[सुधीर कुमार]। Environmental Protection: इस वर्ष पद्म पुरस्कार पाने वालों में ऐसे कई नाम हैं जो गुमनाम रहकर अपने स्तर से देश में परिवर्तन ला रहे हैं। हर साल पद्म पुरस्कारों के जरिये देश के विभिन्न कोनों से ऐसे कई लोग सामने आते हैं, जो प्रसिद्धि से दूर रहकर समाज का भला कर रहे होते हैं। उनके मन में सरोकार का ऐसा जज्बा होता है, जो कई लोगों को परोपकार के लिए प्रेरित करता है। इन्हीं गुमनामों की सूची में एक नाम है कर्नाटक की 72 वर्षीय पर्यावरणविद् और ‘जंगलों की एनसाइक्लोपीडिया’ के रूप में प्रख्यात तुलसी गौड़ा का।

आज तुलसी गौड़ा का नाम पर्यावरण संरक्षण के सच्चे प्रहरी के तौर पर लिया जाता है। तुलसी ने शायद ही कभी सोचा होगा कि पौधे लगाने और उन्हें बचाने का जूनून एक दिन उन्हें पद्मश्री का हकदार बना देगी! तुलसी गौड़ा एक आम आदिवासी महिला हैं, जो कर्नाटक के होनाल्ली गांव में रहती हैं। वह कभी स्कूल नहीं गईं और ना ही उन्हें किसी तरह का किताबी ज्ञान ही है, लेकिन प्रकृति से अगाध प्रेम तथा जुड़ाव की वजह से उन्हें पेड़-पौधों के बारे में अद्भुत ज्ञान है। उनके पास भले ही कोई शैक्षणिक डिग्री नहीं है, लेकिन प्रकृति से जुड़ाव के बल पर उन्होंने वन विभाग में नौकरी भी की। चौदह वर्षों की नौकरी के दौरान उन्होंने हजारों पौधे लगाए जो आज वृक्ष बन गए हैं। रिटायरमेंट के बाद भी वे पेड़- पौधों को जीवन देने में जुटी हुई हैं। अपने जीवनकाल में अब तक वे एक लाख से भी अधिक पौधे लगा चुकी हैं।

आमतौर पर एक सामान्य व्यक्ति अपने संपूर्ण जीवनकाल में एकाध या दर्जन भर से अधिक पौधे नहीं लगाता है, लेकिन तुलसी को पौधे लगाने और उसकी देखभाल में अलग किस्म का आनंद मिलता है। आज भी उनका पर्यावरण संरक्षण का जुनून कम नहीं हुआ है। तुलसी गौड़ा की खासियत है कि वह केवल पौधे लगाकर ही अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो जाती हैं, अपितु पौधरोपण के बाद एक पौधे की तब तक देखभाल करती हैं, जब तक वह अपने बल पर खड़ा न हो जाए। वह पौधों की अपने बच्चे की तरह सेवा करती हैं। वह पौधों की बुनियादी जरूरतों से भलीभांति परिचित हैं। उन्हें पौधों की विभिन्न प्रजातियों और उसके आयुर्वेदिक लाभ के बारे में भी गहरी जानकारी है। पौधों के प्रति इस अगाध प्रेम को समझने के लिए उनके पास प्रतिदिन कई लोग आते हैं।

तुलसी गौड़ा पर पौधरोपण का जुनून तब सवार हुआ, जब उन्होंने देखा कि विकास के नाम पर निर्दोष जंगलों की कटाई की जा रही है। यह देख वह इतनी व्यथित हुईं कि उन्होंने पौधरोपण का सिलसिला शुरू कर दिया। एक अनपढ़ महिला होने के बावजूद वह समझती हैं कि पेड़-पौधों का संरक्षण किए बगैर खुशहाल भविष्य की कल्पना नहीं की सकती, लिहाजा अपने स्तर से इस काम में जुटी हुई हैं। जीवन के जिस दौर में लोग अमूमन बिस्तर पकड़ लेते हैं, उस उम्र में भी तुलसी सक्रियता से पौधों को जीवन देने में जुटी हुई हैं।

पर्यावरण को सहेजने के लिए उन्हें इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष मित्र अवॉर्ड, राज्योत्सव अवॉर्ड, कविता मेमोरियल समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। लेकिन जो खुशी उन्हें पौधे लगाने और उसके पेड़ बनने तक के बीच किए गए देखभाल से मिलती है, वह खुशी उन्हें पुरस्कार पाकर भी नहीं मिलती! सोचिए, बिना किसी लाभ की उम्मीद लगाए एक महिला पिछले करीब छह दशकों से पर्यावरण को संवार रही है। एक ऐसी महिला जिसके अपने बच्चे नहीं हैं, लेकिन अपने द्वारा लगाए गए लाखों पौधों को ही अपना बच्चा मानती हैं और उनकी बेहतर ढंग से परवरिश भी करती हैं।

आदिवासी समुदाय से संबंध रखने के कारण पर्यावरण संरक्षण का भाव उन्हें विरासत में मिला है। दरअसल धरती पर मौजूद जैव-विविधता को संजोने में आदिवासियों की प्रमुख भूमिका रही है। वे सदियों से प्रकृति की रक्षा करते हुए उसके साथ साहचर्य स्थापित कर जीवन जीते आए हैं। जन्म से ही प्रकृति प्रेमी आदिवासी लालच से इतर प्राकृतिक उपदानों का उपभोग करने के साथ उसकी रक्षा भी करते हैं। आदिवासियों की संस्कृति और पर्व-त्योहारों का पर्यावरण से घनिष्ट संबंध रहा है। यही वजह है कि जंगलों पर आश्रित होने के बावजूद पर्यावरण संरक्षण के लिए आदिवासी सदैव तत्पर रहते हैं।

आदिवासी समाज में ‘जल, जंगल और जीवन’ को बचाने की संस्कृति आज भी विद्यमान है, पर औद्योगिक विकास ने एक तरफ आदिवासियों को विस्थापित कर दिया तो दूसरी तरफ आर्थिक लाभ के चलते जंगलों का सफाया भी किया जा रहा है। उजड़ते जंगलों की व्यथा प्राकृतिक आपदाओं के रूप में प्रकट होती है। लिहाजा इसके संरक्षण के लिए तत्परता दिखानी होगी। पद्मश्री सम्मान मिलने के बाद तुलसी गौड़ा की जिंदगी में कोई खास परिवर्तन हो या ना हो, पर अपने जज्बे से वह सबके जीवन में परिवर्तन लाने का सिलसिला जारी रखने वाली हैं। तुलसी गौड़ा के प्रयासों से हमें सीख मिलती है कि हमें भी पर्यावरण संरक्षण की दिशा में धरातल पर काम करना चाहिए।

एक तुलसी गौड़ा या एक सुंदरलाल बहगुणा पर्यावरण को संरक्षित नहीं कर सकते! मालूम हो कि बीती सदी के आठवें दशक में उत्तराखंड के जंगलों को बचाने के लिए वहां की महिलाओं ने पेड़ों को गले से लगाकर उसकी रक्षा की थी। आज वैसे चिपको आंदोलन और सुंदरलाल बहगुणा तथा तुलसी गौड़ा जैसे पर्यावरणविदों की जरूरत हर जिले में है। यदि पर्यावरण का वास्तव में संरक्षण करना है और दुनिया को जलवायु परिवर्तन के खतरे से बाहर निकालना है, तो इसके लिए साझे प्रयास करने होंगे। पौधरोपण की आदत सेल्फी लेने भर तक सीमित न रहे। पौधरोपण सुखद भविष्य के लिए किया जाने वाला एक जरूरी कर्तव्य है। जरूरी नहीं कि इसके लिए दिखावा ही किया जाए! पौधरोपण और पर्यावरण संरक्षण को दैनिक जीवन का अंग बनाया जाना चाहिए। प्राकृतिक संतुलन के लिए जंगलों का बचे रहना बेहद जरूरी है। पृथ्वी पर जीवन को खुशहाल बनाए रखने का एकमात्र उपाय पौधरोपण पर जोर देने तथा जंगलों के संरक्षण से जुड़ा है। इसके लिए सभी को मिलकर प्रयास करना होगा।

[अध्येता, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय]