शंकर शरण
कर्नाटक में कुछ कन्नड़ प्रेमियों ने हिंदी में लिखे नाम मिटाकर अपना क्रोध उतारा है। पहले बेंगलुरु में मेट्रो से हिंदी नाम मिटाए गए, फिर अन्य जगहों से। बीते कुछ दिनों से कथित तौर पर हिंदी थोपने के खिलाफ मुहिम जारी है। यह कुछ ऐसा ही है, जैसे किसी को दफ्तर में अफसर से नाहक डांट सुननी पड़ी हो तो वह घर आकर अपने बच्चे की पिटाई कर दे। क्या कन्नड़ को हिंदी से चोट मिली है? हिंदी में कुछ भी ऐसा नहीं जो कन्नड़ के विरुद्ध हो। हिंदी और कन्नड़ की वर्णमाला बिल्कुल एक है। हिंदी की लिपि देवनागरी है, जो संस्कृत की ही लिपि है। अधिकांश हिंदी शब्द संस्कृत के शब्द ही हैं। वही स्थिति कन्नड़ और बांग्ला, उड़िया, पंजाबी, मराठी, गुजराती जैसी अधिकांश भारतीय भाषाओं की है। यदि गुजराती, बांग्ला आदि का कोई सामान्य पैराग्राफ देवनागरी में लिख दें तो हिंदी पढ़ने वाला उसे सरलता से समझ लेगा। वस्तुत: संस्कृत की तरह हिंदी भी यहां किसी क्षेत्र की सीमित भाषा नहीं है। जिसे हिंदी क्षेत्र कहा जाता है वहां विविध भाषाएं मातृभाषा हैं। अवधी, भोजपुरी, मैथिली का नाम सभी जानते हैं। इसलिए अयोध्या, बलिया, दरभंगा आदि को हिंदी क्षेत्र कहना उतना ही उचित या अनुचित है, जितना भुवनेश्वर या हैदराबाद को।
हिंदी की लिपि, शब्द-भंडार और मिजाज तक अखिल भारतीय है। वह पूरे देश की साझी भाषा है। वस्तुत: हिंदी किसी भी क्षेत्र विशेष की भाषा न थी, न है। याद करें, स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी को राष्ट्रीय कार्य की भाषा बनाने की मांग कलकत्ता और बंबई से उठी थी। कथित हिंदी क्षेत्र से नहीं। अभी सारी गलतफहमी लिपि-भिन्नता और अज्ञानता के कारण है। यदि भारतीय भाषाओं की एक लिपि देवनागरी हो जाए तो हमारी दर्जन भर भाषाएं एक दूसरे के उतनी ही निकट लगेंगी जितना अभी हिंदी और भोजपुरी को समझा जाता है। लोकमान्य तिलक ने देवनागरी को सभी भाषाओं द्वारा अपनाने का कार्य शुरू किया था। 1961 में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में भी यह लक्ष्य रखा गया था। इससे सभी भारतीय भाषाएं अधिक सशक्त और निकट हो जातीं। दुर्भाग्य से वह ठंडे बस्ते में चला गया। इसके पीछे भी अंग्रेजी वर्चस्व का दबाव ही है। इससे सभी भारतीय भाषाओं की स्थिति खराब हुई है। हमारी सभी भाषाएं अंग्रेजी की सत्ता और विशेषाधिकार के चलते उपेक्षित हो रही हैं।
बोलचाल में हिंदी का राष्ट्रीय प्रयोग दिखना दूसरी बात है। देश के आम लोग हिंदी में एक-दूसरे से संपर्क रखते हैं। इसीलिए हिंदी बनी थी और पूरे भारत के लोगों ने इसे बनाया, बढ़ाया था। तभी विभिन्न क्षेत्रों में इसे अलग-अलग अंदाज से बोला जाता रहा है। पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों से हिंदी का मानक रूप बनने लगा, क्योंकि नई राष्ट्रीय चेतना फैली। अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष के दौर में हिंदी का एक स्तरीय रूप बनने लगा। इसमें कई क्षेत्र के लोगों ने योगदान किया। बड़े-बड़े तमिल, गुजराती, बंगाली, मराठी और पंजाबी नेताओं ने हिंदी को अखिल राष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रोत्साहित किया। हिंदी का विकास राष्ट्रीय चेतना का समानुपाती है। यही केंद्रीय बिंदु है। सारा भ्रम हिंदी की गलत परिभाषा से जुड़ा है। हिंदी का स्वरूप राष्ट्रीय है। यह कथित हिंदी-भाषी कुछ लेखकों, नेताओं की भूल रही कि उन्होंने हिंदी को किसी क्षेत्र-विशेष का मानकर अन्य भारतीय भाषाओं के प्रतिद्वंद्वी स्वरूप खड़ा करने में जाने-अनजाने सहयोग किया। इससे असली समस्या-अंग्रेजी की सत्ता-को छिपने में मदद मिली। ध्यान दें जब भी यहां अंग्रेजी के विरुद्ध कोई बात होती है, जैसा कुछ समय पहले महाराष्ट्र में होती थी तो कई बड़े बुद्धिजीवी तीखा प्रतिवाद करते हैं। वे संबंधित नेताओं का मजाक उड़ाने लगते हैं, लेकिन जब कहीं हिंदी के विरुद्ध गुस्सा प्रकट होता है तो चुप रहकर अपनी रोटी सेंकते हैं और उसे हवा देते हैं। लोगों के क्षोभ को अंग्रेजी से हटाकर हिंदी के विरुद्ध मोड़ दिया जाता है। इसीलिए देश की भाषा-चिंता पर कभी विचार ही नहीं होता।
भारत में अंग्रेजी की जोर-जबरदस्ती इस चतुराई से थोप दी गई है, मानों इस पर किसी विवाद की गुंजाइश ही नहीं! जबकि ऐसा कुछ नहीं है। यहां लोकतंत्र की अर्थवत्ता ही नहीं, शिक्षा, संस्कृति, गुणवत्ता और विकास से जुड़े तथ्य, तर्क और व्यावहारिकता सभी कुछ अंग्रेजी के विरुद्ध जाते हैं। इसीलिए भाषा प्रश्न पर कभी संजीदा विमर्श नहीं होने दिया जाता। यदि विमर्श हो तो एक हाल में आई पुस्तक द्रष्टव्य है: ‘भाषा-नीति: द इंग्लिश मीडियम मिथ’ (संक्रांत सानू, राजीव मल्होत्रा और कार्ल क्लेमेन्स)। इसके अनुसार भारत के विकास में अंग्रेजी माध्यम का वर्चस्व एक बाधा है। ध्यान रहे अंग्रेजी भाषा और माध्यम में अंतर है। अंग्रेजी भाषा-साहित्य का अध्ययन करना सर्वथा उचित है, किंतु पूरी शिक्षा, शासन, न्यायालय, नीति-निर्माण, विमर्श, आदि का माध्यम अंग्रेजी को बनाए रखना हानिकारक है। यह नि:संदेह हमारे विकास में बाधक है। उक्त पुस्तक में दुनिया के सबसे अग्रणी और सबसे पिछड़े बीस देशों की तुलना की गई है। सभी अग्रणी बीस देश अपनी-अपनी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा, शासन, तकनीक और उद्योग चलाते हैं। जबकि सबसे पिछड़े बीस देशों में अधिकांश किसी विदेशी भाषा को अपनी शिक्षा, शासन की भाषा बनाए हुए हैं। इससे समझ सकते हैं कि किसी देश के सर्वांगीण विकास के लिए विदेशी भाषा का जुआ उतारना कितना जरूरी है। अन्यथा यह आम जनता को उलझाकर उसकी संपूर्ण क्षमता का उपयोग करने नहीं देगा। इस बुनियादी बात को स्वयं लॉर्ड मैकाले के विरोधी अंग्रेजों ने 1835 में ही समझा था। जब संसदीय समिति में भारत में शिक्षा माध्यम का विवाद हो रहा था तो मैकाले का विश्वास था कि यूरोपीय ज्ञान ही मूल्यवान है और भारतीय भाषाओं में कोई ज्ञान है ही नहीं। इसलिए भारतीयों को अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ाना ठीक है। इसके विरुद्ध दूसरे अंग्रेजों की दलील थी-‘देसी साहित्य का विनाश कर, अपनी मानसिक क्षमता के उपयोग से होने वाले अभिमान को हटाकर, जनता को शब्दों और विचारों के लिए किसी दूर-अनजान देश पर पूरी तरह निर्भर बनाकर हम उनका चरित्र गिरा देंगे, उनकी ऊर्जा मंद कर देंगे और उन्हें किसी भी बौद्धिक उपलब्धि की चाह रखने तक में असमर्थ बना देंगे।’ ऐसा कहने वाले अंग्रेज मैकाले की जिद के आगे हार गए थे, मगर स्वतंत्र भारत के लोग आज तक इस मोटी बात को नहीं समझ पाए, यह घोर आश्चर्य है!
हालांकि जनमत संग्रह हो तो यहां हर क्षेत्र में लोगों की प्रचंड बहुसंख्या अंग्रेजी बोझ से मुक्ति चाहेगी, लेकिन भारतीय भाषाओं को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ाकर, उल्टे सभी को अंग्रेजी की मांग करने के लिए तैयार किया गया। अंग्रेजी को स्थाई विशेषाधिकारी स्थिति में रखकर सभी बातें होती हैं। यह संभावना ही नहीं दी जाती कि शिक्षा, शासन, कानून और शोध आदि के लिए अपनी भाषा भी हो सकती है! हमारे क्षोभ का मूल कारण यह है, किंतु जहां-तहां भ्रमवश इसके लिए हिंदी को निशाना बनाया जाता है। जबकि यह केवल भारतीय राष्ट्रवाद को कमजोर करता है। हिंदी पर गुस्सा उतारने से कन्नड़ मजबूत नहीं होगी, क्योंकि हर महत्वपूर्ण जगह पर उसे अंग्रेजी ने विस्थापित किया है। बेंगलुरु में सभी अच्छे स्कूल, उच्च संस्थान अंग्रेजी माध्यम के हैं, हिंदी के नहीं। हिंदी के विरोध से केवल भारतीय एकता को चोट पहुंचेगी। यही समझने की जरूरत है।
[ लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं स्तंभकार हैं ]