आर विक्रम सिंह। चाबहार बंदरगाह का संचालन एक माह के भीतर भारतीय कंपनी के हाथ आने की खबरों के बीच एक खबर यह भी है कि अमेरिका इसकी समीक्षा कर रहा है कि इस परियोजना से अफगानिस्तान के कौन-कौन हित पूरे होंगे? पता नहीं उसकी समीक्षा का निष्कर्ष क्या हो, लेकिन यह जानना जरूरी है कि आज हमें चाबहार, ईरान से होते हुए काबुल का रास्ता तय करना पड़ रहा है तो अपनी भूलों के कारण। जब दिसंबर 1839 में जनरल जोरावर सिंह ने सदियों के भटकाव के बाद उत्तरी कश्मीर के पर्वतीय राज्य गिलगित-बाल्टिस्तान को डोगरा शासन में शामिल किया था तो ताशकंद, काबुल, काशगर और चीनी नगरों से व्यापार का पुराना सिल्क रोड फिर खुल गया था। 16 नवंबर, 1947 को हमने इसे पाकिस्तान चले जाने दिया। फिर काबुल, अफगानिस्तान का यह रास्ता स्थाई रूप से बंद हो गया और आज हमें चाबहार से काबुल का रास्ता तय करना पड़ रहा है। गिलगित-स्कदरू का यह क्षेत्र ब्राह्मी लिपि में लिखे संस्कृत के शिलालेखों से भरा हुआ है। बौद्ध धर्म से प्रभावित यह क्षेत्र चीनी तीर्थयात्रियों के भारत में आगमन का मार्ग भी रहा है। आशा है कि भारत-अमेरिका टू प्लस टू वार्ता के दौरान ईरान के चाबहार बंदरगाह के विकास एवं संचालन का भारतीय पक्ष अमेरिकी मंत्रियों ने समझा होगा। इस रणनीतिक पहल की प्रत्येक दशा में रक्षा की जानी चाहिए। चाबहार का सफल संचालन भारत, अफगानिस्तान ही नहीं, बल्कि अमेरिकी रणनीतिक लक्ष्यों की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। अगर 1947 में हमें राष्ट्रीय हितों की सही समझ होती तो श्रीनगर से काबुल का रास्ता तय करना आज कुछ घंटों की बात होती। आधा-अधूरा कश्मीर आज हमारे लिए राष्ट्रीय समस्या बना है। उस काल की भूलों की जो लंबी सूची है उसमें कश्मीर सबसे ऊपर है। लगता है कि हमारे नेतृत्व को युद्धों, रणनीतियों, रक्षा दायित्वों की समझ नहीं थी। तब सैनिकों को मकान आदि बनाने जैसे कार्यों में भी लगाया गया था। माउंटबेटन से सहयोग लेना गलत नहीं था, लेकिन वह मूलत: ब्रिटिश, अमेरिकी रणनीतिक हितों के रक्षक थे। हमने देखा कि अक्टूबर 1947 में वह यह चाहते थे कि हरि सिंह पहले भारत में सम्मिलित होने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करें, फिर सेना जाए। यदि 24 घंटे का विलंब और होता तो कबायली श्रीनगर एयरपोर्ट पर काबिज हो जाते और आज सिर्फ जम्मू ही भारत में होता। अगर कश्मीर बचा है तो सिर्फ भारतीय सेना के कारण। गिलगित बाल्टिस्तान का भू-राजनीतिक महत्व आज स्पष्ट हो रहा है।

हमारी 70 किमी लंबी सीमाएं अफगानिस्तान के सबसे अविकसित क्षेत्र वाखान गलियारे से मिलती हैं। यह अफगानिस्तान को चीन से जोड़ता है। इसके दक्षिण में पाक अधिकृत कश्मीर में चीन हाईवे बना रहा है। 1947 युद्ध के दौरान स्कदरू गिलगित में सिर्फ सेनाओं को पहुंने की जरूरत थी, चाहे सड़क से या पैराड्रॉपिंग के जरिये। अगर कोई भारतीय सेनाध्यक्ष रहा होता तो तत्काल सोचता, लेकिन सक्रिय युद्ध के दौरान यहां ब्रिटिश सेनाध्यक्ष थे। आज अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों से संपर्क के लिए हमें ईरान के बहार बंदरगाह के रूप में विकल्प की तलाश है, लेकिन अपना रास्ता जो श्रीनगर-स्कदरू-गिलगित से होता हुआ काराकोरम पर्वतमाला के इरशद दर्रे से गुजरता हुआ अफगानिस्तान के वाखान गलियारे तक था, उसे गंवा दिया गया। यह न किया गया होता आज गिलगित-श्रीनगर अफगानिस्तान, मध्य एशिया से भारत के व्यापार का बड़ा केंद्र होता। अंग्रेज अपने भारतीय साम्राज्य के हित को बखूबी समझते थे।

