बलबीर पुंज

राहुल गांधी जिस समय स्वयं को जनेऊधारी ब्राह्मण घोषित कराने के लिए आतुर दिख रहे थे, लगभग उसी समय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं अधिवक्ता कपिल सिब्बल सुप्रीम कोर्ट में रामजन्मभूमि के विरुद्ध बहस कर रहे थे। अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के 25 वर्ष पूरे होने से एक दिन पहले अदालत में जो तर्क सिब्बल ने प्रस्तुत किए उसमें भारत में सदियों से हिंदू-मुसलमानों के बीच चले आ रहे द्वेषभाव की विवेचना निहित है। उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड के अधिवक्ता के रूप में कपिल सिब्बल ने न्यायालय से मांग करते हुए कहा, ‘अयोध्या का मामला राजनीतिक हो चुका है, इसलिए 2019 में लोकसभा चुनाव के बाद इसकी सुनवाई की जाए।’ ध्यान रहे कि 2010 में अयोध्या के संबंध में आए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती देने वाली याचिका शीर्ष अदालत में गत सात वर्षों से लंबित है। क्या विलंब को और खींचना न्यायसंगत है? यूं तो स्वतंत्र भारत में यह मामला 1950 से न्यायालय में अटका है, किंतु इसका संपूर्ण कानूनी इतिहास 133 वर्ष पुराना है जब 29 जनवरी, 1885 को अंग्रेजी राज में पहली बार महंत रघुवर दास ने रामचबूतरे पर मंदिर निर्माण हेतु याचिका दाखिल की थी। इसे बाबरी मस्जिद के तत्कालीन संरक्षक मोहम्मद असगर से चुनौती मिली। उस समय फैजाबाद के उप-न्यायाधीश ने महंत की याचिका खारिज कर दी। 65 वर्ष पश्चात 23 दिसंबर, 1949 को न्यायिक हस्तक्षेप के बाद हिंदुओं को लोहे की जालीदार दीवार के पीछे से पूजा करने की स्वीकृति मिल गई।
जब रामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन गति पकड़ रहा था तभी 1985 में शाहबानो प्रकरण सामने आया। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने तलाकशुदा मुस्लिम पत्नी को उसके पूर्व पति से गुजारा भत्ता लेने का ऐतिहासिक निर्णय दिया, किंतु कट्टरपंथी मुसलमानों के दबाव और मुस्लिम वोट बैंक को साधने हेतु पूर्ण बहुमत वाली राजीव गांधी सरकार ने 1986 में संसद के भीतर न्यायालय का निर्णय पलट दिया और शरीयत के अनुरूप एक अधिनियम पारित कर दिया। 1989 के आम चुनाव को ध्यान में रखकर राजीव गांधी सरकार ने अयोध्या के माध्यम से राजनीतिक समायोजन का प्रयास किया। 1986 में फैजाबाद जिला न्यायाधीश ने एक अधिवक्ता की याचिका पर विवादित परिसर का ताला खुलवा दिया और हिंदुओं को अंदर से दर्शन करने की अनुमति दे दी। इसी प्रक्रिया में तत्कालीन केंद्र सरकार ने अयोध्या में मंदिर के शिलान्यास की अनुमति भी दे दी। राजीव गांधी का प्रयास विफल रहा और वह चुनाव हार गए, क्योंकि उनकी कोशिश चुनावी राजनीति से प्रेरित थी, जो अयोध्या से जुड़ी सदियों पुरानी आस्था और करोड़ों लोगों की भव्य राम मंदिर के पुनर्निर्माण की मांग के समक्ष बौनी साबित हुई। फिर 6 दिसंबर, 1992 को 464 वर्ष पुरानी आहत भावना का विस्फोट हुआ और विवादित ढांचा गिरा दिया गया। रामजन्मभूमि मुक्ति के लिए 1528 से असंख्य रामभक्तों ने अपना बलिदान दिया है। 1735, 1751, 1756, 1757 और 1759 में हिंदुओं ने बार-बार रामजन्मभूमि को पुन: प्राप्त करने का प्रयास किया। 1767 में ऑस्ट्रियाई यात्री जोसेफ टिफ्फेनथेलर के अनुसार, ‘मुगल शासकों के प्रतिबंध के बावजूद हिंदू, बाबरी ढांचे पर पूजा-अर्चना करते थे और रामनवमी उत्सव मनाते थे।’


क्या कारण है कि अयोध्या संबंधी मामला अब भी अदालत में लंबित है? इसका उत्तर कथित पंथनिरपेक्षकों की उस रुग्ण मानसिकता में छिपा है जो अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए इसे अनंतकाल तक विवादित रखना चाहते है। रामजन्मभूमि की लड़ाई आस्था से संबंधित है। यह कभी एक भूखंड के लिए या मस्जिद के विरुद्ध नहीं रही। यदि ऐसा होता तो 25 वर्ष पूर्व जब उग्र भीड़ ने विवादित ढांचे को गिराया तब वह अयोध्या या फैजाबाद की अन्य मस्जिदों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की। ढाई दशक पहले कारसेवकों ने अयोध्या में जिस ढांचे को जमींदोज किया उसे विदेशी आततायी ने इबादत के लिए नहीं, अपितु पराजित हिंदुओं को अपमानित करने हेतु स्थापित कराया था। बीसवीं शताब्दी के प्रसिद्ध ब्रितानी इतिहासकार आर्नोल्ड जोसेफ टॉयनबी के अनुसार, ‘पोलैंड की राजधानी वारसॉ पर रूस के पहले कब्जे (1614-1915) के दौरान रूसियों ने शहर में एक चर्च की स्थापना की थी। इससे रूसी पोलैंडवासियों को स्पष्ट करना चाहते थे कि अब वे ही उनके स्वामी हैं। 1918 में स्वतंत्रता के पश्चात पोलैंड सरकार ने इस चर्च को गिरा दिया। बतौर टॉयनबी, ‘मैं चर्च गिराने के लिए पोलैंड के सत्तातंत्र को दोष नहीं दूंगा, क्योंकि रूस द्वारा बनाया गया चर्च आस्था या मजहब से जुड़ा न होकर पोलैंडवासियों की राष्ट्रीय भावना को चोटिल करने से प्रेरित था।’ टॉयनबी के अनुसार, ‘रूसियों की भांति भारत में इस्लामी आक्रांताओं द्वारा स्थापित भवनों, मस्जिदों के निर्माण का मूल उद्देश्य भी हिंदुओं की भावना को आहत और उन्हें अपमानित करना था।’ वह औरंगजेब राज में बनारस में दो और मथुरा में एक मस्जिद का उल्लेख करते हैं। उनके अनुसार, ‘औरंगजेब को हिंदुओं को अपमानित और उनकी भावना को ठेस पहुंचाने हेतु उनके धार्मिक स्थलों को चिन्हित करने में महारथ हासिल थी।’
मध्यकाल में विदेशी आक्रांताओं द्वारा हिंदू मंदिरों को तोड़कर मस्जिदों की स्थापना का उद्देश्य राजनीतिक था। ऐसे में इन ऐतिहासिक अन्यायों का प्रतिकार और परिमार्जन केवल राजनीतिक रूप से संभव है, न कि कानूनी रूप से। स्वतंत्रता के बाद पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में गुजरात में सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण इसकी मिसाल है। आस्था संबंधी जो मामले सदियों से अनसुलझे हों या जिनका ऐतिहासिक राजनीतिक आधार है उनके समाधान में न्यायिक प्रक्रिया बौनी नजर आई है? स्वतंत्रता पूर्व भारतीय नेतृत्व ने मुस्लिम लीग के मजहबी दवाब में देश के विभाजन को स्वीकार किया। क्या उस समय किसी न्यायालय ने इसकी रूपरेखा तैयार करने में कोई भूमिका निभाई थी? जनवरी 2015 में एक उर्दू अखबार के संपादक को ‘शार्ली एब्दो’ में प्रकाशित मोहम्मद साहब के विवादित कार्टून को दोबारा छापने पर गिरफ्तार किया था। उससे पहले सलमान रश्दी के उपन्यास ‘सेटेनिक वर्सेस’ और तसलीमा नसरीन की पुस्तक ‘लज्जा’ पर प्रतिबंध लगाया गया। इनमें क्या किसी सत्तातंत्र या प्रभावित पक्ष ने न्यायिक हस्तक्षेप की प्रतीक्षा की? रामजन्मभूमि मामले का निर्णायक हल विधायिका और शासन द्वारा ही संभव है, किंतु जब तक सिब्बल सरीखे कथित सेक्युलरिस्ट विद्यमान हैं तब तक करोड़ों लोगों को सदियों पुराने लंबित ‘न्याय’ के लिए और इंतजार करना पड़ सकता है।
[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]