नई दिल्ली [ क्षमा शर्मा ]। अभिनेत्री श्रीदेवी की मृत्यु ने बहुत से उन सवालों को भी एक बार फिर से बहस में ला दिया है जो अरसे से दबे-छिपे रहे हैं। ये जो चमकते चेहरे हैैं, जो हरदम कैमरे के सामने मुस्कराते नजर आते हैं, जिन्हें आज की ताकतवर औरत बताया जाता है और सामान्य औरतों को समझाया जाता है कि समाज में असली औरतें यही हैं उनकी सच्चाई कुछ और है। निर्माता निर्देशक रामगोपाल वर्मा ने श्रीदेवी के बारे में जो कुछ लिखा वह अगर सच है तो दुखद है। उनके मुताबिक श्रीदेवी एक बेहद परेशान महिला थीं। उन पर पति और बच्चों तक के ढेरों दबाव थे। हम अरसे से मीना कुमारी और मधुबाला के बारे में भी यही सुनते आए हैैं। पर्दे पर राज करने वाली इन अभिनेत्रियों ने निजी जीवन में तमाम त्रासदी भोगीं।

फिल्म जगत की महिलाओं को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है

दशकों पहले मुंबई की एक मशहूर डॉक्टर जो अभिनेत्रियों का ही इलाज करती थीं, ने कहा था कि फिल्म जगत की महिलाओं को जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस डॉक्टर के हिसाब से सबसे अधिक चौंकाने वाला तत्व यह था कि बहुत सी लड़कियों को बहुत छोटी उम्र में ही शोषण का शिकार होना पड़ता है। ग्लैमर की दुनिया की यह एक बड़ी सचाई है कि वहां की चकाचौंध में औरतों के दुख और तकलीफें कभी सामने नहीं आ पातीं। हीरोइन बनने के लिए तरह-तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। अगर कोई अपने शोषण के विरुद्ध बोलने की हिम्मत भी करे तो उसे कोई काम नहीं देता। शायद इसीलिए अभिनेत्री ऋचा चड्ढा ने हाल में कहा था कि मैं बहुत कुछ बता सकती हूं, अगर कोई यह वायदा करे कि इसके बाद मुझे जीवन भर काम और पेंशन मिलती रहेगी।

महिला सशक्तीकरण के नाम पर औरतें सुंदर दिखने के लिए कॉस्मेटिक सर्जरी कराती हैं

यौन शोषण के विरुद्ध चले ‘मी टू’ अभियान के जरिये ग्लैमर जगत की सचाइयां अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर अब सामने आई हैं, लेकिन गुजरे जमाने की मशहूर अभिनेत्री हंसा वाडकर तो बहुत पहले अपनी आत्मकथा में इस बारे में बहुत कुछ लिख चुकी हैं। इस पर भूमिका नाम से फिल्म भी बनी थी। इस पर विचार करना होगा कि यह कैसी सशक्त औरत है जिसे खुद को हमेशा जवान दिखने के लिए और पुरुषों की दुनिया में जगह पाने के लिए अपने शरीर पर क्या-क्या अत्याचार नहीं झेलना पड़ता? श्रीदेवी के प्रसंग में ही यह खबर भी आई थी कि उन्होंने कई बार कॉस्मेटिक सर्जरी कराई थी। महिला सशक्तीकरण के नाम पर औरतों को सुंदर दिखने और बॉलीवुड को आदर्श बताए जाने के कारण यह भी हो रहा है कि इन दिनों तमाम उम्रदराज महिलाएं भी अपने हाथों, चेहरे और गर्दन की झुर्रिंयां मिटवाती रहती हैं।

लड़कियों को सुंदर होने के मुकाबले बुद्धिमान और साहसी होना जरूरी है

छत्तीस, चौबीस, छत्तीस और जीरो फिगर को आम लड़की के जीवन में इस तरह से उतार दिया गया है कि लड़कियां खाना खाने के मुकाबले भूखा रहना पसंद करती हैं। वे अक्सर शीशे में खुद को किसी अभिनेत्री की तरह देखना और लोगों से यही सुनना चाहती हैं कि तुम तो फलां जैसी दिखती हो या फिर तुम तो फिल्मों में जाने लायक हो। बीते कुछ सालों से महिला दिवस को लेकर जिस तरह चर्चा बढ़ी है उसी तरह यह बात क्यों नहीं बढ़ी कि लड़कियों को सुंदर होने के मुकाबले बुद्धिमान और साहसी होना जरूरी है।

महिलाएं ग्लैमर की दुनिया से चलकर नशे की दुनिया में डूब जाती हैं

औरत का असली सशक्तीकरण उसके बुद्धि कौशल से ही हो सकता है, न कि सौंदर्य के कथित प्रतिमानों पर खरा उतर करके या फिर किसी अभिनेत्री की नकल करके। विडंबना यह है कि कई दशकों से मीडिया के एक बड़े हिस्से ने यही रिवाज चलाया है कि लड़कियों, महिलाओं को यह बताया जाए कि सेलिब्रिटीज कैसे रहती हैं, क्या खाती हैं, कहां जाती हैं, क्या पहनती हैैं, कैसे सजती-संवरती हैैं? ग्लैमर की सौ फीसदी पुरुषवादी दुनिया में औरतों की यही छवि बनाई गई है कि अगर वे सुंदर नहीं तो किसी काम की नहीं। उनका जीवन व्यर्थ है और बुढ़ापा एवं बढ़ती उम्र उनके करियर पर ताला लगा देता है। इसीलिए उम्रदराज अभिनेत्रियां काम में पिछड़ जाती हैं और वे उम्र को पकड़े रखना चाहती हैं। वे दवाओं और ड्रग्स का सहारा लेती हैं। कुछ नशे की दुनिया में डूब जाती हैं। इनकी तकलीफें हमें कभी कहीं नहीं बताई जातीं। इनकी दौलत, इनके यश के रूप में एक बड़ा झूठ इनके इर्द-गिर्द रचा जाता है, जिससे सचाई कभी सामने नहीं आती। काम न मिलने के डर से ये महिलाएं भी मुंह नहीं खोलतीं। इनके राज इनके साथ ही चले जाते हैं।

खूबसूरत दिखने की चाहत लड़कियां और महिलाएं खाना तक छोड़ देती हैं

खूबसूरत दिखने की चाहत कोई बुरी बात नहीं, लेकिन सब कुछ भूलकर सिर्फ खूबसूरत दिखने की बात हर वर्ग की लड़कियों, महिलाओं में इतनी फैलती जा रही है कि आज किसी छोटे-मोटे समारोह तक में शामिल होने के लिए लड़कियां और महिलाएं खाना छोड़ देती हैं ताकि मोटी न दिखें। वे पार्लर में दिनों और घंटे बिताती हैं जिससे सुंदर दिख सकें। कुछ साल पहले इंग्लैंड में एक मां ने प्लास्टिक सर्जन से कहा था कि वह बिल्कुल अपनी बेटी जैसी दिखना चाहती है। इसके लिए उसने जो कुछ झेला वह तो था ही, भारी पैसा भी खर्च किया। कृत्रिम सौंदर्य पाने के प्रयास प्रकृति के विरुद्ध चलना है। प्रकृति की घड़ी किसी के लिए नहीं रुकती। यह सिर्फ अपने को धोखा देना है।

सुंदर दिखने भर से महिलाओं के सशक्तीकरण की राह आसान नहीं

इन दिनों सोशल मीडिया में सुदू नामक महिला ने धूम मचा रखी है। दरअसल यह डिजिटली तैयार एक महिला का चेहरा है। इसे दुनिया की पहली डिजिटल सुपर मॉडल कहा जा रहा है। ऐसे शिगूफे होते ही रहते हैैं। आखिर यह कैसा स्त्री विमर्श है जो पुरुषों के रचे विमर्श में जा फंसा है? जहां औरत को इसलिए सुंदर दिखना है कि वह पुरुषों की कामनाओं को जगा सके। वे उसके सपने देख सकें। आखिर हमारी दादी-नानियों के समय से इतने हो हल्ले के बावजूद बदला क्या है? तब किसी लड़की की शादी इसलिए नहीं होती थी कि वह काली है, कथित तौर पर सुंदर नहीं या फिर उसके उसके दांत बड़े हैं। आज का तथाकथित सौंदर्य मूलक स्त्री विमर्श भी उन्ही धारणाओं को और मजबूत कर रहा है। कायदे से तो महिलाओं को सौंदर्य के इन ऊल जुलूल मानकों को चुनौती देनी चाहिए थी, मगर ऐसा होते कहीं नहीं दिखता। दिखता तो वह है जिसे स्त्रीवादी नारों में लपेटकर बेचा जाना है और मुनाफा कमाया जाता है। इसीलिए आप देखेंगे कि बाजार में सौंदर्य प्रसाधनों की बाढ़ आई रहती है। सौंदर्य बढ़ाने के तरह-तरह के उपायों को खूब प्रचारित प्रसारित किया जाता है। लड़कियों को यही सिखाया जा रहा है कि तुम्हारे जीवन का मूल मंत्र सुंदर दिखना भर है। जब तक इस तरह के तथाकथित मूल मंत्र बने रहेंगे तब तक महिलाओं के सशक्तीकरण की राह आसान होने वाली नहीं है।

[ लेखिका साहित्यकार एवं स्तंभकार हैैं ]