शंकर शरण। मुल्लाओं को छोड़ हर वर्ग के लोग हजारों की संख्या में अफगानिस्तान से भागने के लिए बदहवास हैं। वे सभी मुस्लिम ही हैं। वे तालिबान के क्रूर कानूनों से आजादी चाहते हैं, लेकिन याद रहे कि तालिबान के सभी कानून शरीयत ही हैं। यानी वे इस्लाम को ही पूर्णत: लागू कर रहे हैं। यही उन्होंने अपने पिछले शासनकाल में किया था। तब या अब, दुनिया के किसी इस्लामी संस्थान, इमाम आदि ने उनके काम को गैर-इस्लामी नहीं बताया, बल्कि भारत के बड़े मौलानाओं ने उस पर सगर्व बयान दिए कि तालिबान ही एकमात्र शुद्ध इस्लामी शासन है। यह प्रकरण इसका नवीनतम प्रमाण है कि इस्लामोफोबिया झूठा मुहावरा है। लोगों का इस्लाम से भय वास्तविक है। न केवल गैर-मुसलमानों, बल्कि स्वयं मुसलमानों में भी। इसका एक प्रामाणिक उदाहरण पाकिस्तान भी है।

कुछ समय पहले प्यू रिसर्च सेंटर ने पाकिस्तान में एक सर्वेक्षण किया था। पता चला कि वहां 84 प्रतिशत मुसलमान शरीयत के पक्ष में हैं, पर जो पार्टयिां शरीयत लागू करना चाहती हैं, उन्हें पांच-सात प्रतिशत से अधिक वोट नहीं मिलते। अर्थात आम मुसलमान शरीयत के पूरे अर्थ से अनजान हैं। इसीलिए जब खालिस इस्लामी पार्टयिां शरीयत बताती हैं तो उन्हें कट्टरपंथी कहकर अधिकांश पाकिस्तानी दूर रहते हैं। उस सर्वे में मात्र नौ प्रतिशत पाकिस्तानी लोग तालिबान/ इस्लामिक स्टेट के समर्थक मिले। कुल 72 प्रतिशत पाकिस्तानी लोग तालिबान विरोधी मिले। यही स्थिति इंडोनेशिया में दिखी, जहां 72 प्रतिशत लोग शरीयत के पक्षधर हैं, मगर केवल चार प्रतिशत ने इस्लामिक स्टेट का समर्थन किया। यही हाल ईरान, तुर्की, सीरिया, मिस्र आदि मुस्लिम देशों का है।

वास्तव में आम मुसलमानों को भड़का कर राजनीतिक इस्लाम का दावा बुलंद रखा जाता है। भारत-पाकिस्तान इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जहां निरीह हिंदुओं का संहार होता रहा है, फिर भी मुसलमानों को हिंदुओं के विरुद्ध शिकायतों से भरा जाता है। इसकी बड़ी वजह वह अज्ञान है, जिसमें आम हिंदू-मुस्लिम डूबे हुए हैं। पाकिस्तानी लेखक हैरिस सुल्तान की पुस्तक ‘द कर्स आफ गाड’. में इसके मार्मिक विवरण हैं। दुर्भाग्यवश इतनी बड़ी विडंबना पर हमारे सत्ताधारियों, बुद्धिजीवियों ने आंखें मूंद रखी हैं। जबकि इसका उपाय नितांत शांतिपूर्ण है और उससे सबको राहत मिलेगी। अफगानिस्तान के नजारे ने भी यही दिखाया है। इस्लाम के पक्के समर्थकों को तालिबान सी ही सरकार चुननी होगी, लेकिन आम मुसलमान, विशेषकर गैर-अरब मुसलमान यह नहीं जानते। मौलाना वर्ग उन्हें आधा-अधूरा इस्लामी सिद्धांत और झूठा इतिहास-वर्तमान बताकर अपने कब्जे में रखता है। उनमें शिकायत, नाराजगी और हिंसा भरता रहता है। यह सब इस्लामी राजनीति के लिए पूंजी की तरह इस्तेमाल होता है।

दूसरी ओर इस्लाम से अनजान गैर-मुस्लिम उन शिकायतों के दबाव में तथा भ्रमवश उन्हें विशेष सुविधाएं देते जाते हैं। इस तरह अंतत: अपनी हानि का प्रबंध करते हैं। यह अनेक लोकतांत्रिक देशों में चल रहा है। राष्ट्रीय कानूनों को धता बताकर, छल-प्रपंच से शरीयत लागू की जाती है। हिंसा, शिकायत और छल की तकनीकों से दबदबा बढ़ाया जाता है। यह घटनाक्रम गत चार दशकों में तेज होता गया। इसी की प्रतिक्रिया से दुनिया में इस्लामोफोबिया बना है।

दुनिया में तीन किस्म के मुसलमान हैं: जिहादी, बेपरवाह और मानवतावादी। सबसे अधिक बेपरवाह हैं, जो इस्लाम के समर्थक हैं, मगर उसकी हानिकारक बातों से काफी-कुछ अनजान हैं। मानवतावादी/सेक्युलर मुसलमान बहुत कम हैं। वे राजनीतिक इस्लाम का सच जानकर उसे खारिज करते हैं। इनमें कई लेखक, कलाकार आदि हैं। इसलिए बेपरवाह-अनजान लोगों को प्रामाणिक इस्लाम बताया जाए, ताकि पक्के इस्लामियों, तालिबानियों से बहस हो। तभी शरीयत को खारिज कर मिल-जुलकर रहने का माहौल बनेगा। वफा सुलतान, तसलीमा नसरीन आदि ने इसी विमर्श का आग्रह किया है। तालिबान समर्थकों से निपटने का उपाय यह है कि मूल इस्लामी किताबें खुद पढ़ें। वे इंटरनेट पर मुफ्त उपलब्ध हैं। उनकी परख वास्तविक घटनाओं, इस्लामी मांगों और अपने विवेक से करें।

कोई भी सामाजिक सिद्धांत तभी उपयुक्त है, जिसे किसी समान मानवीय कसौटी पर कस सकें। बिना कसौटी के महज ‘फेथ’ वाली बातों को सच नहीं कहा जा सकता। इस्लाम के धार्मिक अनुष्ठान जैसे नमाज, रोजा, हज आदि कसौटी से मुक्त रह सकते हैं, लेकिन राजनीतिक इस्लाम, जैसे गैर-मुसलमानों या महिलाओं के प्रति व्यवहार, जिहाद, शरीयत के हुक्म, दुनिया के बारे में शिक्षा और इतिहास-इन सबको कसौटी पर परखना ही होगा। सच (ट्रुथ) और विश्वास (फेथ) दो अलग-अलग चीजें हैं। धार्मिक अनुष्ठानों में फेथ चल सकता है, मगर राजनीति में नहीं। इसमें घालमेल के कारण ही खुद इस्लामी समाज सदैव हिंसा-ग्रस्त रहे हैं। इसी नाम पर मुसलमान दूसरे मुसलमान को मारते हैं।

अधिकांश खलीफा, इमाम और खुद प्रोफेट मुहम्मद के परिवार की हत्याएं मुसलमानों ने ही कीं। आज भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सीरिया, नाइजारिया आदि देशों में वही हो रहा है। इसलिए दोष इस्लाम के राजनीतिक मतवाद में है, जिससे स्वयं मुस्लिम समाज भी त्रस्त है। चूंकि, इस्लामी मूल किताबों की सामग्री का बड़ा हिस्सा (लगभग 86 प्रतिशत) राजनीति ही है, इसलिए व्यवहारत: राजनीतिक इस्लाम ही इस्लाम का प्रतिनिधि रहा है। यह बातें धीरे-धीरे मुस्लिम समाज समेत पूरी दुनिया में साफ हो रही हैं। फलत: मानवतावादी मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है, जो शरीयत को सचेत रूप से खारिज करते हैं। सच्ची बातों की अपनी ताकत होती है, जिसके सामने बम-बंदूकें निष्फल होतीं हैं। इसीलिए एक इब्न वराक, एक रुश्दी, अली सिना या वफा सुलतान से तमाम मुस्लिम सत्ताएं परेशान हो जाती हैं। आखिर इन लेखकों ने कुछ शब्द ही तो लिखे, पर उनकी सच्चाई की आंच लाखों मदरसों पर हुकूमत करने वाले हजारों आलिम-उलेमा नहीं ङोल पाते।

यह स्पष्ट है कि जैसे-जैसे सच सामने आएगा, वैसे-वैसे राजनीतिक इस्लाम का प्रभाव सिकुड़ेगा। यह भी गौर किया जाना चाहिए कि बिना किसी धमकी, प्रचार या संस्थानों के दुनिया की असंख्य पुस्तकें स्वत: अपना प्रभाव रखती हैं। उन्हें मनवाने के लिए जबरदस्ती नहीं करनी पड़ती। वहीं अन्य मजहबी किताबों को जबरन अंतिम सच जैसा मनवाने के लिए अंतहीन हिंसा करनी होती है। खुद मुसलमानों पर भी।

(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)