आमना बेगम। देश में अन्य अनेक मुद्दों पर चर्चा के बीच समान नागरिक संहिता पर भी बहस जारी है। जहां कुछ राज्य सरकारें इसका समर्थन कर रही हैं, वहीं मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड जैसे संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। उत्तराखंड सरकार ने तो इसके लिए एक आयोग तक का गठन कर दिया है। कुछ और राज्य सरकारें इसी दिशा में पहल कर रही हैं। एक मुस्लिम महिला होने के नाते मेरा मानना है कि मुस्लिम समुदाय को समान नागरिक संहिता का समर्थन करने में सबसे आगे होना चाहिए। इस संहिता का उद्देश्य एक ऐसी व्यवस्था बनाना है, जहां हर भारतीय नागरिक कानून के समक्ष समान हो। भारत में जहां आपराधिक कानून देश के हर नागरिक पर समान रूप से लागू होते हैं, वहीं सिविल मामलों में कई समुदायों के अपने पर्सनल यानी निजी कानून हैं, जो कहीं-कहीं तो संहिताबद्ध भी नहीं हैं।

गोवा में किसी तरह के निजी कानून लागू नहीं हैं। वहां समान नागरिक संहिता लागू है और उससे किसी को परेशानी नहीं। समान नागरिक संहिता के तहत विवाह, तलाक, गोद लेने, उत्तराधिकार, गुजारा भत्ता, संपत्ति आदि से जुड़े मामले आते हैं। साफ है कि समान संहिता महिलाअधिकारों से जुड़ी समस्याओं और मुद्दों पर सर्वाधिक सकारात्मक प्रभाव डालने वाली है। हालांकि सभी समुदायों के निजी कानूनों में समय के साथ थोड़ा-बहुत बदलाव करके उन्हें महिलाओं के हित में करने की कोशिश की गई है और इसमें कुछ सफलताएं भी मिली हैं, लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। दरअसल निजी कानून मूलत: पुराने रस्मो-रिवाज, मान्यताओं और पितृसत्तात्मक धार्मिक व्याख्याओं पर ही आधारित हैं।

ङ्क्षहदू कोड बिल के तहत अब ङ्क्षहदू महिलाएं परिवार की संपत्ति में बराबर की हकदार हैं, परंतु निजी कानूनों में लैंगिक असमानता के चलते मुस्लिम महिलाओं को इस मामले में सीमित अधिकार ही हासिल हैं। मुस्लिमों में लैंगिक असमानता की कुछ बानगी देखिए: आज एक मुस्लिम पुरुष को चार महिलाओं से शादी की अनुमति है। 21वीं शताब्दी में भी बहुविवाह जैसी कुप्रथा जारी है। यद्यपि तत्काल तीन तलाक को अपराध घोषित कर दिया गया है, फिर भी तीन महीने में तीन तलाक देने का अधिकार मुस्लिम पुरुषों को प्राप्त है। जहां 'खुला' के जरिये तलाक लेने वाली मुस्लिम महिलाएं घाटे में रहती हैं, वहीं मुस्लिम पुरुष बिना किसी जवाबदेही के एकतरफा तलाक देकर फायदे में रहते हैं। विरासत के मामले में मुस्लिम महिला को पुरुषों के मुकाबले आधा अंश ही मिलता है। उन्हें कृषि भूमि में हिस्सा ही नहीं मिलता। हालांकि कुछ राज्यों में यह कानून बदला गया है।

मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत मुस्लिम महिलाएं तलाक के बाद गुजारा भत्ता की हकदार नहीं थीं, परंतु सुप्रीम कोर्ट ने अपराध दंड संहिता की धारा 125 के तहत मुस्लिम महिलाओं को भी यह हक दिया है। वहीं कुछ कुरीतियां जैसे कि हलाला अभी खत्म नहीं हुई है। बाल विवाह भी निजी कानून का हिस्सा रहा है, लेकिन नए बाल विवाह निषेध (संशोधन) अधिनियम के बाद मुस्लिम समुदाय को भी नए नियम का पालन करना होगा।

समाज में महिलाओं की स्थिति को देखते हुए डा. भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि वे किसी भी समाज की प्रगति को वहां की महिलाओं की स्थिति से मापते हैं। यदि हम किसी भी समाज का उत्थान चाहते हैं तो हमें उस समाज की महिलाओं के सशक्तीकरण की दिशा में कार्य करना होगा। इसके लिए मजबूत विधिक प्रणाली कीआवश्यकता है, जो महिला हितों की रक्षा कर सके और उन्हें बराबरी का हक और न्याय दिला सके। साफ है कि समान नागरिक संहिता की सबसे ज्यादा जरूरत मुस्लिम समुदाय को है। ध्यान रहे जिस समुदाय में कानूनी तौर पर महिलाओं को बराबरी का अधिकार प्राप्त न हो, वहां सामाजिक न्याय की बात तो सोची भी नहीं जा सकती। अगर मुस्लिम समाज अपने रूढि़वादी सोच को त्याग कर मुख्यधारा में जगह बनाना चाहता है और अपने बच्चों के भविष्य को बेहतर करना चाहता है तो उसे सबसे पहले अपनी महिलाओं को बराबरी का दर्जा देना होगा। समान नागरिक संहिता इसकी एक बेहतरीन शुरुआत हो सकती है। हालांकि इसके लिए सरकारों को सबसे पहले समान नागरिक संहिता के प्रति मुस्लिम महिलाओं के कुछ भ्रमों को दूर करना चाहिए। समान नागरिक संहिता को लेकर मुस्लिम समाज के भीतर एक तरह का डर बैठा हुआ है।

सरकार को इस पर खुलकर बात करने की जरूरत है। इसलिए और, क्योंकि अफवाहें फैलाई जा रही हैं। इसके चलते कुछ लोगों को लगता है कि समान नागरिक संहिता लागू होने के बाद उनकी शादी करने का तरीका बदल जाएगा या फिर वे अपने अंतिम संस्कार के मौजूदा तरीके को नहीं निभा पाएंगे। इसी तरह कुछ लोगों को यह लगता है कि उन्हें अपनी वेश-भूषा बदलने को मजबूर किया जाएगा, जबकि समान नागरिक संहिता का इनसे कोई लेना देना ही नहीं है। यह तो सिर्फ वह कानून है जिसके जरिये यह सुनिश्चित किया जाएगा कि किसी के भी साथ कोई अन्याय न हो सके। मुस्लिम महिलाओं को यह खास तौर पर समझना होगा कि आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड जैसे संगठन हमेशा समान नागरिक संहिता का विरोध करेंगे और उसे गैर इस्लामिक बताएंगे, क्योंकि उनके अस्तित्व का सवाल है। शायद इसीलिए आज तक मुस्लिम पर्सनल ला को संहिताबद्ध नहीं किया गया है। यह समझा जाना चाहिए कि जैसे माडल निकाहनामा में तत्काल तीन तलाक न देने के प्रविधान शामिल किए गए हैं, उसी तरह की व्यवस्था समान नागरिक संहिता में भी की जा सकती है। इसी के साथ यह भी समझना होगा कि धर्म हमारा व्यक्तिगत मामला होना चाहिए, न कि सियासी।

(लेखिका सिटिजन फाउंडेशन में नीति विश्लेषक हैं एवं 'इंडिया दिस वीक' नाम से यूट्यूब चैनल चलाती हैं)