[ ब्रह्मा चेलानी ]: तालिबान के साथ ‘शांति’ समझौते की बेचैनी में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस क्रूर संगठन के आका पाकिस्तान के आगे झुकने को तैयार हैं। अमेरिका के बदले रवैये में यह स्पष्ट भी हुआ जब उसने इस्लामाबाद के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से छह अरब डॉलर के राहत पैकेज का रास्ता साफ कर दिया। एक प्रमुख बलूच अलगाववादी धड़े को ‘आतंकी’ समूहों की सूची में डाल दिया। इसके अलावा ट्रंप ने भारत-पाकिस्तान के बीच वार्ता का शिगूफा भी छेड़ा जिसमें कश्मीर में मध्यस्थता की पेशकश भी शामिल थी।

ट्रंप का विवादित बयान

पाकिस्तान ने 27 फरवरी को भारत के खिलाफ अमेरिका से मिले एफ-16 लड़ाकू विमान का इस्तेमाल किया। फिर भी अमेरिका ने पाकिस्तान के एफ-16 बेड़े की मदद के लिए 12.5 करोड़ डॉलर की राशि मंजूर कर दी। जिस पर कहा कि इससे ‘क्षेत्रीय संतुलन’ के समक्ष कोई खतरा उत्पन्न नहीं होगा। कश्मीर विवाद में मध्यस्थता को लेकर ट्रंप ने जो विवादित बयान दिया वह पाकिस्तानी फौज समर्थित प्रधानमंत्री इमरान खान की मौजूदगी में दिया था। इस दौरान वह भारत और पाकिस्तान को बड़े विचित्र ढंग से एक तराजू में तौलते नजर आए। वहीं अफगानिस्तान से बाहर निकलने को लेकर वह एक तरह पाकिस्तान से गुहार लगाते दिखे।

ट्रंप जुटे सौदेबाजी में

बहरहाल कश्मीर विवाद में मध्यस्थता वाले बयान से ज्यादा हमारे लिए यह और बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए कि आखिर अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी को लेकर ट्रंप किस अंदाज में पाकिस्तान से मदद मांग रहे हैं। तालिबान से समझौते को लेकर ट्रंप जैसी सौदेबाजी में जुटे हैं वह भारत के क्षेत्रीय हितों और आंतरिक सुरक्षा विशेषकर कश्मीर के लिए बेहद खतरनाक है। वहीं इस्लामाबाद ट्रंप प्रशासन से अफगानिस्तान में मदद के बदले कश्मीर विवाद में भूमिका और भारत-पाक के बीच बंद पड़ी वार्ता को फिर से बहाल कराने की उम्मीदें लगाए हुए हैं। ऐसे में यह महज कोई संयोग नहीं था कि ट्रंप ने इमरान खान की मौजूदगी में ही कश्मीर को लेकर बयान दिया।

भारत-पाक में तनाव घटाने का श्रेय ट्रंप को

भारत को ट्रंप के बयान पर हैरान नहीं होना चाहिए, क्योंकि भारत ने ही बालाकोट हमले के बाद उपजे तनाव में ट्रंप को दखल देने की छूट दी। याद रहे कि भारत-पाक में तनाव घटने की घोषणा पीएम मोदी ने नहीं, बल्कि ट्रंप ने की थी। बालाकोट बाजी पलटने वाला पड़ाव था। हालांकि 27 फरवरी को पाक के हवाई हमले के बाद पलटवार में नाकाम रहे भारत के हाथ से वह निर्णायक मौका फिसल गया। इससे भी बदतर बात यह रही कि उसने ट्रंप जैसे अहंकारी नेता को इसमें टांग अड़ाने और तनाव घटाने का श्रेय लेने दिया। इसके बाद बंधक भारतीय पायलट की वापसी की राह खुली।

अमेरिकी कूटनीतिक हस्तक्षेप

कारगिल युद्ध के समय भी भारत ने अमेरिकी कूटनीतिक हस्तक्षेप होने दिया था। कड़वी हकीकत यही है कि भारत कभी भी पाक के साथ विवादों का निर्णायक पटाक्षेप नहीं कर पाया। भले ही हालात भारत के हक में हों, लेकिन वह इन मौकों का लाभ नहीं उठा पाया। जैसे 1972 के शिमला समझौते में भी भारत 93,000 युद्ध बंदियों के बदले कश्मीर मुद्दे, सीमा विवाद और करतारपुर पर सौदेबाजी कर सकता था। तुरुप के सारे पत्ते होने के बावजूद भारत बाजी नहीं जीत पाया। जंग के मैदान में सैनिकों की पूंजी को वार्ता की मेज पर लुटा दिया गया।

पाक छद्म युद्ध में संलग्न

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने 26 जुलाई को कहा कि पाकिस्तान की भारत के साथ कोई पूर्ण या सीमित युद्ध लड़ने की हैसियत नहीं और यही वजह है कि वह छद्म युद्ध में लगा हुआ है। उनकी बात एकदम दुरुस्त है। मगर यह भी सही है कि भारत पाक के साथ अपने विवादों को निपटाने में हिचक दिखाता है। भारत पाक को आतंकी देश बताता तो है, लेकिन नीतिगत रूप से इसे पुष्ट नहीं करता। इस सबसे छद्म युद्ध के लिए पाकिस्तान का हौसला और मध्यस्थ बनने के लिए अमेरिका की हसरत हिलोरे मारती है।

ट्रंप पाकिस्तान-तालिबान की खुशामद में जुटे

ट्रंप जिस तरह पाकिस्तान-तालिबान की खुशामद में जुटे हैं वह भारत के लिए खतरे की घंटी है, क्योंकि यह भारत के क्षेत्रीय और सुरक्षा हितों के प्रतिकूल है। इसके अलावा ट्रंप के और भी कदम भारत की मुश्किलें बढ़ाने वाले हैं। फिर चाहे ईरान से तेल आयात पर प्रतिबंध लगाकर भारत पर बोझ बढ़ाना हो या भारत को मिला जीएसपी दर्जा समाप्त करना या भारत से कुछ रियायतें हासिल करने के मकसद से व्यापार युद्ध में जुटना।

हाफिज सईद की गिरफ्तारी पर ट्रंप पाक की पीठ थपथपा चुके हैं

इससे पहले मुंबई हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद की गिरफ्तारी पर भी ट्रंप पाक की पीठ थपथपा चुके हैं। पाक में छुट्टा घूमने और रैलियों में खुलेआम जिहाद के लिए भड़काने के बावजूद एक करोड़ डॉलर के इनामी आतंकी पर ट्रंप ने 17 जुलाई को ट्वीट किया, ‘दस साल की खोजबीन के बाद पाकिस्तान ने मुंबई आतंकी हमले के मास्टरमाइंड को गिरफ्तार कर लिया है। उसके लिए बीते दो साल में भारी दबाव डाला गया।’

अमेरिकीय सेनाओं की वापसी

एक वक्त अल कायदा को पनाह देने वाला और अब दुनिया के दुर्दांत आतंकी हमलों को अंजाम दे रहे तालिबान से अमेरिका न केवल अपनी सेनाओं की वापसी का वादा, बल्कि काबुल की सत्ता तक पहुंचने का मैदान मुहैया करा रहा है। पाकिस्तानी सैन्य जनरल यह दिखा रहे हैं कि आतंक को शह देना कितना फलदायी होता है।

तालिबान और हक्कानी नेटवर्क

तालिबान और हक्कानी नेटवर्क जैसे उनके पिट्ठू अफगानिस्तान में अमेरिका जैसे देश को उनकी शर्तों पर झुकने के लिए मजबूर कर रहे हैं। इसमें भी निर्णायक सौदे के लिए अमेरिका को मदद के लिए पाकिस्तान का मोहताज बनना पड़ रहा है। तालिबान-पाकिस्तान के साथ ट्रंप प्रशासन का संभावित समझौता भारत विरोधी पाकिस्तानी आतंकी संगठनों लश्कर और जैश का हौसला बढ़ाएगा। हालांकि इससे सबसे ज्यादा उस कुख्यात आइएसआइ के मंसूबे परवान चढ़ेंगे जो ऐसे तमाम आतंकी संगठनों को पैदा करती रही है।

इतिहास खुद को दोहराता है

इतिहास खुद को दोहरा रहा है। अमेरिका एक बार फिर युद्ध पीड़ित अफगानिस्तान से बाहर निकल रहा है। बिल्कुल वैसे जैसे तीन दशक पहले सोवियत सेनाओं को वहां से खदेड़कर निकला था। उस सफलता ने बड़े विरोधाभासी ढंग से अफगानिस्तान को अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का गढ़ बना दिया था। उस अभियान में अमेरिका का साथ देने वाली आइएसआइ ने बाद में तालिबान को सत्ता में स्थापित करा दिया।

इस्लामी चरमपंथियों की ताकत बढ़ेगी

क्या अमेरिका अफगानिस्तान में पाक को फिर से वैसा ही खुला हाथ देगा। यदि ऐसा हुआ तो महिला एवं नागरिक अधिकारों के मोर्चे पर जो भी प्रगति हुई है वह हवा हो जाएगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि तालिबान उन्हीं सख्त मध्यकालीन परंपराओं को थोपेगा जो उसने 1996 से 2001 के बीच अपने शासन में थोप रखी थीं। इससे पाकिस्तान में इस्लामी चरमपंथियों की ताकत बढ़ेगी।

वक्त का पहिया घूमकर फिर वहीं आ गया

अमेरिका के लिए वक्त का पहिया घूमकर फिर वहीं आ गया है। लगभग 19 साल पहले उसने जिस तालिबान को उखाड़ फेंका था उसे ही एक बार फिर सत्ता की कमान सौंपने की तैयारी कर रहा है। हेनरी किसिंग्जर ने एक बार कहा था कि ‘अमेरिका का दुश्मन होना खतरनाक है, लेकिन अमेरिका की दोस्ती और घातक होती है।’ भारत उनके बयान की तपिश शिद्दत से महसूस कर रहा है।

( लेखक सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं )

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