उन्होंने ही गिलगित एजेंसी का गठन किया था। शायद माउंटबेटन को उम्मीद न रही होगी कि भारतीय सेनाएं कबाइलियों की कमर तोड़ते हुए इतनी जल्दी उड़ी पहुंच जाएंगी और मुजफ्फराबाद की ओर बढ़ने लगेंगी। उनका आगे बढ़ना रोककर उड़ी में ही कैंप करा दिया गया। क्यों? क्या नेतृत्व की पंचायती सोच यह थी कि कुछ कश्मीर पाकिस्तान के पास भी रह जाए? उड़ी में सेनाओं को रोक कर हमने खुद ही कश्मीर समस्या पैदा होने दी। गिलगित-बाल्टिस्तान को नियंत्रण में लेने का कोई प्रयास ही नहीं किया, जबकि हमारे पास तीन लाख की सक्रिय सेना थी। कश्मीर की बंदरबांट का इंतजाम करते हुए एक जनवरी, 1949 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा युद्धविराम घोषित करा दिया गया। इसके बाद वार्ताओं का निर्थक सिलसिला चला। उस समय चीन में गृहयुद्ध चल ही रहा था। हमारे यहां युद्ध विराम के नौ महीने बाद एक अक्टूबर 1949 को माओ गृहयुद्ध में विजय के बाद सत्ता में आए और एक वर्ष में ही हमारे क्षेत्र अक्साई चिन के एक पुराने व्यापारिक मार्ग से होकर 6 अक्टूबर, 1950 को तिब्बत पर हमला कर वहां अपना आधिपत्य कायम कर लिया। पता नहीं क्यों हमने अलसल्वाडोर के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र में तिब्बत की आजादी का प्रकरण उठने ही नहीं दिया। उसी महीने कोरिया युद्ध में भी चीन ने अपनी सेनाएं भेजीं। माओ के सामने चीन के पुनर्निर्माण का बड़ा लक्ष्य था, लेकिन उनने अपने राष्ट्रीय हित के कार्यों में विलंब नहीं किया। उन्होंने अक्साई चिन की एक सड़क पर काम शुरू करा दिया। 1957 में जब हमारे इलाके में बनी वह सड़क पूरी हुई और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में समाचार छपे तब हम यह तथ्य जान पाए। इसके बाद जून 1958 में विदेश सचिव सुविमल दत्त और सेनाध्यक्ष जनरल थिमैया की मौजूदगी में हुई एक उच्चस्तरीय बैठक में यह कहा जा रहा था कि अक्साई चिन रोड हमारे क्षेत्र से गुजरती है या नहीं, इसका कोई स्पष्ट प्रमाण ही नहीं है। आजादी के 11 साल हो गए थे और हमारा यह हाल था। जबकि वह सड़क भारतीय क्षेत्र में लगभग 50 किमी अंदर स्थित अक्साई चिन झील के दक्षिण से गुजरती है। क्या यह नहीं लगता कि हमने अपनी सरहदों और अपनी सुरक्षा से मजाक किया? हमारे नेतृत्व को यह जानना चाहिए था कि हमारी सीमाएं कहां से गुजरती हैं। अपनी सीमाओं तक पहुंचना उनकी जिम्मेदारी बनती थी, लेकिन उस काल में नकली विचारधाराओं के ढकोसले बहुत भारी थे। किसी ने सोचा ही नहीं कि अफगानिस्तान के साथ लगती सीमाएं हमारे नियंत्रण में हर हाल में होनी चाहिए। यह अफसोस की बात है कि तत्कालीन नेतृत्व में रणनीतिक समझवाला कोई था ही नहीं। जब सेना को गरम कपड़ों की जरूरत थी तो एक मंत्री जी ऐसे आए जिन्होंने खादी के कपड़े खरीदवा डाले।

भू-राजनीतिक मानचित्र पर पाकिस्तान एक बहुत बड़ी दीवार की मानिंद है जिसने मध्य एवं पश्चिम एशिया की ओर भारत का रास्ता रोक रखा है। वाखान गलियारा उस दीवार में एक सुरंग की तरह हो सकता था। अगर गिलगित-बाल्टिस्तान हमारे पास होता तो पाकिस्तान हमारे लिए कोई खतरा बन ही नहीं पाता। अफगानिस्तान हमारा महत्वपूर्ण रणनीतिक सहयोगी होता। उन पर्वतों और घाटियों के रास्ते काबुल हमें आमंत्रित कर रहा होता। आज उसी इलाके के पहाड़ों को चीरते हुए चीन द्वारा जो महत्वाकांक्षी कॉरिडोर-सीपैक बनाया जा रहा है उसकी कल्पना भी न हो पाती। काबुल, कांधार, ताशकंद, काशगर हमारे बहुत निकट होते। यह सड़क एक महान संभावना थी जो नेतृत्व की घोर अदूरदर्शिता के कारण संभव न हो सकी।

(लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं)