कुमार प्रशांत। यह भी अच्छा खेल है हमारा कि जब थे, तब उन्हें गोली मार दी और अब जब वे नहीं हैं तो बड़ी मासूमियत से पूछते हैं कि वे होते तो क्या होता। गालिब बहुत पहले कहकर चले गए, ‘न था तो खुदा था। न होता तो खुदा होता। डुबोया मुझको होने ने। न मैं होता तो क्या होता। हुई मुद्दत कि गालिब मर गया। पर याद आता है। वो हर इक बात पर कहना। कि यूं होता तो क्या होता।’ गांधी गालिब के इस संदर्भ में बहुत याद आते हैं कि वो हर इक बात कर कहना कि यूं होता तो क्या होता।

गांधी होते तो वे हमारे सारे मानक बदल देते। वे बदल देते हमारी यह सोच कि विकास का मतलब ऊपर से उड़ेला जाना वाला धन, कहीं बाहर से जुटाया हुआ निवेश या दिखावे की चमक-दमक या कि घंटे के हिसाब से बदली जाने वाली पोशाक होता है। वे हमें समझा लेते कि विकास इंसान व समाज से अलग कोई चीज नहीं है। वह तो हमारे भीतर से पैदा होने वाला स्वाभिमान और समता का वह मिलाजुला तत्व है जिसे गांधी ने स्वदेशी नाम दिया था। इसलिए स्वाभिमान व समता को साकार बनाने के लिए उन्होंने खादी और ग्रामोद्योग को सामने ला रखा और गुलामी के दौर में खुद नियमित चरखा चलाकर, थोड़े से लोगों को चरखा चलाने के लिए प्रेरित कर उन्होंने सुदूर इंग्लैंड में लंकाशायर की कपड़ों की मिलें बंद करवा दी थीं। वे होते तो आजाद हिंदुस्तान के लाखों गांवों में, करोड़ों से चरखा चलवाकर अब ग्रामों का ऐसा विकास कर चुके होते कि सभी ग्राम स्वराज्य का आधार बन जाते। ग्रामीण हिंसा में जलती हमारी बदहवास आबादी अब तक अपनी आत्मनिर्भरता की ताकत के बल पर दुनिया का व्यापार जगत का दिशा-निर्देश करती होती।

वे कहते ही थे न कि मैं गुजराती बनिया हूं, घाटे का सौदा नहीं करता हूं। आज जब सारी दुनिया खत्म होते संसाधनों का रोना रो रही है, गांधी का वह जीवन हमें रास्ता बताता जो कम से कम संसाधनों में अच्छे से अच्छा गरिमामय जीवन जीता था। उनकी धोती भले घुटनों तक की होती थी, लेकिन दूध की तरह सफेद व दमकती होती थी। के कभी बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी और बिखरे बालों में नहीं मिलते थे। रोज-रोज, सालोंसाल सैकड़ों चिट्ठियां लिखने वाले गांधी के पास कागज का एक टुकड़ा भी फालतू नहीं फेंका होता था। वे कांच के पेपरवेट की जगह पत्थर से अपने कागजों को दबाकर रखते थे और आलपिन की जगह बबूल के कांटों का इस्तेमाल करते थे। लेकिन न जरूरत से ज्यादा पत्थर जुटाने की किसी को आजादी थी और न बबूल से कांटों को निकालने के लिए कोई पेड़ों से बेरहमी कर सकता था। सब कुछ प्रकृति का दिया हुआ था और उससे उतना ही लिया जा सकता था जितने की उस वक्त जरूरत थी।

उनके आश्रम में सभी श्रम में भी और उपभोग में भी बराबरी की हिस्सेदारी करते थे और फिर भी बच्चों व बीमारों के लिए आवश्यक अलग तरह की व्यवस्था रहती ही थी। तब की प्रथा जैसी थी उसमें पाखाने की बाल्टियां उठाना, उन्हें व्यवस्थित जमीन में दबाना, पाखानाघर व बाल्टियों की पूरी तरह सफाई करना और फिर दिन की दूसरी दिनचर्या में लगना रोज का काम था और गांधी उसमें सहज शरीक रहते थे। रोज-रोज होने वाले इस सफाई अभियान का कोई फोटो आपको कहीं देखने को नहीं मिलेगा। वे मन से गंदगी साफ करते थे, साफ करवाते थे और फिर कहीं बाहरी गंदगी की सफाई के लिए झाड़ू उठवाते थे। वे आज कोई स्वच्छता अभियान चलाते तो उनकी झाड़ू से सांप्रदायिकता, जातीयता, दुराचार, व्यभिचार और भ्रष्टाचार आदि सबकी पिटाईसफाई होती और तब कहीं बाहरी गंदगी साफ की जाती।

उनकी गरीबी में दरिद्रता नहीं थी, उन्मुक्तता का आनंद था। वे उपभोग की मर्यादा तय करने की बात करते थे। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ओबामा कहा करते थे कि वे गांधीजी से मिल पाते तो उनसे यही पूछते कि इतने कम संसाधनों में ऐसा सुशोभित जीवन कैसे जिया जाता है? वे पूछ नहीं सके क्योंकि गांधी उनकी पहुंच में नहीं थे। हम कर नहीं सके क्योंकि हम गांधी को समझ नहीं सके। अब हम दूसरे से यही पूछ सकते हैं कि वे होते तो क्या होता!

( लेखक गांधीवादी चिंतक हैं)