नई दिल्ली [उदय प्रकाश अरोड़ा]। हाल में एक और धर्मगुरु आसाराम के खिलाफ अदालत ने दुष्कर्म के आरोप को सही पाया। इसके पहले संत राम रहीम को जेल की हवा खानी पड़ी थी। कुछ और ऐसे धर्मगुरु हैं जो गंभीर आरोपों से दो-चार हैं और उनके मामले अदालतों में लंबित हैं। ऐसे गुरु हिंदू समाज की गरिमा गिराने का काम करते हैं। विडंबना यह है कि संदिग्ध आचरण वाले गुरुओं की संख्या बढ़ती जा रही है। यह कोई शुभ संकेत नहीं। आंबेडकर का कहना था कि भले ही हिंदू समाज अनेक कुप्रथाओं से ग्रस्त हुआ हो, किंतु अच्छी बात यह रही कि इन कुप्रथाओं से लड़ने वाले साधु-संत सामने आते रहे और संतों ने नेतृत्व प्रदान कर उनके खिलाफ अभियान छेड़ा। चूंकि सेमेटिक धर्म वाले यह नहीं मानते कि उनके धर्म में बुराइयां घुस सकती हैं इसलिए वे बुराइयों को दूर करने के लिए प्रयास भी नहीं करते। प्राचीन समय में जहां बुद्ध, महावीर आदि ने र्हिंदू धर्म में व्याप्त आडंबर, कर्मकांड और असमानता के विरुद्ध लड़ाई लड़ी वहीं बाद में आदिशंकर, कबीर, नानक, बसवेश्वर, रैदास, चैतन्य आदि ने हिंदू समाज को गतिशीलता प्रदान की।

19 वीं शताब्दी में रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद और दयानंद, सरीखे संन्यासियों ने हिंदू धर्म में नवोत्थान पैदा किया। इसी तरह आदिवासियों को जागृत करने वाले बिरसा मुंडा ने जो संघर्ष प्रारंभ किया उससे प्रभावित आदिवासी जनता उन्हें अपने इष्ट देवता के रूप में पूजने लगे। चंपारण सत्याग्रह में शामिल किसान लोग गांधी को अपने देवता के रूप में मानने लगे। मदर टेरेसा और बाबा आम्टे के भी उदाहरण हैं। इन्होंने निर्धन वर्ग के बीच जो कार्य किया उससे प्रभावित होकर लोग आदर भाव से देखने लगे और संत मानने लगे। दुर्भाग्य की बात है कि संतों की ऐसी पीढ़ी आज लुप्त होती दिखती है। सुधारवादी संतों ने स्वयं कभी नहीं घोषित किया कि वे संत या ईश्वर के प्रतिनिधि हैं। यह गौरव समाज ने उन्हें खुद प्रदान किया, पर आज ऐसे साधुओं की संख्या बढ़ रही है जो स्वयं घोषित करते हैं कि वे ईश्वर के दूत के रूप में महान संत हैं या दिव्य ज्ञान अथवा चमत्कारिक शक्तियों से लैस हैं। वे टीवी और अखबार में विज्ञापन देते हैं और अपने संभावित भक्तों की तलाश करते हैं। समस्या यह है कि केवल अशिक्षित ही नहीं, तमाम शिक्षित लोग भी अनुयायी बन जाते हैं।

कई धनी-मानी संत ऐसे रहे जिन्होंने अपने मठ स्थापित किए। उन्हें नेताओं, पूंजीपतियों और फिल्मी कलाकारों का संरक्षण मिला। एक समय भारत की गुरु इंडस्ट्री पश्चिम में चमकी और दुनिया की बड़ी-बड़ी हस्तियों ने उनसे नजदीकी बढ़ाई। ऐसे गुरुओं में महर्षि महेश योगी प्रमुख हैं। 1960 के दशक में बीटल्स रॉक बैंड गु्रप के सदस्य महेश योगी के शिष्य बने। इससे योगी की ख्याति पश्चिम में खूब बढ़ी। अभिनेत्री मिया फेरो ने योगी के आश्रम में कुछ दिन बिताए। फिर आचार्य रजनीश ने भी महेश योगी की तरह अपनी प्रगति का मार्ग पश्चिम में देखा। उन्होंने अमेरिका में रजनीशपुरम की स्थापना की और अपार संपत्ति अर्जित की। बाद में उन्हें अमेरिका छोड़ना पड़ा। जब उन्हें कहीं ठौर नहीं मिला तो उन्होंने भारत लौटकर पुणे में आश्रम बनाया।

नेताओं का संरक्षण पाने वाले गुरुओं में धीरेंद्र ब्रह्मचारी का नाम खास तौर से लिया जाता है। कहते हैं कि नेहरू के बाद इंदिरा ने भी उनसे योग सीखा। बाद में वह विवादों में घिरे और उन्हें कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने पड़े। कुछ इसी तरह की कहानी तांत्रिक चंद्रास्वामी की है। वह प्रधानमंत्री नरसिंह राव के करीबी माने जाते थे। उनकी निकटता ब्रूनेई के सुल्तान, बहरीन के खलीफा, हॉलीवुड अभिनेत्री लिज टेलर, हथियार व्यापारी अदनान खशोगी आदि से भी थी। बाद में लंदन के भारतीय मूल के एक व्यापारी ने उन पर ठगी के आरोप लगाए। उन पर अन्य कई आरोप भी लगे। कुल मिलाकर ऐसे गुरुओं की कमी नहीं जो प्रसिद्धि या लोकप्रियता पाने के बाद विवादों से न घिरे हों। कई ऐसे साधु-संत रहे जिनकी चर्चा उनके गलत कामों के लिए ही हुई। कुछ गुरुओं का साम्राज्य औद्योगिक घरानों की तरह फैला हुआ है। कुछ अस्पताल, स्कूल और कॉलेज खोलकर सामाजिक सेवा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते हैं, लेकिन कई बार ये संस्थाएं सेवा के बजाय आय का साधन बन जाती हैं। कई धर्मगुरु भक्तों के नाम पर अपने अनुयायियों की सेनाएं खड़ी कर लेते हैं और मनमानी करते हैं। यह भी अजीब है कि एक ओर धर्मगुरु बढ़ रहे और दूसरी ओर समाज में सामाजिकता और नैतिकता की कमी देखी जा रही है। आखिर भारत में साधु-संतों की संख्या क्यों बढ़ती चली जा रही है?

ऐसी स्थिति शायद ही किसी अन्य देश में हो। संभवत: इसका कारण यह है कि सभी प्रकार के विचार हिंदू धर्म में अपनी जगह बना सकते हैं। हर तरह की उपासना विधियों और विश्वासों के प्रति हिंदू धर्म लचीला है। संगठित धर्मों में स्वतंत्रता पर नियंत्रण होने के कारण मनमानी नहीं चल पाती। सैद्धांतिकरूप से भी धर्म पालन करने में एक भीतरी स्वतंत्रता होना आवश्यक है, किंतु अक्सर इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया जाता है। भारतीय लोकतंत्र में साधु-संतों के अनुयायियों का इस्तेमाल वोट बैंक बढ़ाने में सहायक होता है। इन पर नियंत्रण जरूरी है, अन्यथा धर्म के दुरुपयोग का सिलसिला कायम रहेगा। राजनीति और धर्म के बीच घालमेल रोकने के लिए दोनों के बीच एक विभाजन रेखा खींचना आवश्यक है। इसमें सक्षम कानून सहायक हो सकते है, किंतु वे समस्या का पूरा हल नहीं हैं। बाजार की संस्कृति ने उपभोक्तावाद को चरम पर पहुंचा दिया है। बाजार मांग और पूर्ति के सिद्धांतों से चलता है। जब तक गुरुओं की मांग रहेगी उनका बाजार बढे़गा। बाजार नैतिक और अनैतिक नहीं देखता। मुनाफा कमाना इसका उद्देश्य होता है। धर्म का जो बाजारीकरण हो रहा है उसे रोकने के लिए समाज को भी आगे आना चाहिए और वह इसमें तब सफल होगा जब आस्था और अंधविश्वास के अंतर को समझा जाएगा।

संदिग्ध आचरण वाले किस्म-किस्म के गुरु हिंदू धर्म के सही रूप को बिगाड़ रहे हैं। विवेकानंद ने कहा था कि हिंदू धर्म परंपरा में कोई धर्मगुरु नहीं होता। उपनिषदों और गीता में जिज्ञासु को भगवान के सीधे संपर्क में खड़ा कर दिया गया है। भक्त और भगवान के मध्य किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं। मध्यकालीन युग में भक्तों ने अवश्य गुरु की महिमा स्वीकार की, किंतु गुरुओं को सब कुछ मानने वाले कबीर ने कहा था, ‘गुरु की करनी गुरु जाने, चेले की करनी चेला’ अर्थात अंतिम घड़ी में गुरु भी आपको नहीं बचा पाएगा। उसकी करनी वह भुगतेगा और तेरी करनी तू। इसलिए अंतिम सत्य करनी है। सत्य आपके भीतर है। वास्तव में मनुष्य को किसी गुरु की आवश्यकता नहीं। गुरु प्रत्येक मनुष्य के भीतर है। भीतर की आवाज सुनें।

(जेएनयू में ग्रीक चेयर प्रोफेसर रहे हैं)