[ क्षमा शर्मा ]: अरसा पहले दिल्ली के कुछ बड़े निजी संस्थानों के बारे में यह मशहूर था कि वहां लड़कियों को नौकरी नहीं दी जाती। इसके पीछे तर्क यह था कि लड़कियां आएंगी, शादी करेंगी, मां बनेंगी तो काम पर कब ध्यान देंगी, लेकिन वक्त बदला और बड़ी संख्या में लड़कियां पढ़-लिखकर नौकरी करने लगीं। घर और कॅरियर, दोनों उनकेजीवन का हिस्सा बना। उनकी जरूरतों को देखते हुए सरकारी क्षेत्र ने तो बदलाव किए ही, निजी क्षेत्र ने भी अपनी महिला कर्मचारियों के हित में बहुत से कदम उठाए। लगभग दो साल पहले कुछ बड़ी कंपनियों ने अपने यहां उन महिलाओं को नौकरी देने की पहल की जो बच्चे के जन्म के कारण नौकरी छोड़ देती हैं।

कंपनियों का कहना था कि बच्चे का जन्म खुशी की बात है, कोई अपराध नहीं। नि:संदेह यह कोई अच्छी बात नहीं कि महिलाएं इसलिए नौकरी न कर सकें कि बच्चे के कारण काम पर पूरा ध्यान नहीं दे पाएंगी। निजी क्षेत्र के कुछ संस्थानों ने अपने यहां काम करने वाली महिलाओं को ओवम बैंक(अंडाणु बैंक) में अपने अंडाणु सुरक्षित रखने की सुविधा भी दी है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इन दिनों लड़कियां अपनी पढ़ाई-लिखाई और कॅरियर में इतनी व्यस्त रहती हैं कि जब तक मां बनने का खयाल आता है, मां बनने की उम्र निकल जाती है। अगर उनके अंडाणु सुरक्षित हैं तो विज्ञान की उच्चतर तकनीक जैसे आइवीएफ या सरोगेसी के जरिये वे मां बनने का सुख प्राप्त कर सकती हैं।

हाल में जब महिला बाल विकास मंत्री मेनका गांधी की पहल पर औरतों के मातृत्व अवकाश को 12 हफ्तों से बढ़ाकर, 26 हफ्ते कर दया गया तो इसे बहुत प्रगतिशील कदम माना गया, लेकिन हाल में टीमलीज नामक कंपनी ने अपने अध्ययन में यह पाया कि छह महीने के मातृत्व अवकाश के कारण हो सकता है कि करीब सवा करोड़ औरतों की नौकरी चली जाए। इस अध्ययन के दौरान बहुत से नियोक्तओं से बात की गई थी। इनमें उड्डयन, बीपीओ, सूचना एवं संचार तकनीक, ई कॉमर्स, रियल एस्टेट, पर्यटन आदि बड़े उद्योगों के लोग शामिल थे।

टीमलीज के अधिकारियों का मानना था कि तमाम नियोक्ता लंबे मातृत्व अवकाश को एक घाटे का सौदा मानते हैं। हालांकि बहुत सी प्रगतिशील कंपनियां पहले से ऐसा कर रही हैं। बड़ी कंपनियों और मध्यम दर्जे की कंपनियों के अधिकारियों ने महिलाओं को दी जाने वाली इस सुविधा का आम तौर पर स्वागत किया था, लेकिन जिनका सालाना राजस्व दस-बीस करोड़ है वे इसे कंपनी के नुकसान के रूप में देख रहे हैं।

ध्यान रहे अपने देश में बड़ी संख्या में महिलाएं ऐसी ही कंपनियों में काम करती हैं। जो लोग बच्चे के जन्म पर मां को दिए जाने वाले छह महीने के अवकाश को घाटे का सौदा मान रहे हैं उनका कहना है कि छह माह महिला कोई काम नहीं करेगी और फिर भी उसे पूरा वेतन देना होगा। उनका यह भी तर्क है कि जहां ज्यादा महिलाएं हैं वहां कंपनियां उनके काम की भरपाई कैसे करेंगी? कंपनियों को उनकी जगह अस्थाई कर्मचारी रखने पड़ेंगे। इस तरह मातृत्व अवकाश पर गईं महिलाओं को तो वेतन देना ही होगा, उनकी जगह काम पर रखे गए अस्थाई कर्मचारियों को भी पैसे देने होंगे। जाहिर है निजी क्षेत्र की कंपनियों पर दोहरी मार पड़ेगी। छोटी कंपनियां इस तरह के खर्चे उठाने के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि उनकी यह दलील होती है कि इतनी कमाई ही नहीं है।

कई कंपनियों के लोग कह रहे हैं कि सरकार को आर्थिक मदद करनी चाहिए, लेकिन जब तक सरकारें इस बारे में सोचेंगी तब तक कंपनियां हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठने वालीं। सच तो यह है कि उन्होंने यह एक आसान सा रास्ता निकाला है कि महिलाओं को नौकरी ही न दी जाए। न महिलाएं होंगी, न उन्हें छह महीने की छुट्टी देनी होगी। अगर छोटी कंपनियों में महिलाओं को नौकरी देने के लिए प्रेरित करने के लिए सरकार उनकी कुछ आर्थिक मदद करती भी है तो आखिर वे बड़ी कंपनियां जो सवैतनिक छह महीने की छुटटी दे रही हैं, नुकसान में क्यों रहें? जाहिर है बड़ी कंपनियां भी इसी तरह की मांग कर सकती हैं। वैसे भी व्यापार का पहला नियम मुनाफा कमाना होता है, समाज सुधार या लैंगिक समानता का विचार नहीं।

ऐसा लगता है सरकार ने कानून में परिवर्तन तो औरतों की मदद के लिए किया था, लेकिन वह उनकी नौकरियों की बलि ही लेने लगा। कहीं वे दिन वापस तो नहीं लौट रहे हैैं जब तमाम संस्थान महिलाओं को नौकरियां देने से कतराते थे? जो भी हो, यह सही नहीं कि महिलाओं को एक तरह से यह बताने की कोशिश हो रही है कि मां बनना तुम्हारा निजी मामला है। इसके लिए जहां नौकरी करती हो वहां से कोई उम्मीद न रखना। नि:संदेह यह ठीक नहीं होगा कि बच्चे के जन्म के कारण महिलाओं को दंडित होना पड़े। आखिर इससे बड़ा भेदभाव क्या हो सकता है?

टीमलीज रिपोर्ट में साढ़े तीन सौ स्टार्टअप और मंझोली एवं छोटी कंपनियों का सर्वेक्षण किया गया था। इनमें से तमाम कंपनियों के अधिकारियों ने कहा कि उन्होंने अपने यहां महिलाओं को काम पर रखना बंद कर दिया है। इससे यही साबित होता है कि मात्र कानून बनाने से समाज कभी नहीं बदलता। कानून के साथ मानसिकता को भी बदलना होता है। बराबरी का नारा सिर्फ दिखावटी हो और लोगों को उसके मुकाबले अपने मुनाफे का गुणा-भाग ज्यादा लुभाता हो तो बदलाव मुश्किल से ही आता है। उसे रोकने का कोई न कोई बहाना और कारण ढूंढ़ ही लिया जाता है। एक ओर मां के प्रति सम्मान और दूसरी ओर मां बनने के कारण 

विश्व बैंक की मानें तो लगभग दो करोड़ औरतों की नौकरियां 2004 से 2012 के बीच जा चुकी हैं। लंदन , न्यूयार्क और पेरिस की कुल आबादी लगभग दो करोड़ ही है। एक दूसरे अध्ययन में भी यह पाया जा चुका है कि एक दशक पहले कुल कामगारों में महिलाओं की संख्या 36 प्रतिशत थी जो अब घटकर 24 प्रतिशत रह गई है। आखिर यह कहां का न्याय है कि अपने देश में एक ओर मां दुनिया में सबसे आदरणीय मानी जाए और दूसरी ओर मां बनने के कारण उसे छुट्टी जैसी सुविधा देना तो दूर, उसकी नौकरी ही ले ली जाए? आखिर दुनिया में एक शिशु का आना इतना आफत भरा क्यों है?

[ लेखिका साहित्यकार एंव स्तंभकार हैैं ]