विजय क्रांति। दो साल तक चले मंथन के बाद आखिर जम्मू-कश्मीर से संबंधित परिसीमन आयोग की रिपोर्ट आ गई है। चुनाव आयोग द्वारा परिसीमन की यह कवायद राज्य में दोहरे संविधान वाली व्यवस्था और अनुच्छेद 370 की विदाई के बाद की गई थी। ऐसे में परिसीमन आयोग से बड़ी उम्मीदें लगी थीं कि निर्वाचन क्षेत्रों के पुनर्गठन से राज्य में लोकतांत्रिक जड़ों को मजबूती मिलेगी और उन वर्गो की आवाज भी सुनी जाएगी, जिन्हें दोहरे संविधान और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने हाशिये पर धकेल दिया था।

परिसीमन आयोग की रिपोर्ट की गहन पड़ताल ऐसी उम्मीदों को ध्वस्त करती है। आतंकियों और राज्य सरकार के पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण वहां से भगाई गई गैर-मुस्लिम आबादी को न्याय मिलने की आशा पर भी अब पानी फिर गया। पाकिस्तानी कब्जे वाले यानी गुलाम कश्मीर (पीओजेके) के नाम पर जो 24 सीटें रिक्त छोड़ी जाती रहीं, आयोग ने उस मुद्दे को ही नहीं छुआ। इस कारण वहां से पलायन होकर आए लोगों की इन सीटों के माध्यम से विधानसभा में प्रतिनिधित्व की आशा निराशा में बदल गई है।

पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर विधानसभा में 111 सीटें थीं। हालांकि चुनाव केवल 87 सीटों पर होता था। इनमें से 46 सीटें कश्मीर घाटी के हिस्से में रहीं, जो भारतीय नियंत्रण वाले जम्मू-कश्मीर के भौगोलिक क्षेत्र का मात्र साढ़े चार प्रतिशत से भी कम हिस्सा है। करीब 22 प्रतिशत क्षेत्रफल वाले जम्मू क्षेत्र के हिस्से में 37 सीटें थीं। जबकि 73 प्रतिशत में फैले लद्दाख के लिए केवल चार विधानसभा सीटें थीं। पीओजेके के तहत 24 सीटें छोड़ी हुई थीं। इन समीकरणों के चलते विधानसभा में हमेशा कश्मीर घाटी का दबदबा रहा। परिसीमन आयोग ने सीटों को 87 से बढ़ाकर 90 कर दिया है। इन 90 सीटों में जम्मू को 43 सीटें मिलेंगी और कश्मीर को 47 सीटें। लद्दाख अब अलग हो चुका है। आयोग ने संवैधानिक हवाला देते हुए कहा कि जब तक संविधान में परिवर्तन नहीं किया जाता तब तक पीओजेके वाली 24 सीटें खाली ही रखनी होंगी। इस प्रकार विधानसभा में कश्मीर घाटी का संविधान प्रायोजित बहुमत बना रहेगा।

आयोग ने विधानसभा की सात सीटें अनुसूचित जातियों (एससी) और नौ सीटें अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए आरक्षित रखने का जो फैसला किया है वह ऊपरी तौर पर क्रांतिकारी लगता है। हालांकि राज्य से दोहरे संविधान की समाप्ति के बाद ये परिवर्तन स्वाभाविक रूप से होने ही थे। पूर्व में लागू राज्य के संविधान में इन जातियों के लिए अलग व्यवस्था नहीं थी। वाल्मीकि समाज को विधानसभा चुनाव लड़ना तो दूर उसमें मतदान का भी अधिकार नहीं था। इसी प्रकार पाकिस्तान से आए शरणार्थियों और पीढ़ियों से राज्य में रहने वाले उन गोरखा परिवारों के पास भी मताधिकार नहीं था, जिनके पुरखे महाराजा की सेना में सैनिक थे। ‘भारतीय नागरिक’ होने के नाते इन वर्गो को लोकसभा चुनाव में हिस्सा लेने की अनुमति अवश्य थी। कश्मीरी विस्थापित पंडितों के लिए भी दो सीटें आरक्षित रखने का सुझाव देकर आयोग ने इस बिरादरी को कश्मीर घाटी की चुनाव व्यवस्था से बाहर सा कर दिया है।

वर्ष 2001 में नेशनल कांफ्रेंस को मिले भारी बहुमत के दम पर तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने राज्य की वैधानिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था पर कश्मीर घाटी के एकाधिकार को बनाए रखने के लिए कानून बनाया था। परिसीमन आयोग की रिपोर्ट ने उसे एक प्रकार से संवैधानिक मान्यता प्रदान कर दी है। अब्दुल्ला सरकार के उस कानून ने ऐसी व्यवस्था कर दी थी कि अगले 25 साल तक राज्य में नया परिसीमन नहीं होगा और उसके बाद भी केवल नई जनगणना के आधार पर होगा। मौजूदा समीकरणों के हिसाब से ऐसा 2036 में ही संभव है। परिसीमन आयोग की रिपोर्ट के लागू होने के बाद तो राज्य विधानसभा और कानून बनाने या बदलने की शक्तियां 2036 के बाद भी कश्मीर घाटी के हाथ में रहेंगी। इसलिए इस पर हो रही आलोचना का न तो परिसीमन आयोग के पास कोई जवाब है और न ही केंद्र सरकार के पास कि कश्मीर घाटी में आतंकियों, अलगाववादियों और राज्य की सत्ता पर काबिज शक्तियों की साझा साजिश से जो धार्मिक उन्मूलन किया गया है उसे बनाए रखने और उस अपराध का लाभ उठाते रहने को अब संवैधानिक स्वीकृति मिल गई है। आयोग के गठन के समय प्रदेश के अधिकांश नेताओं ने 2011 की जनगणना के बजाय 2021 की जनगणना के परिणाम आने तक प्रतीक्षा करने की अपील की थी। उनकी दलील थी कि 2011 की जनगणना में भारी राजनीतिक हस्तक्षेप किया गया था। हालांकि न तो केंद्र सरकार ने 2021 की जनगणना के परिणामों की प्रतीक्षा की और न ही आयोग ने।

जहां तक लोकसभा क्षेत्रों के परिसीमन का प्रश्न है तो आयोग ने राज्य के लिए पांच सीटों की वर्तमान व्यवस्था को ही कायम रखा है। केवल इतना परिवर्तन किया है कि प्रत्येक लोकसभा में आने वाली विधानसभा सीटों की संख्या बराबर रहेगी। आयोग ने राजनीतिक ‘सदाशयता’ दिखाते हुए पूरे राज्य को जम्मू और कश्मीर के अलग संभाग न मानने के बजाय एक ही इकाई माना है। इसका प्रमाण है घाटी की अनंतनाग सीट। इसमें जम्मू के राजौरी और पुंछ क्षेत्रों को भी जोड़ दिया गया है। कुछ आलोचक कश्मीरी राजनीति में इस्लामी जिहादी तत्वों के प्रभाव का विरोध करते आए हैं। उनके अनुसार नए परिसीमन से कश्मीर पर इन तत्वों का प्रभाव न केवल कायम रहेगा, बल्कि जम्मू क्षेत्र में भी उसके फैलाव का खतरा बढ़ गया है। 1990 में कश्मीरी पंडितों और बाद में कश्मीरी सिखों के पलायन के बाद घाटी की 46 में से सभी 46 सीटों पर मुस्लिम विधायकों का चुना जाना इन आशंकाओं को बल देता है।

परिसीमन आयोग की प्रमुख जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई ने यह स्वीकार किया है कि कश्मीर घाटी के विस्थापितों और पीओजेके से विस्थापित भारतीय नागरिकों द्वारा विधानसभा में प्रतिनिधित्व की मांग में दम है। इसमें संवैधानिक बाध्यता की ओर उन्होंने संकेत भी किया है। ऐसे में यह नैतिक जिम्मेदारी केंद्र सरकार पर आ गई है कि वह इस दिशा में आवश्यक संशोधन के लिए कदम उठाए। जब तक पीओजेके की इन 24 सीटों पर प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाएगा, तब तक देश को अनुच्छेद 370 को हटाने का पूरा लाभ नहीं मिल पाएगा।

(लेखक सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)