[राजीव सचान]: पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों पर हुआ हमला राष्ट्र की चेतना और साथ ही उसके स्वाभिमान पर करारा आघात था, लेकिन उसका सामना करने में हम एक राष्ट्र के रूप में वैसी परिपक्वता, एकजुटता और दृढ़ता नहीं प्रदर्शित कर सके जैसी अपेक्षित ही नहीं अनिवार्य थी। देश के मर्म पर चोट करने वाले इस हमले की खबर मिलते ही स्वाभाविक तौर पर उसकी निंदा और भर्त्सना शुरू हो गई। इसे कायराना हमला कहा गया, लेकिन यह तो घिनौने दुस्साहस की पराकाष्ठा थी। जब सर्वदलीय बैठक बुलाने की घोषणा हुई तो ऐसा लगा कि सभी राजनीतिक दल अपने दलगत हित और स्वार्थों का परित्याग कर समवेत स्वर में ऐसा कुछ कहेंगे जिससे दुनिया को भारत की एकजुटता और दृढ़ता का संदेश जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

इस सर्वदलीय बैठक में जो राजनीतिक प्रस्ताव पारित हुआ वह इतना पिलपिला था कि उसने कहीं कोई प्रभाव नहीं छोड़ा। आश्चर्य केवल यह नहीं कि इसमें पाकिस्तान का दूर-दूर तक नाम न था। यह भी था कि इसकी भाषा में कोई तेज-ओज न था। घिसी-पिटी सरकारी भाषा वाला यह एक नीरस और निष्प्राण प्रस्ताव था। इस भाषा में भी संशोधन करना पड़ा, क्योंकि कुछ दलों को किसी वाक्य पर आपत्ति थी। देश जानना चाहेगा कि वह क्या था जिस पर कुछ दलों को आपत्ति थी और जिसके चलते प्रस्ताव की भाषा बदली गई?

अगर हमारा राजनीतिक नेतृत्व गहन संकट के समय कोई ढंग का राजनीतिक प्रस्ताव भी तैयार नहीं कर सकता तो उससे कोई उम्मीद कैसे की जा सकती है? इस प्रभावहीन प्रस्ताव की जड़ में वह राजनीतिक क्षुद्रता और स्वार्थपरता ही झलकी जिसने पिछले दो-तीन दशकों में अपनी जड़ें और गहरी कर ली हैैं। जब देश शोकमग्न था तब राजनीतिक दलों को कैसे अपने राजनीतिक हितों की चिंता सता रही थी, यह उनकी रैलियों और सभाओं से प्रकट हुआ। इनके जरिये आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला कायम हो गया।

क्या पक्ष-विपक्ष के राजनीतिक दल कुछ दिन ठहर नहीं सकते थे? जब यह अपेक्षित था कि सभी दल एक स्वर में बोलते तब वे अलग-अलग स्वर में बोलने लगे और इस तरह शोक के वातावरण में राजनीतिक नकारात्मकता घुलने लगी। इसकी एक बानगी तब मिली जब वंदे भारत एक्सप्रेस में क्षणिक खराबी आने पर उसका उपहास उड़ाया जाने लगा। एक क्षण को ऐसा लगा कि यह देश की नहीं, भाजपा की निजी ट्रेन थी, जो उसकी खराबी पर विरोधी दल खुद को आनंदित होने से नहीं रोक पा रहे थे। इस प्रसंग ने एक बार फिर यही बताया कि सरकार विरोध और देश विरोध के बीच का अंतर किस तरह धुंधला हो गया है। क्या विरोधी दल के लोग या फिर सरकार के कटु आलोचक इस पर भी खुश होना पसंद करेंगे कि सूर्यकिरण विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गए?

आम तौर पर दुनिया में हर आतंकी हमला सुरक्षा में चूक का नतीजा होता है। पुलवामा हमले में भी सुरक्षा-सतर्कता में कमी साफ दिख रही है। इस कमी का उल्लेख किया ही जाना चाहिए, लेकिन आखिर ऐसे वाहियात सवाल का क्या मतलब कि यह हमला चुनाव के ठीक पहले क्यों हुआ? यह सवाल पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का है जो प्रधानमंत्री बनना चाह रही हैैं। इस चाहत में कोई बुराई नहीं, लेकिन उनके इस सवाल का जवाब तो जैश ए मोहम्मद या फिर पाकिस्तानी सेना ही दे सकती है कि पुलवामा में हमला इसी समय क्यों किया गया?

