[ ब्रह्मा चेलानी ]: अफगानिस्तान में अमेरिकी लड़ाई द्वितीय विश्व युद्ध से भी ज्यादा लंबी खिंच गई है। इससे जानमाल का भारी नुकसान हुआ है। सात अक्टूबर को इसे 17 साल पूरे हो गए। ऐसे में इसे खत्म करने को लेकर व्हाइट हाउस के भीतर बेचैनी बढ़ना स्वाभाविक है। इसके लिए सामरिक रणनीति में बदलाव से लेकर अफगान तालिबान के साथ शांति वार्ता के प्रयास भी किए जा रहे हैं। मगर अंतरराष्ट्रीय भू-राजनीति की बदलती दिशा मिजाज बिगाड़ रही है। सख्त प्रतिबंधों और ट्रेड वार के माध्यम से अमेरिका रूस, चीन और ईरान की भी काट तलाश रहा है ताकि अफगानिस्तान में उसका काम आसान हो सके।

वहीं तालिबान को प्रश्रय देने वाला पाकिस्तान भी अमेरिका को बरगलाने से बाज नहीं आ रहा। कहने को तो वह अमेरिका के साथ है, लेकिन असल में तालिबानी तंत्र को फलने-फूलने में खाद-पानी उपलब्ध कराता है। तालिबान की बढ़ती ताकत से हालात और खराब हो रहे हैं। सरकारी अमले पर उसके हमलों का असर ऐसा है कि काबुल में सरकारी एजेंसियों ने आतंक की भेंट चढ़ने वालों का आंकड़ा ही जारी करना बंद कर दिया है। वर्ष 2014 में जबसे अमेरिका ने सुरक्षा का मुख्य जिम्मा अफगानियों को सौंपा है तबसे अफगान सुरक्षा बलों को काफी नुकसान पहुंचा है। अब काबुल और वाशिंगटन, दोनों यह स्वीकार करते हैं कि जानमाल के ऐसे नुकसान को और बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

ट्रंप ने भले ही नीति में आमूलचूल बदलाव का वादा किया था, लेकिन वह ओबामा के नाकाम दांव को ही दोहरा रहे हैं। ओबामा के नक्शेकदम पर वह भी अफगान तालिबान के साथ सौदेबाजी की फिराक में हैं जिसके लिए अमेरिका को पाकिस्तान के ताकतवर सैन्य जनरलों के समर्थन की दरकार होगी। उनका समर्थन हासिल करने और खुशामद के मकसद से ही शायद अमेरिका ने मई में पाकिस्तानी तालिबान के मुखिया को मार गिराया था जिससे अमेरिकी सुरक्षा को शायद ही कोई खतरा हो, लेकिन वह पाकिस्तानी सेना की आंख की किरकिरी जरूर बना हुआ था।

अमेरिका ने सैन्य हमले में पाकिस्तानी तालिबान के एक के बाद एक तीन प्रमुखों को ठिकाने लगा दिया। यह इसी मकसद से किया गया कि अफगानिस्तान में उसे पाकिस्तान का समर्थन मिलेगा। इनमें सबसे हालिया मामला तो वाशिंगटन द्वारा पाकिस्तान को दी जाने वाली सुरक्षा मदद रोकने के चार महीने बाद का है। इसके बाद जुलाई में ही अमेरिका ने कतर में अफगान तालिबान के साथ आमने-सामने वार्ता की।

ओबामा प्रशासन ने अफगान तालिबान के साथ शांति वार्ता के लिए कतर की राजधानी दोहा को ठिकाना बनाया था। इससे तालिबान ने 2013 में वहां अपना डिप्लोमेटिक मिशन बना लिया। 2015 में एक अमेरिकी सैन्य सार्जेंट के बदले ग्वांतेनामो बे से रिहा किए गए पांच तालिबानी नेता अभी भी दोहा में रह रहे हैं। तालिबान के साथ सौदेबाजी की संभावनाओं को कायम रखते हुए अमेरिका ने इसे विदेशी आतंकी संगठनों की सूची में नहीं डाला है। इसके अलावा अमेरिका ने अफगान तालिबान के केवल एक ही शीर्ष नेता को मारा है और वह भी इसलिए, क्योंकि उक्त नेता अमेरिका से शांति वार्ता का विरोध कर रहा था। यह 2016 का वाकया है जब आतंकियों की ऐशगाह पाकिस्तान में एक ड्रोन हमले में उसे निशाना बनाया गया था।

हाल में नई दिल्ली से वापसी के दौरान अचानक काबुल पहुंचे अमेरिकी रक्षा मंत्री जिम मैटिस ने कहा कि मिलिशिया के साथ मेल-मिलाप की कोशिशों ने ‘गति’ पकड़ी है। तालिबान के साथ अमेरिका की हालिया वार्ता ने आगे की वार्ताओं के लिए जमीन तैयार करने का काम किया है। अगर तालिबान के नजरिये से देखें तो अफगान सरकार के प्रभाव को कम करने के लिहाज से अमेरिका के साथ शांति स्थापित करने में उसका बहुत ज्यादा फायदा नहीं है।

तालिबान ने सरकारी सुरक्षा बलों के खिलाफ बढ़त बना ली है जो कमजोर और रक्षात्मक ही साबित हो रहे हैं। वास्तव में तालिबान की बढ़त सरकार का मनोबल तोड़ रही है। ऐसे में इस बात की संभावना कम ही है कि ये विद्रोही किसी शांति समझौते पर सहमत होंगे। तालिबानी हमलों में तेजी को देखते हुए वाशिंगटन ने अफगान सुरक्षा बलों को सलाह दी है कि छितरी हुई आबादी और संवेदनशील बाहरी इलाकों से निकलकर शहरों की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करें। यह सुरक्षा को लेकर प्राथमिकताओं को रेखांकित करता है।

तालिबान को रूस, ईरान और चीन से भी समर्थन मिल रहा है। अमेरिकी प्रतिबंध जहां ईरानी और रूसी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा रहे हैं वहीं ट्रंप का ट्रेड वार चीन के हितों को आघात पहुंचा रहा है। इससे उपजी शीत युद्ध सरीखी स्थिति से निपटने के लिए तेहरान, मास्को और बीजिंग की तिकड़ी तालिबान को एक ऐसे माध्यम के रूप में देख रही है जिससे वे अफगानिस्तान में अमेरिका पर दबाव बढ़ा सकते हैं। मध्य एशिया में प्रभाव जमाने वाली पुरानी प्रतिद्वंद्विता की वापसी से अशांत अफगानिस्तान में शांति बहाल होने की संभावना कम ही है।

अस्सी के दशक में अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने अफगानिस्तान में सोवियत घुसपैठ हटाने के लिए इस्लाम को एक वैचारिक हथियार बनाया। तब सीआइए ने न केवल हजारों अफगान मुजाहिदीनों को प्रशिक्षण दिया, बल्कि हथियार भी मुहैया कराए। अल कायदा और तालिबान जैसे धड़े इसी से निकले। अब रूस और ईरान काबुल में बैठी अमेरिकी समर्थित अस्थिर सरकार को हिलाने के लिए तालिबान की मदद कर रहे हैं। मास्को और तेहरान लंबे समय तक तालिबान को आतंकी खतरा मानते रहे हैं और उन्होंने 2001 में उस पर हुई अमेरिकी बमबारी में सहयोग भी किया था, मगर तालिबान को लेकर चीन का रवैया हमेशा संदिग्ध रहा है।

जिस दिन अमेरिका में वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला हुआ उसी दिन एक चीनी प्रतिनिधिमंडल ने तालिबान की राजधानी कांधार में एक आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग के समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका निभाने की हसरत पाले चीन फिर से तालिबान की खुशामद में जुटा है। वह तालिबानी प्रतिनिधिमंडलों की आगवानी कर शांति वार्ता में मध्यस्थ बनने की पेशकश भी कर चुका है। तालिबान ने भी चीन से वादा किया है कि वह तीन अरब डॉलर की चीन की उस परियोजना वाली जगह पर हमले नहीं करेगा जो पहले ही काफी लटक गई है। यहां दुनिया में तांबे का सबसे बड़ा भंडार है। यह प्राचीन अफगान बौद्ध शहर के भग्नावशेषों के पास ही है जहां पुरातत्वविद प्राचीन धरोहरों को सहेजने की कोशिशों में जुटे हैं।

अफगानिस्तान को मदद देने वाले शीर्ष देशों में से एक भारत हमेशा से तालिबान का विरोधी रहा है। अमेरिका से प्रगाढ़ रिश्तों के बावजूद भारत को डर है कि तालिबान के साथ अमेरिका की सीधी बात एक ऐसे आतंकी संगठन को मान्यता दिलाएगी जो इस क्षेत्र में अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए मध्यकालीन बर्बरता का सहारा लेता है। वास्तव में अमेरिका ऐसा शांति समझौता करने का इच्छुक दिखता है जिसमें अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबान को भी हिस्सा मिले, लेकिन तालिबान को मिल रही कामयाबी और कुछ देशों की शह से अमेरिका का यह सपना बिखर सकता है।

[ लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं ]