तुर्की में कट्टरता का तेजी से विस्तार हो रहा है। 31 दिसंबर की रात को इस्तांबुल के रियान क्लब में हुए एक आतंकवादी हमले में नए साल की पूर्व संध्या पर जश्न मना रहे दो भारतीयों सहित 39 लोगों की मौत हो गई। बीते कुछ सालों से तुर्की में इस तरह के आतंकवादी हमलों में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन शायद यह पहला हमला है जिसकी सीधी जिम्मेदारी आइएस ने ली है, जिसका तुर्की ने एक समय समर्थन किया था। आज तुर्की पर दो तरह के खतरे मंडरा रहे हैं। पहला, आइएस के जिहादी आतंकवाद का खतरा और दूसरा, कुर्दिश गोरिल्ला लड़ाकों का खतरा, जो कि एक अलग कुर्दिश राष्ट्र की मांग कर रहे हैं। हाल के वर्षो में र्की में दोनों तरह के हमलों में वृद्धि हुई है। गौरतलब है कि 1924 तक इस्लामी दुनिया का नेतृत्व र्की स्थित ऑटोमन खलीफा के हाथों में था। पर एक ऐतिहासिक घटनाक्रम में वहां के शासक मुस्तफा कमाल अतार्क ने खलीफा व्यवस्था को खत्म कर दिया और तुर्की में एक धर्मनिरपेक्ष सरकार का गठन किया। लेकिन तुर्की की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को अब वहां के निर्वाचित नेता रेसेप तैयप एदरेगन द्वारा व्यापक और मौलिक रूप से खत्म किया जा रहा है।

दरअसल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दो तरह की शासन प्रणाली रही हैं। पहली, लोकतांत्रिक शासन प्रणाली, जो कि अपनी जनता के प्रति जिम्मेदार होती है और जनता अगले चुनाव में अपने शासक को हटा सकती है। दूसरी, गैर लोकतांत्रिक शासन प्रणाली, जो कि अपनी जनता के प्रति जिम्मेदार नहीं होती और जनता शासक को हटा नहीं सकती है। अमेरिका और भारत लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के उदाहरण हैं, जहां कोई भी नागरिक शासक बन सकता है। मजहबी राष्ट्र सऊदी अरब और निरंकुश राष्ट्र क्यूबा तथा उत्तर कोरिया गैर लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के उदाहरण हैं, जहां के शासक अपनी जनता पर विश्वास नहीं करते हैं और सत्ता का हस्तांतरण सिर्फ अपने बेटों और भाइयों में करते हैं।

तुर्की एक तीसरे तरह की शासन प्रणाली को प्रदर्शित करता है। हाल के वर्षो में कुछ इस्लामिक पार्टियों ने चुनाव का इस्तेमाल सत्ता की ताकत हासिल करने और फिर व्यवस्था को अपनी विचारधारा के अनुकूल ढालने में किया है। उदाहरण के रूप में ईरान में इमाम खोमैनी ने 1979 की क्रांति के जरिये ताकत हासिल कर ली और बाद में सत्ता में बने रहने के लिए चुनाव का सहारा लिया। फिर उन्होंने शरीयत कानून लागू किया। इसी तरह गाजा में सत्ता हासिल करने के लिए हमास ने चुनाव का सहारा लिया और इजरायल के खिलाफ जिहादी एजेंडे को आगे बढ़ाया। लेबनान में सत्ता हासिल करने के लिए हिजबुल्ला ने भी चुनाव का सहारा लिया। मिस्न में सत्ता हथियाने के लिए मुस्लिम ब्रदरहुड ने भी चुनाव का इस्तेमाल किया और फिर व्यवस्था परिवर्तन का कार्य आरंभ किया। र्की में एदरेगन भी पहली बार 2003 में चुनकर सत्ता में आए थे और प्रधानमंत्री बने थे और अब वहां के राष्ट्रपति हैं।

एदरेगन के शासनकाल में र्की में जिस तरह की नीतियां लागू हुई हैं, उसे देखते हुए वहां के इस्लामवाद को एदरेगनवाद के रूप में भी दर्शाया जाने लगा है। एदरेगनवाद के लिए इस्लाम मायने रखता है, जनता नहीं। एदरेगनवाद ऑटोमन खलीफा व्यवस्था को पुनर्जीवित करना चाहते हैं। वह कहते हैं कि महिलाएं पुरुषों के बराबर नहीं हो सकती हैं। उन्होंने महिलाओं से कम से कम तीन बच्चे पैदा करने का आह्वान किया है। अल्कोहल मुक्त जोन की वकालत की है। धर्मनिरपेक्षवादियों और पत्रकारों के खिलाफ कड़े कदम उठाए गए हैं। स्कूलों को अरबी लिपि में र्की भाषा पढ़ाने का निर्देश दिया है। तालिबान की तरह ही एदरेगन ने भी नरम इस्लाम शब्द के प्रयोग का विरोध किया है। वह कहते हैं कि इस्लाम को नरम या कठोर के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है।

हाल ही में जर्मन मार्शल फंड के अंकारा स्थित ऑफिस के निदेशक ओजगुर यू ने कहा है कि र्की की आतंकवादी समस्या को हल करने के लिए कोई जादू की छड़ी नहीं है। तुर्की में आइएस का खतरा सिर्फ सीरिया के गृह युद्ध के कारण नहीं पैदा हुआ है, बल्कि इसके लिए तुर्की के समाज के अंदर बढ़ती कट्टरता और ध्रुवीकरण भी जिम्मेदार है। इस कट्टरता की नींव 2002 में इस्लामिक पार्टी जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी की जीत के उपरांत एदरेगन के सत्ता में आने के बाद से पड़ गई थी। तभी से इसका विकास हो रहा है। प्रधानमंत्री बनने के पहले एदरेगन ने सार्वजनिक रूप से एक कविता पढ़ी थी, जिसके अनुसार मस्जिदें हमारी बैरक हैं, गुंबदें हमारे हेलमेट, मीनारें हमारी टोपी हैं और श्रद्धालु हमारे सैनिक हैं।

हाल के वर्षो में ब्रिटेन और यूरोप से बड़े पैमाने पर मुस्लिम युवा र्की के रास्ते आइएस में शामिल होने के लिए सीरिया गए हैं, लेकिन एदरेगन इसके प्रति एकदम निष्क्रिय रहे। ऐसा उन्होंने इसलिए किया, क्योंकि सीरिया में बशर अल असद की सरकार है, जो कि एक शिया मुस्लिम नेता हैं और जिनकी मदद ईरान और रूस कर रहे हैं। वास्तव में एदरेगन ने सीरिया के शिया शासन को कमजोर करने के लिए आइएस का समर्थन किया है। एदरेगनवाद के तहत आज तुर्की में इस्लामिस्टों और जिहादियों के मनमाफिक वातावरण बना दिया गया है। यही कारण है कि तुर्की आइएस का एक बड़ा केंद्र बन गया है। एक हजार से अधिक तुर्क युवाओं के आइएस में शामिल होने का अनुमान है। हालांकि यह संख्या चार हजार से ऊपर भी जा सकती है। इसके अलावा र्की सीरिया स्थित आइएस और अलकायदा के करीब 4000 समर्थकों की निगरानी कर रहा है। दरअसल तुर्की के युवाओं में कट्टरता के प्रति झुकाव 2011 में सीरिया में संघर्ष पैदा होने के तुरंत बाद से ही देखा जाने लगा था। 2015 में तुर्की के हुर्रियत नामक अखबार ने भी अपनी विभिन्न रिपोर्टो में बताया था कि कैसे तुर्की आइएस का गढ़ बन गया है।

हालांकि हाल के दिनों में एदरेगन ने आइएस के समर्थन में कुछ आंशिक कटौती की है, लेकिन ऐसा करने में उन्होंने काफी देर कर दी। तुर्की के समाज में कट्टरता काफी अंदर तक प्रवेश कर चुकी है। तुर्की की सेक्युलर सेना को एदरेगन का विरोधी माना जाता है। गत वर्ष जुलाई में सेना ने तख्तापलट का प्रयास किया था, लेकिन वह उसमें विफल हो गई थी। उसके बाद एदरेगन ने तुर्की में सेक्युलर संगठनों पर चौतरफा हमला बोला। उन्होंने एक तानाशाह की तरह बर्ताव करते हुए हजारों सैन्य अधिकारियों, जजों, पत्रकारों, प्रोफेसरों और स्कूल शिक्षकों को बर्खास्त कर दिया। एदरेगन सरकार ने कुर्दिश समूहों को भी नहीं बख्शा। गत चार नवंबर को विपक्षी नेता सेल्हट्टेन देमिर्तास और दस अन्य कुर्दिश सांसदों को गिरफ्तार करवा लिया। उन्होंने तीन कुर्दिश मेयर्स को बर्खास्त कर दिया और बीस कुर्दिश चैनलों को बंद कर दिया। इसके अलावा 11 हजार कुर्दिश शिक्षकों को निलंबित कर दिया, जबकि इस बात के पुख्ता सुबूत हैं कि सैन्य तख्तापलट में उनका कोई हाथ नहीं था। दुखद, लेकिन यही सच है कि अब तुर्की स्वतंत्र न्यायपालिका, आजाद प्रेस और तटस्थ सिविल सेवा वाला एक लोकतांत्रिक देश नहीं रहा। एदरेगन के अधीन तुर्की अब सुन्नी मजहबी राष्ट्र बनता जा रहा है, जैसे कि 1979 की क्रांति के बाद ईरान शिया मजहबी राष्ट्र बन गया था।

[लेखक तुफैल अहमद, नई दिल्ली स्थित ओपन सोर्स इंस्टीट्यूट के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं]