[सी उदयभास्कर]। तमाम कशमकश के बाद भाजपा की ओर से जम्मू-कश्मीर में पीडीपी से अचानक समर्थन वापस लेने और उसके बाद मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के इस्तीफे के साथ ही विपरीत वैचारिक ध्रुव वाले एक बेमेल गठबंधन का भी पटाक्षेप हो गया। अब ऐसी अटकलें भी लग रही हैं कि जल्द ही नए राज्यपाल की नियुक्ति भी की जाएगी, क्योंकि मौजूदा राज्यपाल एनएन वोहरा का कार्यकाल 25 जून को समाप्त हो रहा है। हालांकि यह कवायद शायद अमरनाथ यात्रा के बाद पूरी हो जो अगस्त के अंत में संपन्न होगी।

भाजपा द्वारा गठबंधन तोड़ने का फैसला अनपेक्षित तो नहीं, लेकिन अप्रत्याशित जरूर रहा। आखिर आनन-फानन ऐसा फैसला क्यों लिया गया और जम्मू-कश्मीर के लिए अगले एक वर्ष में इसके क्या निहितार्थ होंगे? भाजपा ने ‘व्यापक राष्ट्रहित’ एवं सुरक्षा के मोर्चे पर राज्य में बिगड़ते हालात का हवाला देकर अपने फैसले को जायज ठहराया है। उसकी दलील है कि हालात काबू करने के लिए राज्यपाल शासन जरूरी हो गया था। हाल में ईद की पूर्व संध्या पर जाने-माने पत्रकार- संपादक शुजात बुखारी और सेना के जवान औरंगजेब की हत्या ने इस फैसले के लिए ताबूत में अंतिम कील का काम किया होगा। यह स्पष्ट है कि राजनीतिक मजबूरियों से मुक्ति मिलने के बाद सुरक्षा बल जम्मू-कश्मीर में हालात सामान्य करने के लिए खुलेहाथ अपने अभियानों को अंजाम देंगे।

आंकड़े बताते हैं कि इस साल जम्मू-कश्मीर में आतंकी घटनाएं मध्य अप्रैल से लगातार बढ़ती गईं। 17 मई से 16 जून के बीच यह आंकड़ा 73 पर पहुंच गया। इस दौरान मारे गए आतंकियों की संख्या 14 से 22 हो गई। इनमें से कई विदेशी भी थे। बुरहान वानी के मारे जाने के पहले और बाद की स्थिति पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि जुलाई 2016 में इस आतंकी के सफाए के बाद हिंसा और कलह का स्तर लगातार बढ़ता गया। सुरक्षा बलों के खिलाफ पत्थरबाजी की घटनाओं ने स्थिति को और गंभीर किया। कठुआ में हुई दुष्कर्म की एक घटना से भी हालात बिगड़े। संघर्ष विराम के उल्लंघन की घटनाएं भी आतंक की कहानी कहती हैं। 2016 में ऐसी घटनाएं 449 थीं। 2017 में वे 971 हो गईं। और इस वर्ष बीते छह महीने का आंकड़ा 633 है। इस पृष्ठभूमि में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद महबूबा मुफ्ती ने कहा कि पीडीपी के नेतृत्व वाली सरकार ने हालात संभालने के लिए वह सब कुछ किया जो संभव था। रमजान के दौरान संघर्ष विराम ने समस्या के राजनीतिक समाधान के प्रति पीडीपी की प्रतिबद्धता को प्रदर्शित किया। यह साफ है कि भाजपा की स्थानीय इकाई ने आतंकी-अलगाववादी गुटों के तुष्टीकरण का समर्थन नहीं किया। ऐसे में भाजपा का गठबंधन से बाहर आना तय था। महबूबा ने आगाह किया है कि जम्मू-कश्मीर में जोर-जबरदस्ती की नीति कामयाब नहीं होगी। समस्या के हल के लिए जख्मों पर मरहम लगाना होगा।

उन्होंने यह भी कहा कि कश्मीर दुश्मन क्षेत्र नहीं है। गठबंधन से बाहर निकलने का भाजपा का निर्णय काफी हद तक 2019 में होने वाले आम चुनाव को ध्यान में रखकर लिया गया है। भाजपा नेतृत्व ने उस राजनीतिक विरोधाभास को दूर करने का काम किया जिसमें एक दक्षिणपंथी पार्टी का गठबंधन उस क्षेत्रीय दल से था जिसका असर मुस्लिम वर्चस्व वाली कश्मीर घाटी तक सीमित था। खबरें बता रही हैं कि भाजपा के स्थानीय नेता पीडीपी के साथ दमघोंटू राजनीतिक गठबंधन से मुक्त होने के बाद आजाद महसूस कर रहे हैं। जम्मू-कश्मीर समस्या की जटिलता अगस्त अक्टूबर 1947 से शुरू हुई और यह हर गुजरते वर्ष के साथ उलझती गई। भारत और पाकिस्तान के साथ ही चीन भी तब इस विवाद का हिस्सा बन गया जब पाकिस्तान ने अवैध रूप से कब्जाए गए कश्मीर के कुछ हिस्से को 1963 में चीन को सौंप दिया। 1990 के प्रारंभ में स्थानीय हिंदू समुदाय के जबरन निष्कासन और कट्टर मजहबी तत्वों के प्रवेश के बाद आतंकवाद ने निर्मम रूप धारण कर लिया। मजहबी आतंकी तत्व उदारवादी सोच, संवाद और राजनीतिक समाधान का विरोध करते हैं। 2002 में अब्दुल गनी लोन और अब शुजात बुखारी की हत्या नई हकीकत है, जिससे केंद्र सरकार को राज्यपाल शासन के तहत निपटना होगा।

यह पहली बार नहीं है जब जम्मू-कश्मीर को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा है। 1977 के बाद से आठवीं बार इस सूबे में राज्यपाल शासन लगा है। जून 2008 में एनएन वोहरा के पद संभालने के बाद यह चौथी बार है। केंद्र के नियंत्रण वाली व्यवस्था में सुरक्षा स्थिति दुरुस्त करने में मदद मिल सकती है, लेकिन इसी के साथ यह भी स्वीकार करना होगा कि जम्मू-कश्मीर मुद्दे को न्यायसंगत स्वरूप प्रदान करने की जरूरत है। यह बहुआयामी होना चाहिए और उसमें लोगों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इसके लिए सभी से संवाद की नीति पर चला जाना चाहिए। दिल्ली-श्रीनगर, दिल्ली-इस्लामाबाद, श्रीनगर-मुजफ्फराबाद और दिल्ली- बीजिंग के ट्रैक पर ध्यान देने की जरूरत है। रावलपिंडी- मुरिदके यानी पाकिस्तानी सेना और लश्कर जैसे आतंकी संगठनों की साठगांठ को कमजोर करना होगा। सामाजिक राजनीतिक प्रक्रिया पर भी काम करना होगा ताकि दशकों के अलगाव, अविश्वास, धार्मिक धु्रवीकरण और आतंक के जख्मों को कम किया जा सके। यह ऐसा काम नहीं है जिसे दिल्ली या श्रीनगर में बैठे अधिकारी कर सकें। इसमें स्थानीय राजनीतिक दलों को शामिल किया जाना चाहिए। 

राज्य के मौजूदा हालात और भविष्य की रूपरेखा पर स्थानीय और प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के बीच सहमति जरूरी है। अनुच्छेद 370, भारतीय संघ में जम्मू-कश्मीर के विलय और अन्य मुद्दों और संवैधानिक सवालों का समाधान निकाला जाना चाहिए। पाकिस्तान और चीन को वार्ता प्रक्रिया से दूर नहीं रखा जा सकता है। हालांकि चीनी राजदूत द्वारा सुझाए गए त्रिपक्षीय ढांचे को खारिज कर दिया गया है, लेकिन भारत को इस पर समग्रता से विचार करना होगा। जम्मू-कश्मीर ने लंबे समय तक बुरे समय को देखा है, खासकर 1990 का वह दौर जब पाकिस्तान ने संकट बढ़ाने का काम किया। तब से अब तक जम्मू-कश्मीर में बहुत पानी बह चुका है। आज माहौल में सोशल मीडिया, फर्जी खबरें, भटके युवा और धर्म की विकृत व्याख्या भी है। पुरानी गलतियों से बचा जाना चाहिए। राज्यपाल शासन के मौजूदा दौर का इस्तेमाल ऐसा माहौल बनाने के लिए किया जाए जो अटल बिहारी वाजपेयी के वक्त की इंसानियत- जम्हूरियत-कश्मीरियत वाली भावना का अहसास कराए। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को अपने नागरिकों से निपटने में उदारवादी मूल्यों के साथ आगे बढ़ना होगा, भले ही वे कितने भी नाराज और अलग-थलग दिख रहे हों।

(लेखक सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ एवं सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक हैं)