रक्षामंत्री के रूप में मुलायम सिंह यादव ने जब देखा कि बोफोर्स तोपें सीमा पर अच्छा काम कर रही हैं तो उन्होंने बोफोर्स दलाली की फाइलें गायब करवा दी थीं। मुलायम की यह बात यदि पूरी तरह सच होती तो फाइल गायब कराने के उनके काम को नजरअंदाज किया जा सकता था, पर स्पष्टवादी मुलायम को शायद यह नहीं बताया गया था कि तत्कालीन सेनाध्यक्ष सुंदरजी ने फ्रांस की सोफ्मा कंपनी की तोपों की खरीद की सिफारिश की थी। सुंदरजी के अनुसार वे तोपें बोफोर्स से भी बढिय़ा थीं। याद रहे कि सोफ्मा दलाली देने को तैयार नहीं थी। रक्षा राज्यमंत्री अरुण सिंह ने सुंदरजी को यह समझाया कि ऊपरी इशारा है कि बोफोर्स तोपें ही खरीदी जाएं। हमेशा ऊपर की बात ही मानी जानी चाहिए। इसके बाद तो सुंदरजी ने अपनी राय बदल दी थी। इधर बोफोर्स कंपनी ने कुल मिलाकर दलाली पर करीब 64 करोड़ रुपये खर्च किए, जबकि सौदा तय करते समय बोफोर्स ने भारत सरकार के साथ यह लिखित समझौता किया था कि इसमें किसी तरह की दलाली नहीं दी जाएगी।

कांग्रेसी सरकार और उसके नेता लगातार यह कहते रहे कि बोफोर्स में कोई दलाली नहीं ली गई, पर भारत सरकार के ही आयकर न्यायाधिकरण ने 2010 में यह कह दिया कि ओटावियो क्वात्रोची और विन चड्ढा को बोफोर्स की दलाली के 41 करोड़ रुपए मिले थे। ऐसी आय पर भारत में उन पर टैक्स की देनदारी बनती है। इससे मामला और भी साफ हो गया। हालांकि किस तरह कांग्रेसी सरकारों से जुड़ी बड़ी-बड़ी शक्तियों ने समय-समय पर इन दलालों तथा अन्य आरोपियों को बचाया, इसका बड़ा सबूत संसदीय समिति की रपट थी। समिति बी. शंकरानंद के नेतृत्व में बनाई गई थी। उस समिति का प्रतिपक्ष ने बहिष्कार कर दिया था। समिति ने कथित जांच के बाद यह पाया कि बोफोर्स सौदे में कोई दलाली नहीं दी गई है, जबकि स्वीडन के नेशनल ऑडिट ब्यूरो ने चार जून 1987 को कह दिया था कि बोफोर्स सौदे में दलाली खाई गई है। इसके बाद तो बचाने के काम में लगे कांग्रेसी नेताओं और अफसरों में होड़ सी मच गई। क्वात्रोची ने दलाली के पैसे स्विस बैंक की लंदन शाखा में जमा करवाए थे। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में उस खाते को जब्त किया गया था, पर कांग्रेस सरकार ने पहले क्वात्रोची को भारत से भगाया और बाद में लंदन के स्विस बैंक के बंद खाते को खुलवा कर उसे पैसे निकाल लेने की सुविधा प्रदान कर दी। स्वीडन के पूर्व पुलिस प्रमुख स्टेन लिंडस्टॉर्म ने जरूर यह कहा था कि राजीव गांधी ने बोफोर्स दलाली के पैसे लिए, इसके सबूत नहीं मिले। दूसरी ओर उन्होंने यह भी कहा कि क्वात्रोची के खिलाफ पुख्ता सबूत मिले। इसके बावजूद राजीव गांधी की सरकार और बाद की सरकारों ने बोफोर्स केस को दबाने की कोशिश क्यों की?

बोफोर्स घोटाला 1987 में उजागर हुआ। उसको लेकर राजीव सरकार के कदमों और कांग्रेसी नेताओं के बयानों से आम लोगों को यह लग गया था कि सरकार दोषियों को बचाने की कोशिश में है। इसीलिए लोगों ने 1989 के चुनाव में कांग्रेस को केंद्र की सत्ता से हटा दिया। वीपी सिंह की सरकार के कार्यकाल में जनवरी 1990 में इस मामले में प्राथमिकी दर्ज की गई। उसी महीने स्विस खाते फ्रीज करवा दिए गए। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में 1999 में बोफोर्स मामले में अदालत में आरोपपत्र दाखिल किया गया। पर इस बीच जब-जब कांग्रेसी या कांग्रेस समर्थित सरकार बनी, उसने इस मामले को दबाने की कोशिश की। चंद्रशेखर सरकार ने कोर्ट में कह दिया कि कोई केस नहीं बन रहा है। नरसिंह राव सरकार के विदेशमंत्री माधव सिंह सोलंकी ने दावोस में स्विस विदेश मंत्री को कह दिया कि बोफोर्स केस राजनीति से प्रेरित है। इस पर जब भारी हंगामा हुआ तो सोलंकी को इस्तीफा देना पड़ा। 2004 में मनमोहन सिंह की सरकार बन गई। 2005 में सीबीआइ ने प्रयास करके क्वात्रोची के लंदन स्थित बंद बैंक खाते को चालू करवा दिया। उसने पैसे निकाल भी लिए। लिंडस्टॉर्म के बयान पर यह सवाल उठना वाजिब है कि यदि राजीव गांधी ने बोफोर्स की दलाली के पैसे खुद नहीं लिए तो भी तब की उनकी सरकार और बाद की अन्य कांग्रेसी सरकारों ने क्वात्रोची को बचाने के लिए एड़ी चोटी का पसीना एक क्यों किया? अंतत: मनमोहन सरकार ने अपनी छवि की कीमत पर भी क्वात्रोची को बचा ही लिया? आखिर क्यों?

सीबीआइ ने दिल्ली की एक अदालत में जनवरी 2011 में बोफोर्स मामले में आयकर अपीली न्यायाधीकरण के आदेश को पूरी तरह अप्रासंगिक बताया और कहा कि क्वात्रोची के खिलाफ मामला वापस लेने के सरकार के रुख में कोई बदलाव नहीं आया है। जाहिर है कि मनमोहन सरकार के कहने पर सीबीआइ ने कोर्ट में उपर्युक्त बात कही। बोफोर्स सौदे में दलाली की राशि हेलीकॉप्टर खरीद घोटाले, स्पेक्ट्रम घोटाले या फिर कामनवेल्थ गेम्स घोटाले की राशि के मुकाबले में कुछ भी नहीं है। इस बीच इस देश में हुए अन्य कई घोटालों की अपेक्षा भी उसे छोटी रकम वाला घोटाला ही माना जाएगा। पर बोफोर्स घोटाले ने 1989 में भी मतदाताओं के मानस को इसलिए अधिक झकझोरा था, क्योंकि यह सीधे देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला था। अधिकतर नेतागण सत्ता में आने के बाद यह बात भूल जाते हैं कि आम जनता भ्रष्टाचार के बहुत खिलाफ है। कई बार आम लोगों के सामने यह दिक्कत आ जाती है कि समान रूप से दो भ्रष्ट नेताओं या दलों में से वे किसे चुनें, पर जब भी थोड़ा बेहतर विकल्प उसे मिलता है तो मतदाता खुलकर समर्थन कर देते हैं। बोफोर्स घोटाले को लेकर राजीव गांधी की हार को याद रखने में ही इस देश के नेताओं की भलाई है। यदि बोफोर्स घोटाले में दोषियों को सजा मिल गई होती तो न तो मनमोहन सरकार में महाघोटाले होते और न ही कांग्रेस लोकसभा में 44 सीटों तक सिमटती। यह बात कहने से किसी नेताजी को कोई चुनावी लाभ नहीं मिलने वाला है कि उन्होंने फलां केस में फलां नेता को बचा लिया था।

[ लेखक सुरेंद्र किशोर, वरिष्ठ पत्रकार हैं ]