[कैलाश सत्यार्थी]। संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में ऐसे कुछ ही अवसर आते हैं जब सदियों पुरानी सामाजिक-सांस्कृतिक विसंगतियों से पनपे अपराधों को रोकने के लिए प्रभावी कानून पारित किए जाते हैं। संसद के इस मानसून सत्र में ऐसा ही अवसर आया है। गुलामी का एक घिनौना रूप मानव व्यापार यानी ह्युमन ट्रैफिकिंग हमारे समाज में कोढ़ की तरह फैला हुआ है। इसे खत्म करने के लिए पहली बार संसद में एक विधेयक ‘ट्रैफिकिंग ऑफ पर्सन्स (प्रिवेंशन, प्रोटेक्शन एंड रिहैबीलिटेशन) बिल 2018’ पेश हुआ है। पूरे राष्ट्र को रोजाना शर्मिंदगी से भर देने वाली बच्चों के साथ दुष्कर्म और यौन शोषण की वीभत्स घटनाओं ने अब ‘अनैतिकता की महामारी’ का रूप ले लिया है।

कुछ दिन पहले बच्चों के यौन शोषण और दुष्कर्म के खिलाफ सख्त सजा का प्रावधान करते हुए जो अध्यादेश लाया गया था उसे भी कानून में बदलने का एक विधेयक ‘क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट) बिल 2018’ लाया जा रहा है। एक आंकड़े के अनुसार देश में प्रति आठ मिनट पर एक बच्ची गुम होती है। इसी तरह हर घंटे करीब आठ बच्चे मां के आंचल से बिछड़ जाते हैं। ये बच्चे ह्युमन ट्रैफिकिंग के शिकार होकर बाल मजदूरी, भिक्षावृत्ति और वेश्यावृत्ति आदि के लिए खरीदे-बेचे जाते हैं। इनका बचपन छिन जाता है और वे भय और हिंसा के साए में जीने के लिए मजबूर हो जाते हैं। इतना ही नहीं भारत में हर घंटे कहीं न कहीं दो बच्चे दुष्कर्म के शिकार होते हैं। दुष्कर्मी इन बच्चों के कोमल शरीर को ही नहीं, उनकी आत्मा तक को भी रौंद डालते हैं। ये महज कुछ आंकड़े भर नहीं हैं। हर एक संख्या एक चीखते हुए मासूम चेहरे का प्रतिनिधित्व करती है। ऐसा चेहरा जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जीवन, स्वतंत्रता और सुरक्षा जैसे संवैधानिक अधिकारों को पल- प्रतिपल खो रहा होगा।

मैं ह्युमन ट्रैफिकिंग से बचाए-छुड़ाए गए ऐसे हजारों बच्चों से मिला हूं जो जानवरों से भी कम कीमत पर खरीदे और बेचे गए थे। कुछ महीने पहले हमने बिहार से ट्रैफिकिंग कर लाए गए बच्चों को दिल्ली की एक जींस फैक्ट्री से मुक्त कराया। यह फैक्ट्री बेसमेंट में थी। ये बच्चे तीन साल तक इस बेसमेंट से बाहर नहीं निकले थे। लिहाजा जब वे मुक्त होकर बाहर आए तो उनकी आंखें सूरज की रोशनी सहन करने की क्षमता खो सी चुकी थीं। ऐसे मामलों में अपराधियों पर बाल मजदूरी, बंधुआ मजदूरी और किशोर न्याय से संबंधित कानूनों में कार्रवाई हो जाती है, लेकिन ट्रैफिकिंग के खिलाफ सख्त कानून के अभाव में दलालों पर कार्रवाई नहीं हो पाती।

पिछले कई दशकों से बाल दासता के खिलाफ अपने प्रयासों से मैंने जो सीखा है उससे महसूस करता हूं कि ये दोनों कानून इन अपराधों को मिटाने में सहायक होंगे। मैं इनका पुरजोर समर्थन इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि ये कानून सिर्फ ह्युमन ट्रैफिकिंग में लिप्त लोगों और दुष्कर्मियों को सजा दिलाने भर के लिए नहीं हैं, बल्कि ये न्याय के सामाजिक और आर्थिक पहलुओं से भी जुड़े हैं। नया कानून ट्रैफिकिंग को एक संगठित आर्थिक अपराध मानते हुए हर जिले में विशेष अदालत गठित कर तय समय- सीमा में सुनवाई करने और सख्त सजा का प्रावधान करता है।

इसके साथ ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संगठित मानव दुव्र्यापारियों की साठगांठ को तोड़ने के लिए उनकी संपत्ति की कुर्की-जब्ती और अपराध से प्राप्त धन को जब्त करने का प्रावधान भी है। साथ ही सीमा पर ट्रैफिकिंग रोकने के लिए नेशनल एंटी ट्रैफिकिंग ब्यूरो का गठन किया जाएगा। यह कानून केवल आपराधिक दंड तक सीमित नहीं है, बल्कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के आधार पर अपराध की रोकथाम और पीड़ितों को मुआवजा और पुनर्वास सुनिश्चित करता है। पीड़ितों को मुआवजे के लिए फैसला होने तक इंतजार नहीं करना पड़ेगा, बल्कि मुकदमा दायर होते ही उन्हें तात्कालिक राहत मिलेगी और इसके बाद उनका आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पुनर्वास किया जाएगा। इसके लिए एक पुनर्वास कोष भी बनाया जाएगा। इन प्रावधानों से यह कानून बहुत प्रभावी हो जाएगा।

हमने हाल ही में किए अपने एक अध्ययन में पाया कि पॉक्सो कानून के तहत बच्चों के यौन शोषण के अब तक जितने मामले दर्ज हैं और जिस गति से इसके मुकदमों की सुनवाई हो रही है उसकी सुनवाई पूरी होने में कई राज्यों में 50 से 100 साल तक लग जाएंगे। यानी आज जिस बच्ची के साथ दुष्कर्म हुआ है उसे न्याय के लिए अपने नाती-पोतों के साथ अदालत के चक्कर लगाने पड़ेंगे, लेकिन नए कानून के बन जाने से ऐसी स्थिति नहीं आएगी और पीड़ितों को शीघ्र न्याय मिल पाएगा। ‘क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट) बिल 2018’ में बच्चियों के खिलाफ जघन्य अपराध होने पर कठोर सजा और त्वरित व समयबद्ध कार्रवाई का प्रावधान किया गया है। इसमें दुष्कर्मियों को फौरन सजा मिल पाए, इसके लिए फास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना के साथ ही पुलिस की जांच और अदालती फैसले की भी समय-सीमा तय की गई है।

संसद में इन दोनों विधेयकों का पेश होना सुखद है। इन कानूनों की मांग को लेकर हम लंबे समय से सड़क से लेकर न्यायालय तक संघर्ष करते रहे हैं। पिछले साल हमने ट्रैफिकिंग और बच्चों के यौन शोषण के खिलाफ सख्त कानून बनाने और इस बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए देशव्यापी ‘भारत यात्रा’ का आयोजन किया था। यह यात्रा 11 हजार किलोमीटर की दूरी तय कर 23 राज्यों से गुजरी थी। हमने वर्ष 2007 में बाल दुव्र्यापार विरोधी दक्षिण एशियाई यात्रा का और 2011 में असम में एंटी ट्रैफिकिंग मार्च का आयोजन किया था। सुप्रीम कोर्ट में दायर हमारे संगठन बचपन बचाओ आंदोलन की ही एक याचिका पर 2011 में पहली बार भारत में ट्रैफिकिंग को परिभाषित किया गया था।

ट्रैफिकिंग और यौन शोषण के शिकार मासूम चेहरे उम्मीद भरी निगाहों से इस कानून की तरफ देख रहे हैं, क्योंकि यह कानून देश के हजारों बच्चों की सिसकियों को मुस्कराहटों में बदल सकता है। इसलिए सभी राजनीतिक दलों के नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों से मेरी विनम्र अपील है कि वे इस विधेयक को जल्दी से जल्दी संसद में पारित कराएं ताकि एक आवश्यक कानून अस्तित्व में आए। ऐसे कानून की सख्त जरूरत है। नि:संदेह न्याय को एक कानून में समाहित करना मुमकिन नहीं है। इसलिए हो सकता है, इसमें कुछ खामियां हों। अगर ऐसा है तो इन खामियों को कानून के नियमों में दुरुस्त किया जा सकता है। जरूरत पड़ने पर अलग से कोई और अध्यादेश या विधेयक लाया जा सकता है। बच्चों के बचपन को खुशहाल बनाने के लिए यह विधेयक एक ऐतिहासिक अवसर की तरह है। इस अवसर को गंवाने का काम नहीं किया जाना चाहिए। हमारे बच्चे अब और इंतजार नहीं कर सकते।

(लेखक नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित बाल अधिकार कार्यकर्ता हैं)