राजनीतिक दलों के चिंतन और विमर्श में गिरावट रातोंरात नहीं आई। यह एक अर्से से जारी है और इसमें सभी दलों का बराबर योगदान है-कांग्रेस, भाजपा से लेकर कमल हासन की ओर से नए बनाए गए राजनीतिक दल का भी। कमल हासन को लगता है कि कश्मीर में जनमत संग्रह कराया जाना चाहिए। कमल हासन इसके उदाहरण हैैं कि हमने कैसे कुछ सतही सोच वाले कलाकारों को फिल्मी पर्दे पर उनके अभिनय के आधार अपना नायक मान लिया है। साफ है कि कमल हासन को इसका ज्ञान भी नहीं कि कश्मीर में जनमत संग्रह संबंधी संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव क्या कहता है।

पुलवामा में हमले के बाद सबसे गंभीर बात यह है कि देश की न तो कोई कश्मीर नीति दिख रही है और न ही पाकिस्तान संबंधी नीति। ऐसी कोई नीति शायद इसीलिए नहीं बन सकी, क्योंकि सरकारें आती-जाती गईं और वे अपने हिसाब से कश्मीर और पाकिस्तान संबंधी नीति में अपने मन मुताबिक फेरबदल करती गईं। नतीजा यह हुआ कि कहीं कोई स्पष्ट नीति रह ही नहीं गई। यह स्थिति इसलिए भी बनी, क्योंकि राजनीतिक दलों के लिए देश के दीर्घकालिक हित पहली प्राथमिकता नहीं बन सके। एक समय अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि दल बनेंगे-बिगड़ेंगे, सरकारें आएंगी-जाएंगी, लेकिन यह देश रहना चाहिए। लगता था कि हमारे राजनीतिक दल इसी भावना से काम करते होंगे, लेकिन अब इसमें संदेह होने लगा है।

कायदे से कश्मीर को शांत करने और पाकिस्तान में पनप रहे खतरे का सामना करने की कोई ठोस नीति तभी बन जानी चाहिए थी जब 1989 में उसने वहां दखल देना शुरू किया था। ऐसा नहीं किया गया। इसके दस साल बाद 1999 में कश्मीर के कारण ही कारगिल में घुसपैठ हुई और वह एक सैन्य संघर्ष में तब्दील हो गई। सैकड़ों सैनिकों ने बलिदान दिया, लेकिन शायद जरूरी सबक नहीं सीखे गए। इसके करीब दस साल बाद 2008 में मुंबई में सबसे भीषण आतंकी हमला हुआ।

तमाम गर्जन-तर्जन के बाद भी पाकिस्तान को सबक सिखाने की किसी नीति पर अमल होते हुए नहीं दिखा। इसके बाद रह-रह कर आतंकी हमले होते रहे और हम रह-रह कर इस उम्मीद में पाकिस्तान के साथ वार्ता की मेज पर जाकर बैठते रहे कि शायद अबकी बार वह सही रास्ते पर आ जाए। मुंबई हमले के करीब दस साल बाद पुलवामा में भीषण हमला शायद इसीलिए हुआ, क्योंकि न तो कश्मीर को शांत करने की कोई व्यापक पहल हुई और न ही पाकिस्तान पर लगाम लगाने की।

एक तरह से देखा जाए तो तीस साल बीत गए हैैं और हम पाकिस्तान के हाथों आहत-अपमानित होते चले आ रहे हैं। हमारी एक के बाद एक सरकारों ने दुनिया से यह अपेक्षा व्यक्त की कि वह पाकिस्तान को आतंकी राष्ट्र घोषित करे, लेकिन हम खुद वह काम नहीं कर सके जो औरों से चाहते थे। नि:संदेह इसका यह मतलब नहीं कि पाकिस्तान को आतंकी राष्ट्र घोषित करने मात्र से वह काबू में आ जाता, लेकिन आखिर कुछ तो ठोस किया जाना चाहिए था। दूसरी ओर यह साफ दिखता है कि भारत को लहूलुहान करने की अपनी नीति पर पाकिस्तान न केवल कायम है, बल्कि वह उसे और धार भी दे रहा है।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )