निरंजन कुमार। देश की शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी)-2020 घोषित हुई थी, उसकी बड़ी चुनौती इसका क्रियान्वयन है। इसे साकार करने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) ने एक ठोस कदम बढ़ाया है। उच्चतर शिक्षा के प्रथम सोपान स्नातक शिक्षा के लिए डीयू के कुलपति प्रो. योगेश सिंह की देखरेख में एक करिकुलम फ्रेमवर्क तैयार किया गया है, जो देश के लिए एक माडल हो सकता है। अकादमिक वर्ष 2022-23 से लागू होने वाला यह अंडरग्रेजुएट करिकुलम फ्रेमवर्क (यूजीसीएफ) छात्र केंद्रित, रोजगार एवं शोधपरक और राष्ट्रहित के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीयता को ध्यान में रखकर बनाया गया है। हालांकि कुछ लोग इस पर भी सवाल उठा रहे हैं। डीयू के यूजीसीएफ की सबसे बड़ी विशेषता है इसका छात्र केंद्रित होना। अपवादों को छोड़ दें तो अभी तक विश्वविद्यालयों में छात्रों के लिए एक स्ट्रीम में विषयों का सीमित विकल्प ही मिल पाता है। अब डीयू में छात्रों को अपनी अभिरुचि के अनुरूप अपने स्ट्रीम से बाहर के विषय चुनने के अनेक विकल्प मिलेंगे। मिसाल के लिए विज्ञान वाले छात्र अपने आनर्स की डिग्री में गणित में 'मेजर' (प्रमुख विशेषज्ञता) के साथ-साथ मनोविज्ञान या अर्थशास्त्र में 'माइनर' (लघु विशेषज्ञता) भी हासिल कर सकते हैं। संसार के सभी शीर्ष विश्वविद्यालयों में यह व्यवस्था वर्षों से है। नए तरह के रोजगारों के साथ-साथ बहु-अनुशासनिक शोधों में यह संरचना अत्यंत लाभकारी सिद्ध होनेवाली है।

यूजीसीएफ के तहत स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार सच्चे अर्थों में मैकाले माडल से छुटकारा पाने की भी कोशिश हुई है। हमारी स्नातक शिक्षा का प्रारूप मुख्यत: पुस्तकीय या क्लासरूम तक ही सीमित होता है। वास्तविक दुनिया से छात्र एक तरह से कटे होते हैैं। उनके पुस्तकीय ज्ञान का व्यावहारिक जीवन या रोजगार में कोई उपयोग नहीं हो पाता। अक्सर स्नातक, स्नातकोत्तर यहां तक कि पीएचडी किए लाखों लोग द्वारा चपरासी पद के लिए आवेदन करने की खबरें आती हैं। इसीलिए डीयू में छात्रों को अब 'इंटर्नशिप' या 'अप्रेंटिसशिप' या 'प्रोजेक्ट' आदि करने का अवसर चार सेमेस्टरों के लिए प्राप्त होगा। प्राचीन भारतीय परंपरा और महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित यह प्रणाली रोजगार और स्वरोजगार दोनों को ही बढ़ावा देगी। दुनिया के सभी सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में यह प्रणाली पहले से ही मौजूद है। इसी तरह छात्रों के कौशल विकास के लिए रोजगारपरक कोर्स जैसे वेब डिजाइनिंग, फूड प्रोसेसिंग, कंप्यूटर प्रोग्रामिंग, डाटा हैंडलिंग इत्यादि अनेक कोर्स छात्र कर सकेंगे। अभी देश के नाम मात्र विश्वविद्यालयों में ही इस तरह के कोर्स उपलब्ध हैं और वह भी एक 'एड आन कोर्स' के रूप में। इनके अंक भी अंतिम अंक-तालिका में नहीं जुड़ते।

एनईपी-2020 का एक प्रमुख बिंदु है विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास, जो भारतीय मूल्यों से भी अनुप्राणित हो। इस भावना के अनुरूप यूजीसीएफ के तहत भारतीय शिक्षा में संभवत: पहली बार स्नातक स्तर पर 'वैल्यू एडिशन कोर्स' जैसे-भारतीय संस्कृति, नीतिशास्त्र आदि भी शामिल किए गए हैैं। इनके अंक भी अंकतालिका में जुड़ेंगे। इसके अलावा यूजीसीएफ में स्नातक से ही विद्यार्थियों को शोध-प्रशिक्षण मिलना शुरू हो जाएगा। चौथे वर्ष में उन्हें लघुशोध प्रबंध लिखने का अवसर मिलेगा, जो विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में भी प्रचलित पद्धति है। यदि किसी छात्र को एक-दो साल की पढ़ाई के बाद यह लगे कि उसे अपने 'माइनर' विषय में स्नातकोत्तर या पीएचडी करना है तो वह 'मेजर' विषय के बजाय 'माइनर' में भी लघुशोध प्रबंध लिख सकता है। इससे शोध-अनुसंधान को बढ़ावा मिलेगा। नया अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम चार साल का होगा, जिसमें मल्टी एंट्री-मल्टी एग्जिट और किसी कारणवश बीच में पढ़ाई छोडऩे पर सर्टिफिकेट और डिप्लोमा की प्राप्ति आदि का प्रविधान होगा।

सवाल उठेगा कि आखिर इतने अच्छे पाठ्यचर्या पर विवाद क्यों? विवाद का एक कारण तो विचारधारात्मक है, जो मोदी सरकार द्वारा लाए पूरे एनईपी-2020 को ही नकारता है। दूसरा, एक भ्रम बन गया है कि इससे शिक्षकों की छंटनी होगी, क्योंकि कुछ क्रेडिट (पाठ्यक्रम का भार) कम हो जाएंगे, लेकिन यह सच नहीं है। प्रस्तावित डीयू फ्रेमवर्क तीन वर्षों में 132 क्रेडिट और चार वर्षों में 176 क्रेडिट की अनुशंसा करता है, जो यूजीसी गाइडलाइन के निर्देश से बहुत अधिक है। यूजीसी गाइडलाइन के अनुसार तीन साल की डिग्री में 108 से 120 क्रेडिट और चार साल में 144 से 160 क्रेडिट हो सकते हैं। शीर्ष अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों में तो यह क्रेडिट-भार और भी कम जैसे-तीन वर्षों में 96 से 108 और चार वर्षों में 128 से 144 के बीच है। इसके अतिरिक्त चूंकि विषय से संबंधित ऐच्छिक कोर्स के विकल्प पहले से काफी अधिक होंगे, इसलिए उससे संबंधित सेक्शन भी अधिक होंगे। जाहिर है शिक्षकों की संख्या कम नहीं होगी। चूंकि छात्रों की संख्या में भी कमी नहीं होनी है तो तदनुसार शिक्षकों की छंटनी होने का अंदेशा भी नहीं है। इस प्रकार शिक्षकों की संख्या में बढ़ोतरी ही होगी, क्योंकि एक अतिरिक्त चौथा साल बढ़ जाने से हर विषय में अतिरिक्त शिक्षकों की आवश्यकता होगी।

स्वाधीनता के 75 साल बाद आज जब हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो हमारी स्नातक शिक्षा भी पहली बार सच्चे अर्थों में आजाद होकर पूरी तरह से छात्र और देश हित में नए कीर्तिमान गढऩे वाली है। शिक्षा से जुड़े सभी हितधारकों को उच्चतर शिक्षा की इस अभिनव महायात्रा में अपना सहयोग करना चाहिए, यही समय की मांग है।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)