[शंकर शरण]: हाल में कांग्रेस नेता और लेखक शशि थरूर ने अपने ’हिंदू पाकिस्तान’ और ’हिंदू तालिबान’ आदि विचारों से हलचल पैदा कर दी। जब आलोचना हुई तो उन्होंने दो लेख लिखकर अपने विचार फिर दोहराए और नए बिंदु भी जोड़े। उन बातों को अन्य कांग्रेसी निजी विचार कह रहे हैं, किंतु इसमें संदेह नहीं कि वैसी बातें अनेक प्रोफेसर, पत्रकार और बुद्धिजीवी अपनी-अपनी तरह से कहते रहे हैं। इसलिए उन विचारों को गंभीरता से लेना चाहिए। उनका राजनीतिक महत्व है। ऐसे विचार हमारे शैक्षिक जगत को प्रभावित करते हैं। वस्तुत: ऐसी बातें कहना स्वयं हमारी प्रचलित शिक्षा और राजनीतिक विमर्श से प्रभावित है। यह विमर्श देश से निकल कर विदेशों तक जाता है और भारत की छवि और वैदेशिक संबंधों को प्रभावित करता है।

यद्यपि थरूर में भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रति आदर है, किंतु हिंदू इतिहास से संबंधित उनके मंतव्य तथ्यपूर्ण नहीं हैं। उन्होंने कहा कि यदि 2019 में भाजपा ने लोकसभा चुनाव पुन: जीता तो भारत हिंदू पाकिस्तान’ बन जाएगा जहां ‘एक ही रिलीजन का दबदबा’ होगा। ऐसा कहते हुए थरूर इस्लाम और हिंदू धर्म दोनों को ‘रिलीजन’ कहते हैं। धर्म और रिलीजन नितांत भिन्न धारणाएं हैैं। चूंकि इसे गंभीर विदेशी विद्वान भी जानते हैैं अत: यह कल्पना अनर्गल है कि ‘एक रिलीजन के वर्चस्व’ से पाकिस्तान में जो दुर्गति हुई वही भारत में हिंदू धर्म के वर्चस्व से होगी। सचाई ठीक उलटी है। 

जिस हद तक आज भी भारत में हिंदू वर्चस्व है उसी कारण यहां सेक्युलरिज्म और अन्य धर्मावलंबियों का सम्मानजनक स्थान है। यह तथ्य मौलाना बुखारी, प्रो. मुशीर-उल-हक, एमआरए बेग जैसे अनेक विद्वान भी मानते रहे हैैं। उन्होंने पाकिस्तान में इस्लामी वर्चस्व की तुलना में ही यह नोट किया था। दूसरी ओर यह जगजाहिर तथ्य है कि जब भारत में केवल हिंदू थे तभी यह देश धन-वैभव, ज्ञान-विज्ञान-कला, हर क्षेत्र में विश्व में अग्रणी था। भारत का सांस्कृतिक प्रभाव संपूर्ण एशिया, रूस के पूर्वी हिस्से और अरब देशों तक फैला हुआ था। यही नहीं दुनिया में कहीं भी उत्पीड़ित लोगों, समुदायों के लिए यह सदैव उदार शरणस्थली रहा।

यहूदी और पारसी समुदाय इसके उदाहरण हैं जिन्र्हें हिंदू भारत ने ही शरण और सहायता दी। इसलिए शत-प्रतिशत हिंदू देश उस धारणा के ठीक विपरीत होगा जिसका भय थरूर को सता रहा है। सो ‘भाजपा-आरएसएस के हिंदू राष्ट्र’ को ‘पाकिस्तान की दर्पण-छवि’ कहना निराधार कल्पना है। भाजपा के किसी दस्तावेज में हिंदू राष्ट्र का उल्लेख तक नहीं। जनसंघ वाले समय से ही वे सदैव ‘बेहतर सेक्युलर’ साबित होने में लगे रहे हैं। वह नीति यथावत है। भाजपा कांग्र्रेसी नीतियों को ही ‘अधिक ईमानदारी’ से लागू करती रही है। इसलिए भाजपाई एकाएक बंटाधार कर देंगे, यह सोचना व्यर्थ है। थरूर को संविधान संशोधन का डर भी है, लेकिन यह तो मामूली बात है। संविधान-परिवर्तन कोई भयावह नहीं होता। यह तो समय और जरूरत से करना होता है। संविधान को स्वयं कांग्रेस ने 1976 में बड़े पैमाने पर विरुपित किया था।

स्वतंत्रता आंदोलन पर भी थरूर का कथन दोषपूर्ण है। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को ‘दो’ विचारों से संचालित बताया। एक गांधीवादी कांग्र्रेस और दूसरा मुस्लिम लीग। किंतु एक और अधिक प्रभावशाली विचार भी श्री अरविंद के नेतृत्व में ‘स्वदेशी’ का हिंदू विचार भी था। उसी की देन ‘वंदे मातरम’ की प्रतिज्ञा और ‘वंदे मातरम’ गीत था जो स्वतंत्रता-प्राप्ति तक सर्वमान्य राष्ट्रगीत बना रहा। श्री अरविंद ही ‘भारतीय राष्ट्रवाद के पैगंबर’ माने गए। इस नाम से कांग्रेस के अन्य विद्वान नेता डॉ. कर्ण सिंह की एक पुस्तक भी है। इसी स्वदेशी हिंदू विचार ने भारतीय राष्ट्रवादी को ‘सिंह गर्जना’ में बदला था। वही विचार संपूर्ण भारत को अनुप्राणित करता रहा। अत:, नेहरूवाद और इस्लामवाद के अलावा तीसरा स्वदेशी हिंदू विचार भी था। गांधी-नेहरू को भी उसी का सहारा मिलता रहा। यह और बात है कि उन्होंने अंत में इसके साथ धोखा किया।

थरूर यह भूलते हैं कि भारतीय नेताओं ने ‘एक रिलीजन का वर्चस्व’ सिद्धांत स्वीकार नहीं किया। तब 1947 में देश-विभाजन किस सिद्धांत पर हुआ था? वस्तुत: उसे मानकर भी शेष भारत पर लागू न करने से ही फिर वही समस्याएं पनपीं जिनके समाधान के लिए विभाजन हुआ था। जिन्ना और आंबेडकर, दोनों ने चाहा था कि विभाजन के बाद मुसलमान भारत में न रहें। इसे ठुकराना दूसरी भयंकर भूल हुई। यह पुराने कांग्रेसी भी मानते हैं। थरूर हिंदू फेथ’ के ‘समाहितकारी’ स्वभाव की भी सही व्याख्या नहीं करते। चूंकि हिंदू राज्य और मजहबी शासन यानी थियोक्रेसी दो विपरीत ध्रुव जैसे हैं इसलिए उनका भय निर्मूल है। विवेकानंद की शिक्षा का भी थरूर काट-छांटकर, गलत अर्थ निकाल रहे हैं। मत-वैभिन्य की स्वीकृति हिंदू धर्म की विशेषता है, किंतु यह अधर्म की भी स्वीकृति नहीं है। विवेकानंद ने ही कहा था कि ‘एक हिंदू का मुसलमान या ईसाई बनना केवल एक हिंदू कम होना नहीं, एक शत्रु बढ़ना भी है।’ यदि थरूर को अपने हिंदुत्व पर विश्वास है तो उन्हें विवेकानंद जैसे हिंदू मनीषियों के विचारों से उसकी पुन: परख करनी चाहिए।

कोई व्यक्ति नेहरूवादी और सचेत हिंदू नहीं हो सकता। वह दो में एक ही हो सकता है, क्योंकि नेहरूवाद तींन हिंदू-विरोधी मतवादों मसलन पश्चिमी श्रेष्ठता, कम्युनिज्म और इस्लाम-परस्ती का सहमेल है। जबकि भारतवर्ष और हिंदू धर्म अभिन्न हैं। इन दो को अलग करना, अथवा देश को हिंदू धर्म से ऊपर दिखाना अज्ञान या सियासी चाल है। सीधी सचाई यह है कि भारत हिंदू-भूमि है। यहां के मुसलमानों की पुरानी पीढ़ियां हिंदू ही थीं जिन्हें उत्पीड़न और भयवश मुसलमान बनना पड़ा था। वे आज भी मानसिक कैद में परेशान, प्रताड़ित हैं। इसके उदाहरण आते रहते हैं। इसी रूप में उनसे सहानुभूति होनी चाहिए।

यदि भारत हिंदू भूमि न रहा तो सबकी स्थिति बदतर होगी। इतिहास-वर्तमान की सारी तुलनाएं यही दर्शाती हैं। ऐसे में भारत की हिंदू पहचान की रक्षा करना प्रथम प्रतिज्ञा होनी चाहिए। यदि उपमा ही देनी हो तो भारत ’हिंदू इजरायल’ जैसा अकेला, नियमित लांछित, और विविध प्रकार के शत्रुओं की चोट सहता हुआ देश है। विश्व की तीन सशक्त, संगठित राजनीतिक-वैचारिक ताकतें लंबे समय से हिंदू भारत को हड़पने या तोड़ने में लगी रही है। इस्लामी साम्राज्यवाद, चर्च-मिशनरी और कम्युनिस्ट-वामपंथी। उनकी घोषित मंशा सर्वविदित है। उनके सामने हमारा दुनिया में कोई भी समर्थक सहयोगी नहीं रहा है। भारत को भी इजरायल जैसा ही नितांत आत्मनिर्भर, कटिबद्ध, निर्मम नीति और मनोबल वाला बनाना होगा। वरना यहां तो खुलेआम प्रेस कांफ्रेंस करके तीसरा-चौथा पाकिस्तान बनाने के दावे होते रहते हैं। क्या शशि थरूर नहीं देखते कि वास्तविक खतरा किधर से है?

[ लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं स्तंभकार हैं ]