में 47 सदस्य देश हैं जिनका चुनाव संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा किया जाता है। कोई भी देश लगातार दो बार से ज्यादा इसका सदस्य नहीं रह सकता। एक कार्यकाल तीन साल का होता है। भारत 2011 से 2017 तक लगातार दो बार इसका सदस्य रह चुका है। दूसरी ओर पाकिस्तान फिलहाल इसका सदस्य है। उसने स्वाभाविक रूप से इसका स्वागत किया है। तय है कि वह जैद के प्रस्ताव का समर्थन भी करेगा।

भारत ने इस रिपोर्ट को पूरी तरह खारिज करके एकदम सही किया। सरकार ने इसे पक्षपातपूर्ण एवं पूर्वाग्र्रह से ग्र्रस्त बताते हुए कहा कि रिपोर्ट में सीमा पार आतंक की अनदेखी की गई है। भारत ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को याद दिलाया है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और इसका कुछ हिस्सा अवैध रूप से पाकिस्तान के कब्जे में है। यह इसी बात का संकेत था कि भारत की संप्रभुता पर सवाल उठाने की किसी भी कोशिश को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इस मामले पर सरकार का समर्थन कर कांग्रेस पार्टी ने परिपक्व प्रतिक्रिया दी। देश की संप्रभुता से जुड़े मसलों पर ऐसी एकता बेहद जरूरी है। हालांकि बाद में कांग्र्रेस के एक प्रवक्ता ने इस बात के लिए सरकार को आड़े हाथ भी लिया कि उसने संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार उच्चायुक्त को ऐसी रिपोर्ट छापने ही कैसे दी?

इस परिषद के सदस्यों को समझना चाहिए कि अगर उन्होंने जैद की सिफारिश को स्वीकार कर लिया तो भारत के राजनीतिक वर्ग के साथ-साथ देश की जनता भी उनके फैसले के खिलाफ खड़ी होगी। ध्यान रहे कि हाल में अमेरिका इजराइल के साथ भेदभाव का आरोप लगाकर इस परिषद से बाहर हो गया है। यह जरूरी तो है कि भारतीय राजनयिक परिषद के सदस्यों के साथ संवाद करें, लेकिन इस रिपोर्ट को लेकर बहुत ज्यादा चिंता करने की भी जरूरत नहीं। इसके आसार कम ही हैैं कि परिषद के सदस्य अंतरराष्ट्रीय जांच की मांग मानेंगे। आज दुनिया में भारत की बड़ी हैसियत है और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियों से भी भली-भांति वाकिफ है जो जम्मू-कश्मीर में कायम समस्याओं का मूल कारण है। कुछ देश कदम उठाएंगे तो भारत के साथ उनके रिश्ते प्रभावित होंगे। निजी तौर पर कुछ देश शायद भारत को रिपोर्ट के कुछ पहलुओं पर सवाल उठाने की सलाह देंगे।

मानवाधिकारों का सम्मान और प्रोत्साहन अंतरराष्ट्रीय समुदाय के एजेंडे में होना चाहिए, मगर वे इसकी अनदेख्री नहीं कर सकते कि जैद ने भारत की संप्रभुता को नकारते हुए अपने अधिकारों के दायरे से बाहर जाकर काम किया है। जैद जैसे अधिकारी संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों के स्वामी नहीं, बल्कि सेवक ही हैं। जैद अपने काम को लेकर स्वच्छंद नहीं हो सकते। उन्हें यह पता होना चाहिए कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां मानव अधिकारों की रक्षा के लिए एक तंत्र बना हुआ है।

स्वाभाविक रूप से देश यही अपेक्षा करता है कि उकसावे की तमाम कार्रवाई के बावजूद सुरक्षा बल संयम एवं अनुशासन के उच्च मानकों का पालन करें। जैद की रिपोर्ट में कश्मीरी पंडितों को राहत देने की भी सिफारिश की गई है। आखिरी सिफारिश भारत और पाकिस्तान द्वारा वहां जनमत संग्र्रह कराने की है। यह बेहद बेतुकी बात है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर के लोग पूरी तरह भारतीय हैं। संविधान से उन्हें सभी अधिकार मिले हैं। जैद के प्रस्ताव उनके भारत विरोधी रुख को ही दर्शाते हैं।

[ लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैैं ]